अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 1
स॒त्यं बृ॒हदृ॒तमु॒ग्रं दी॒क्षा तपो॒ ब्रह्म॑ य॒ज्ञः पृ॑थि॒वीं धा॑रयन्ति। सा नो॑ भू॒तस्य॒ भव्य॑स्य॒ पत्न्यु॒रुं लो॒कं पृ॑थि॒वी नः॑ कृणोतु ॥
स्वर सहित पद पाठस॒त्यम् । बृ॒हत् । ऋ॒तम् । उ॒ग्रम् । दी॒क्षा । तप॑: । ब्रह्म॑ । य॒ज्ञ: । पृ॒थि॒वीम् । धा॒र॒य॒न्ति॒ । सा । न॒: । भू॒तस्य॑ । भव्य॑स्य । पत्नी॑ । उ॒रुम् । लो॒कम् । पृ॒थि॒वी । न॒: । कृ॒णो॒तु॒ ॥१.१॥
स्वर रहित मन्त्र
सत्यं बृहदृतमुग्रं दीक्षा तपो ब्रह्म यज्ञः पृथिवीं धारयन्ति। सा नो भूतस्य भव्यस्य पत्न्युरुं लोकं पृथिवी नः कृणोतु ॥
स्वर रहित पद पाठसत्यम् । बृहत् । ऋतम् । उग्रम् । दीक्षा । तप: । ब्रह्म । यज्ञ: । पृथिवीम् । धारयन्ति । सा । न: । भूतस्य । भव्यस्य । पत्नी । उरुम् । लोकम् । पृथिवी । न: । कृणोतु ॥१.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
राज्य की रक्षा का उपदेश।
पदार्थ
(बृहत्) बढ़ा हुआ (सत्यम्) सत्य कर्म, (उग्रम्) उग्र (ऋतम्) सत्यज्ञान, (दीक्षा) दीक्षा [आत्मनिग्रह], (ब्रह्म) ब्रह्मचर्य [वेदाध्ययन, वीर्यनिग्रह रूप] (तपः) तप [व्रतधारण] और (यज्ञः) यज्ञ [देवपूजा, सत्सङ्ग और दान] (पृथिवीम्) पृथिवी को (धारयन्ति) धारण करते हैं। (नः) हमारे (भूतस्य) बीते हुये और (भव्यस्य) होनेवाले [पदार्थ] की (पत्नी) पालन करनेवाली (सा पृथिवी) वह पृथिवी (उरुम्) चौड़ा (लोकम्) स्थान (नः) हमारे लिये (कृणोतु) करे ॥१॥
भावार्थ
सत्यकर्मी, सत्यज्ञानी, जितेन्द्रिय, ईश्वर और विद्वानों से प्रीति करनेवाले चतुर पुरुष पृथिवी पर उन्नति करते हैं। यह नियम भूत और भविष्यत् के लिये समान है ॥१॥ इस सूक्त का नाम “पृथिवीसूक्त” है। इसमें वर्णित धर्म और नीति के पालने से राजा प्रजा और प्रत्येक गृहस्थ और मनुष्यमात्र का कल्याण होता है ॥ इस सूक्त का संस्कृत और भाषा में सविस्तार भाष्य “वैदिक राष्ट्रगीत” नामक श्रीयुत पं० श्रीपाद दामोदर सातवलेकर सुखप्रकाश, अनारकली लाहौर का बनाया बड़ा उत्तम है। पाठकवृन्द उसे भी पढ़ें, मैं उनका बहुत धन्यवाद करता हूँ ॥
टिप्पणी
१−(सत्यम्) यथार्थकर्म (बृहत्) महत् (ऋतम्) यथार्थज्ञानम् (उग्रम्) प्रचण्डम् (दीक्षा) अ० ८।५।१५। आत्मनिग्रहः (तपः) तपश्चरणम्। व्रतधारणम् (ब्रह्म) ब्रह्मचर्यम्। वेदाध्ययनवीर्यनिग्रहादिरूपव्रतम् (यज्ञः) देवपूजासत्सङ्गदानानि (पृथिवीम्) अ० १।२।१। प्रथेः षिवन्षवन्ष्वनः सम्प्रसारणं च। उ० १।१५०। प्रथ ख्यातौ विस्तारे च−षिवन् सम्प्रसारणं च। षित्त्वान्ङीष्। यः पर्थति सर्वं जगद्विस्तृणाति स पृथिवी.... परमेश्वरः−इति श्रीदयानन्दकृते सत्यार्थप्रकाशे। प्रथनात् पृथिवी−निरु० १।१३। भूमिः राज्यम् (धारयन्ति) धरन्ति (सा) (नः) अस्माकम् (भूतस्य) अतीतवस्तुनः (भव्यस्य) भविष्यत्पदार्थस्य (पत्नी) पालयित्री (उरुम्) विस्तृतम् (लोकम्) दर्शनीयं स्थानम् (पृथिवी) (नः) अस्मभ्यम् (कृणोतु) करोतु ॥
विषय
पृथिवीं धारयन्ति
पदार्थ
