अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 1
ऋषिः - यमः
देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त
2
पुमा॑न्पुं॒सोऽधि॑ तिष्ठ॒ चर्मे॑हि॒ तत्र॑ ह्वयस्व यत॒मा प्रि॒या ते॑। याव॑न्ता॒वग्रे॑ प्रथ॒मं स॑मे॒यथु॒स्तद्वां॒ वयो॑ यम॒राज्ये॑ समा॒नम् ॥
स्वर सहित पद पाठपुमा॑न् । पुं॒स: । अधि॑ । ति॒ष्ठ॒ । चर्म॑ । इ॒हि॒। तत्र॑ । ह्व॒य॒स्व॒ । य॒त॒मा । प्रि॒या । ते॒ । याव॑न्तौ । अग्रे॑ । प्र॒थ॒मम् । स॒म्ऽएयथु॑: । तत् । वा॒म् । वय॑: । य॒म॒ऽराज्ये॑ । स॒मा॒नम् ॥३.१॥
स्वर रहित मन्त्र
पुमान्पुंसोऽधि तिष्ठ चर्मेहि तत्र ह्वयस्व यतमा प्रिया ते। यावन्तावग्रे प्रथमं समेयथुस्तद्वां वयो यमराज्ये समानम् ॥
स्वर रहित पद पाठपुमान् । पुंस: । अधि । तिष्ठ । चर्म । इहि। तत्र । ह्वयस्व । यतमा । प्रिया । ते । यावन्तौ । अग्रे । प्रथमम् । सम्ऽएयथु: । तत् । वाम् । वय: । यमऽराज्ये । समानम् ॥३.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
परस्पर उन्नति करने का उपदेश।
पदार्थ
[हे प्राणी !] तू (पुमान्) रक्षक [पुरुष होकर] (पुंसः) रक्षक [पुरुषों] पर (अधि तिष्ठ) अधिष्ठाता हो, (चर्म) ज्ञान (इहि) प्राप्त कर, (तत्र) वहाँ [ज्ञान के भीतर] [उस शक्ति को] (ह्वयस्व) बुला, (यतमा) जौन सी [शक्ति अर्थात् परमेश्वर] (ते) तेरे लिये (प्रिया) प्रिय करनेवाली है। (यावन्तौ) जितने [पराक्रमी] तुम दोनों ने (अग्रे) पहिली अवस्था में (प्रथमम्) प्रधान कर्म (समेयथुः) मिलकर पाया है, (तत्) उतना ही (वाम्) तुम दोनों का (वयः) जीवन (यमराज्ये) न्यायाधीश [परमेश्वर] के राज्य में (समानम्) समान है ॥१॥
भावार्थ
स्त्री-पुरुषों को योग्य है कि प्रथम अवस्था में ब्रह्मचर्यसेवन से मनुष्यों में उत्तम ज्ञान प्राप्त करके अपने-अपने पुरुषार्थ के अनुसार जीवन भर सुखी रहें ॥१॥
टिप्पणी
१−(पुमान्) अ० १।८।१। पातीति पुमान्। रक्षको जीवः (पुंसः) रक्षकान् (अधि) अधिकृत्य (तिष्ठ) वर्तस्व (चर्म) चर गतिभक्षणयोः−मनिन्। ज्ञानम् (इहि) प्राप्नुहि (तत्र) ज्ञाने (ह्वयस्व) आह्वय (यतमा) बह्वीषु या शक्तिस्तामिति शेषः (प्रिया) हिता (ते) तुभ्यम् (यावन्तौ) यत्परिमाणौ पराक्रमिणौ (अग्रे) पूर्वे वयसि (प्रथमम्) प्रधानं कर्म (समेयथुः) सम्+आङ्+ईयथुः। युवां मिलित्वा प्राप्तवन्तौ (तत्) तावत् (वाम्) युवयोः (वयः) जीवनम् (यमराज्ये) न्यायाधीशस्य परमेश्वरस्य न्यायव्यवहारे (समानम्) तुल्यम् ॥
विषय
पुमान्
पदार्थ
१. घर को स्वर्ग बनाने के लिए सर्वप्रथम आवश्यक बात यह है कि मनुष्य शक्तिशाली हो। निर्बलता कभी स्वर्ग को जन्म नहीं दे सकती, अत: कहते हैं कि (पुमान्) = तू शक्तिशाली बन-पुरुष बन। (पुंसः अधितिष्ठ) = शक्तिशालियों का अधिष्ठाता बन । शक्तिशालियों में तेरा स्थान उच्च हो। (चर्म इहि) = [फलकोऽस्त्री फलं चर्म] तू ढाल को प्राप्त हो। शरीर में 'वीर्य' ही वह ढाल है, जोकि सब रोगरूप शत्रुओं के आक्रमण से हमें बचाती है। (तत्र) = वहाँ गृहस्थाश्रम में (ह्वयस्व) = तू उस जीवन के साथी को पुकार (यतमा प्रिया ते) = जोकि तुझे प्रिय हो। वस्तुत: घर का स्वर्ग बनना इस बात पर निर्भर करता है कि जीवन का साथी अनुकूल मिलता है या नहीं। साथी की अनुकूलता में घर अवश्य स्वर्ग बनता है। २. (अग्रे) = पहले ब्रह्मचर्याश्रम में आप (यावन्तौ) = जितने (प्रथमं समेयथः) = प्रथम स्थान में गतिवाले होते हो, अर्थात् उन्नति करते हो, (तत्) = वह (वाम्) = आप दोनों का (वयः) = जीवन (यमराज्ये) = संयत जीवनवाले पुरुष के राज्यभूत इस गृहस्थ में (समानम्) = समान बना रहे अर्थात् जैसे ब्रह्मचर्याश्रम में आपका जीवन संयम से उन्नत हुआ, उसी प्रकार इस गृहस्थ को भी आप दोनों ने (यमराज्ये) = संयमीपुरुष का राज्य बनाना। इस यमराज्य में आप दोनों का जीवन उसी प्रकार उन्नत बना रहे, जैसेकि ब्रह्मचर्याश्रम में उन्नत था।
भावार्थ