१. (बृहत् सत्यम्) = वृद्धि का कारणभूत सत्य, (उग्रम् ऋतम्) ृ प्रबल तेजस्विता का साधक ऋत, अर्थात् भौतिक क्रियाओं का ठीक समय व ठीक स्थान पर करना, (दीक्षा) ृ व्रतग्रहण, (तपः) ृ तप, ब्रह्म ज्ञान और (यज्ञ:) = यज्ञ'-ये बातें (पृथिवीं धारयन्ति) = पृथिवी का धारण करती हैं। जब एक राष्ट्र में लोग, 'सत्य, ऋत, दीक्षा, तप, ब्रह्म और यज्ञों' को अपनाते हैं तब वह राष्ट्र उत्तम बनता है। २. (सा) = वह (नः) = हमारे (भूतस्य भव्यस्य पत्नी) = भूत और भविष्य का रक्षण करनेवाली-हमारे भूत और भविष्य को उज्ज्वल बनानेवाली (पृथिवी) = पृथिवी (न:) = हमारे लिए (उरुम् लोकम्) = [उरु exellent] उत्तम प्रकाश को व विशाल स्थान को (कृणोत) = करे। इस प्रथिवी पर सत्य आदि का पालन करते हुए हम पृथिवी का धारण करते हैं। धारित हुई-हुई यह पृथिवी हमारे भूत व भविष्यत् को उज्वल बनाती है और हमारे लिए उत्तम प्रकाश को प्राप्त कराती है।
भावार्थ
हम 'सत्य, ऋत, दीक्षा, ब्रह्म व यज्ञ'-मय जीवनवाले होते हुए इस पृथिवी का धारण करें, पृथिवी हमारे भूत व भविष्य को अर्थात् सम्पूर्ण जीवन को उज्ज्वल बनाएगी तथा हमारे लिए प्रकाशमय जीवन को प्राप्त कराएगी- इस विस्तृत पृथिवी पर हम सब परस्पर प्रेम से रह पाएँगे।
भाषार्थ
(बृहत् सत्यम्) व्यापी सत्य (उग्रम् ऋतम्) कड़े नियम (दीक्षा) समग्र पृथिवी की सेवा के लिये व्रतग्रहण, (तपः) तपश्चर्या का जीवन, (ब्रह्म) शासन में ब्राह्मणत्व का प्राधान्य तथा आस्तिकता, (यज्ञः) द्रव्ययज्ञ तथा दिव्यजनों की पूजा, उनका सत्संग, तथा त्यागभावना (पृथिवीम्) समग्र पृथिवी का (धारयन्ति) धारण करते हैं। (सा) वह पृथिवी (नः) हमारे (भूतस्य, भव्यस्य) भूत और भविष्य का (पत्नी) निर्माण करती है। (पृथिवीः नः) पृथिवी हमारे लिये (उरुम्, लोकम्) विस्तृत प्रवेश प्रदान करे।
टिप्पणी
[काण्ड १२। सूक्त १ भूमि माता का वर्णन करता है, संकुचित राष्ट्र-भूमियों का नहीं। माता निज समग्र शरीर रूप में माता है, उस का प्रत्येक अलग-अलग अंग माता नहीं। इसी समुचित-इकाई रूप-पृथिवी का वर्णन समग्र सूक्त में हुआ है। बीच-बीच में राष्ट्रों का भी वर्णन हुआ है, परन्तु समग्र पृथिवी के अङ्ग रूप में, न कि स्वतन्त्र सत्ताओं के रूप में। वेदानुसार राष्ट्रों और समग्र पृथिवी में पारस्परिक वही सम्बन्ध है जो कि देहावयवों और देह में है। इस समग्र पृथिवी के धारण के लिये प्रजाओं और शासकों में जिन-जिन गुणों का होना आवश्यक है, उनका वर्णन मन्त्र के पूर्वार्ध में किया है। परस्पर विरोध तथा संकुचित राष्ट्र-भावनाओं के रहते, पृथिवी, युद्धों तथा परस्पर विद्वेषों की स्थली बन कर, विनाश का कारण बनी रहती है। पृथिवी के भिन्न-भिन्न प्रदेशों के भिन्न-भिन्न जल-वायु, तथा भिन्न-भिन्न परिस्थितियों के कारण उस-उस प्रदेश के निवासियों के भूत तथा भावी जीवनों में भेद तथा वैषम्य का होना स्वाभाविक है।
विषय
पृथिवी सूक्त।
भावार्थ
(बृहत् सत्यं) महान् सत्य, (उग्रं ऋतम्) उग्र बलवान्, भयकारी, ‘ऋत’ = परम सत्यव्यवस्था, (दीक्षा) कार्य करने का दृढ़ संकल्प, दीक्षा, (तपः) तप, तपस्या (ब्रह्म) ब्रह्म = वेद और अन्न और (यज्ञः) यज्ञ, प्रजापति ये पदार्थ (पृथिवीं धारयन्ति) पृथिवी, समस्त संसार को धारण करते हैं। (साः) वह पृथिवी (नः) हमारे (भूतस्य) भूत, गुजरे हुए कामों और (भव्यस्य) आगे होने वाले भविष्यत् के कार्यों की (पत्नी) स्वामिनी, पालक है। वह (पृथिवी) पृथिवी (नः) हमारे लिये (उरुं लोकं) विशाल स्थान (कृणोतु) प्रदान करे। जिसमें हम खूब रहें और फलें फूलें। परमात्मा का दिया ज्ञान ‘बृहत्सत्य’ है और उसकी बनाई व्यवस्थाएं ‘उग्र ऋत’ हैं। दृढ़ संकल्प दीक्षा है, तपोबल, ब्रह्मज्ञान और यज्ञ आदि परोपकार के कार्य प्रजापति और अन्न इन से पृथिवी स्थित है, उनके आधार पर प्राणी जीते हैं।
टिप्पणी
(तृ०) ‘भूतस्य भुवनस्य’ इति मै० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। भूमिर्देवता। १ त्रिष्टुप्, २ भुरिक्, ४-६, १० त्र्यवसाना षट्पदा जगत्यः, ७ प्रस्तार पंक्तिः, ८, ११ व्यवसाने षट्पदे विराडष्टी, ९, परानुष्टुप्, १२ त्र्यवसने शक्वर्यौ। ६, १५ पञ्चपदा शक्वरी, १४ महाबृहती, १६, २१ एकावसाने साम्नीत्रिष्टुभौ, १८ त्र्यवसाना षट्पदा त्रिष्टुबनुष्टुब्गर्मातिशक्वरी, १९ पुरोबृहती, २२ त्र्यवसाना षट्पदा विराड् अतिजगती, २३ पञ्चपदा विराड् जगती, २४ पञ्चपदानुष्टुब्गर्भा जगती, २५ सप्तपदा उष्णिग् अनुष्टुब्गर्भा शक्वरी, २६-२८ अनुष्टुभः, ३० विराड् गायत्री ३२ पुरस्ताज्ज्योतिः, ३३, ३५, ३९, ४०, ५०, ५३, ५४,५६, ५९, ६३, अनुष्टुभः, ३४ त्र्यवसासना षट्पदा त्रिष्टुप् बृहतीगर्भातिजगती, ३६ विपरीतपादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पंचपदा व्यवसाना शक्वरी ३८ त्र्यवसाना षट्पदा जगती, ४१ सप्तपदा ककुम्मती शक्वरी, ४२ स्वराडनुष्टुप्, ४३ विराड् आस्तार पंक्तिः ४४, ४५, ४९ जगत्यः, षट्पदाऽनुष्टुबगर्भा परा शक्वरी ४७ षट्पदा विराड् अनुष्टुब् गर्भापरातिशक्वरी ४८ पुरोऽनुष्टुप्, ५० अनुष्टुप्, ५१ व्यवसाना षट्पदा अनुष्टुब्गर्भा ककुम्मती शक्वरी, ५२ पञ्चपदाऽनुष्टुब्गर्भापरातिजगती, ५३ पुरोबृहती अनुष्टुप् ५७, ५८ पुरस्ताद्बृहत्यौ, ६१ पुरोवार्हता, ६२ पराविराट, १, ३, १३, १७, २०, २९, ३१, ४६, ५५, ६०, त्रिष्टुभः। त्रिषष्टयृचं सूक्तम्॥
मन्त्रार्थ
(बृहत् सत्यम्) बृहत्-महत्-सर्वदेशी सत्य-'सत्सु पृथिवीप्रभृतिषु साधु' अव्यक्त उपादान ऋति सत्य । जैसे मिट्टी के विकारों में मिट्टी सत्य, स्वर्ण के विकारों में स्वर्ण सत्य (उग्रम्-ऋतम्) उद्गीर्ण ज्ञान-ऊंचा ज्ञान-प्रबल नियमन अपने अक्ष पर, अपने केन्द्र पर सूर्य के चारों और भ्रमणविधान [ऋतञ्चसत्यञ्चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत] (दीक्षा तपः) जीवों की कर्मफल भोग प्राप्ति सम्बन्धी योग्यता, स्वाभाविक कर्मशक्ति (ब्रह्म) परमात्मा (यज्ञः) अणुसङ्गतिकरण धर्म- पिण्डीकरण धर्म । ये छः (पृथिवीं धारयन्ति) पृथिवी को धारण करते हैंपृथिवी के रचना में हेतु हैं (सा पृथिवी नः भूतस्य भव्यस्य पत्नी) वह पृथिवी हमारे पिछले किये कर्मफल और भविष्य में किये जाने वाले कर्मफल की रक्षिका है (नः-उरुं लोकं कृणोतु) हमारे लिए कर्म करने और कर्मफल पाने को तथा निवासार्थ विस्तृत अवकाश एवं स्थान देती है ॥१॥