घर को स्वर्ग बनाने के लिए आवश्यक है कि [क] पुरुष शक्तिशाली हो वीर्यरूप ढालवाला हो। [ख] उसे जीवन का साथी अनुकूल मिले [ग] गृहस्थ को भी ये 'यमराज्य' बनाये रक्खें, अर्थात् गृहस्थ में भी संयम व व्यवस्था से चलें।
भाषार्थ
(पुमान्) वृद्धिशील हे पुरुष ! तू (पुंसः१) नर पशु के (चर्म१) चमड़े पर (अधितिष्ठ) बैठ, (एहि) आा, (तत्र) उस पर [बैठने के लिये] (ह्वयस्व) उसे बुला (यतमा) इन में से जो (ते) तेरी (प्रिया) प्रिया है। (अग्ने) पहिले अर्थात् ब्रह्मचर्याश्रम में (यावन्तौ) जिस आयु के तुम दोनों (प्रथमम् समेयथुः) प्रथम संगत हुए थे, [गुरुकुल में] प्रविष्ट हुए थे, (वाम्) तुम दोनों की (तत् वयः) वह आयु (यमराज्ये) यमनियमों के पालन कराने वाले नियन्ता राजा के राज्य में (समानम्) मान सहित स्वीकृत है।
टिप्पणी
[विवाह सम्बन्धी प्रकरण है। विवाह के लिये वरवधू की आयुओं का विचार राज्याधिकारी रखें। ब्रह्मचर्याश्रमों में उन की जो-जो आयु अङ्कित हो, राज्य में उसे मानपूर्वक स्वीकृत कर लेनी चाहिये। विवाह से पूर्व वर-वधू में विवाह के लिये परस्पर प्रीति होनी चाहिये]। [१. चर्म = अजिन या मृगछाल। "पुंसः" द्वारा यह दर्शाया है कि तू अभिवृद्धि शील पुरुषों पर अधिष्ठित हो, उन का मुखिया बन। पुंसः (पुंस् अभिवर्धने)]
इंग्लिश (4)
Subject
Svarga and Odana
Meaning
Brave man, intelligent soul, mature and self- confident, come, take this seat of distinction here, invite whoever be your dearest choice of love, and as much as you first met, thought, associated and agreed together earlier, may that life pattern, love and harmony be equal and equally acceptable in the ethos, culture and values of the social order. (This mantra is relevant to love, marriage, home, family and also to the entire social order and its tradition. A life of love, harmony and social order is a very paradise on earth, and that paradisal bliss also is the food of life on top.)
Subject
Cremation as a sacrifice
Translation
Stand, a man, upon men; go to the hide; call thither her who is dear to thee; of what age ye two first came together in the beginning, let that be your same age in Yama’s realm.
Translation
O strong and mighty one among men ! become the master of all people and ascend to this seat. You call and select the lady (to marry as wife) who soever is to your liking (according to nature, merits and culture). Whatever strength you both have attained in first part of life, will be same and equal in the house-hold kingdom of life.
Translation
O man, lead other persons. Acquire knowledge. Therewith invoke the power thou lovest! Strong as ye were when first you met each other, still be your strength the same in household life
Footnote
The power: God. You: Husband and wife. The pair should try to maintain during their domestic life the strength they possessed at the time of marriage, through observing the laws of Brahmcharya
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(पुमान्) अ० १।८।१। पातीति पुमान्। रक्षको जीवः (पुंसः) रक्षकान् (अधि) अधिकृत्य (तिष्ठ) वर्तस्व (चर्म) चर गतिभक्षणयोः−मनिन्। ज्ञानम् (इहि) प्राप्नुहि (तत्र) ज्ञाने (ह्वयस्व) आह्वय (यतमा) बह्वीषु या शक्तिस्तामिति शेषः (प्रिया) हिता (ते) तुभ्यम् (यावन्तौ) यत्परिमाणौ पराक्रमिणौ (अग्रे) पूर्वे वयसि (प्रथमम्) प्रधानं कर्म (समेयथुः) सम्+आङ्+ईयथुः। युवां मिलित्वा प्राप्तवन्तौ (तत्) तावत् (वाम्) युवयोः (वयः) जीवनम् (यमराज्ये) न्यायाधीशस्य परमेश्वरस्य न्यायव्यवहारे (समानम्) तुल्यम् ॥
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