विशेष
ऋषिः- अथर्वा (स्थिर ज्ञान वाला ) देवता - भूमिः ( पृथिवी )
इंग्लिश (4)
Subject
The Song of Mother Earth
Meaning
Pillars of the Earth: Truth of Constancy, Infinity, Law of Mutability, Passion for Truth and Law, inviolable Commitment, Austerity of discipline, Divine knowledge, Yajna, participative living for creativity and contribution: these sustain the Earth, the life on earth and the human family on earth. May She, Prthivi, Mother, sustainer of past, present and future of all living beings, provide and continue to provide a beautiful wide world of life and joy for all of us.
Subject
Bhumi : Earth
Translation
Great (brhant) truth, formidable right, consecration, penance, brahman, and sacrifice sustain the earth; let her for us, mistress of what is and what is to be -- let for us wide room (loka). `
Translation
The truth and honesty greatness and generosity; rules and morale, natural strength austerity with industry and labor, discipline, science and arts, and organization and sacrifice govern the destiny of the land (nation). May this earth in wherein the whole past attainments of mankind are preserved and remain in plenty in store to be attained in future, yield us vast scope and opportunities for our life purpose.
Translation
Truth, Material prosperity, Justice, Military strength. Efficiency, Hard work. Knowledge, Mutual regard. Unity and Charity sustain a state. May this motherland of ours grant us ample scope for advancement.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(सत्यम्) यथार्थकर्म (बृहत्) महत् (ऋतम्) यथार्थज्ञानम् (उग्रम्) प्रचण्डम् (दीक्षा) अ० ८।५।१५। आत्मनिग्रहः (तपः) तपश्चरणम्। व्रतधारणम् (ब्रह्म) ब्रह्मचर्यम्। वेदाध्ययनवीर्यनिग्रहादिरूपव्रतम् (यज्ञः) देवपूजासत्सङ्गदानानि (पृथिवीम्) अ० १।२।१। प्रथेः षिवन्षवन्ष्वनः सम्प्रसारणं च। उ० १।१५०। प्रथ ख्यातौ विस्तारे च−षिवन् सम्प्रसारणं च। षित्त्वान्ङीष्। यः पर्थति सर्वं जगद्विस्तृणाति स पृथिवी.... परमेश्वरः−इति श्रीदयानन्दकृते सत्यार्थप्रकाशे। प्रथनात् पृथिवी−निरु० १।१३। भूमिः राज्यम् (धारयन्ति) धरन्ति (सा) (नः) अस्माकम् (भूतस्य) अतीतवस्तुनः (भव्यस्य) भविष्यत्पदार्थस्य (पत्नी) पालयित्री (उरुम्) विस्तृतम् (लोकम्) दर्शनीयं स्थानम् (पृथिवी) (नः) अस्मभ्यम् (कृणोतु) करोतु ॥
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