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अथर्ववेद के काण्ड - 15 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 1
    ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - साम्नी अनुष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
    1

    स उद॑तिष्ठ॒त्सप्राचीं॒ दिश॒मनु॒ व्यचलत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स: । उत् । अ॒ति॒ष्ठ॒त् । स: । प्राची॑म् । दिश॑म् । अनु॑ । वि । अ॒च॒ल॒त् ॥२.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स उदतिष्ठत्सप्राचीं दिशमनु व्यचलत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स: । उत् । अतिष्ठत् । स: । प्राचीम् । दिशम् । अनु । वि । अचलत् ॥२.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (4)

    विषय

    परमेश्वर की सर्वत्र व्यापकता का उपदेश।

    पदार्थ

    (सः) वह [व्रात्यपरमात्मा] (उत् अतिष्ठत्) खड़ा हुआ (सः) वह (प्राचीम्) सामनेवाली [अथवा पूर्व] (दिशम् अनु) दिशा की ओर (वि अचलत्) विचरा ॥१॥

    भावार्थ

    मनुष्य परमात्मा कोअपने सामने वा पूर्व दिशा में व्यापक जानकर आगे को प्रवृत्ति करे ॥१॥इस सूक्तमें परमात्मा के विराट् रूप का वर्णन है ॥

    टिप्पणी

    १−(सः) व्रात्यः परमात्मा (उदतिष्ठत्)प्रादुरभवत् (सः) (प्राचीम्) अ० ३।२६।१। अभिमुखीभूताम् पूर्वाम् (दिशम्) दिशाम् (अनु) अनुलक्ष्य (वि) विविधम् (अचलत्) अचरत् ॥

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    विषय

    प्राची दिशा में 'बृहत्-रथन्तर, आदित्य व विश्वेदेवों' की प्राप्ति

    पदार्थ

    १. (स:) = वह व्रात्य (उदतिष्ठत्) = उठा, आलस्य को छोड़कर उद्यत हो गया और (स:) = वह (प्राचीं दिशम्) = [प्र अञ्च] आगे बढ़ने की दिशा को (अनुव्यचलत्) = लक्ष्य करके चला। व्रतमय जीवनवाला पुरुष क्यों न आगे बढ़ेगा? २. (तम्) = उस व्रतमय जीवनवाले, अग्रगति के लिए निरन्तर उद्यत व्रात्य को (बृहत् च) = हदय की विशालता, (रथन्तरं च) = शरीररूप रथ से जीवनमार्ग को पार करने की वृत्ति (आदित्याः च) = सूर्यसम ज्ञानदीसिया तथा (विश्वेदेवा:) = सब दिव्यगुण (अनुव्यचलन्) = अनुकूलता से प्राप्त हुए। ३. (स:) = वह व्रात्य वै-निश्चय से (बृहते च) = हृदय की विशालता के लिए (रथन्तराय) = शरीररूप रथ के द्वारा जीवनमार्ग को पार करने की वृत्ति के लिए (आदित्येभ्यः च) = ज्ञानदीतियों को प्राप्त करने के लिए (च) = और (विश्वेभ्यः देवेभ्यः) = सब दिव्यगुणों के ग्रहण के लिए (आवृश्चते) = समन्तात् वासनारूप शत्रुओं का छेदन करता है। यह भी शत्रुओं का छेदन करने में प्रवृत्त होता है।(यः) = जो (एवम्) = इसप्रकार (विद्वांसं वात्यम् उपवदति) = ज्ञानी व्रतीपुरुष के समीप उपस्थित होकर इन ज्ञानों व व्रतों की चर्चा करता है-इन ज्ञान व व्रत की बातों को ही पूछता है, ४. (स:) = वह (वै) = निश्चय से (बृहत् च) = विशाल हृदय का (रथन्तरस्य च) = शरीर-रथ से जीवन-यात्रा के मार्ग को पार करने की वृत्ति का, (आदित्यनांच) = विज्ञानों के आदानों का (च) = और (विश्वेषां देवानाम्) = सब दिव्यगुणों का प्(रियं धाम भवति) = प्रियधाम बनता है। इन सब बातों का वह निवासस्थान होता है। (तस्य) = उस विद्वान् व्रात्य के जीवन में (प्राच्यां दिशि) = प्रगति की दिशा में 'बृहत, रथन्तर, आदित्य और विश्वेदेव' जीवन के साथी बनते हैं।

    भावार्थ

    जिस समय यह व्रतमय जीवनवाला पुरुष आलस्य को छोड़कर प्रगति की दिशा में आगे बढ़ता है तब इस दिशा में वह 'विशालहृदयता, शरीर-रथ से जीवनमार्ग को पार करने को वृत्ति, विज्ञानों का आदान व दिव्यगुणों के धारण' से अलंकृत जीवनवाला होता है।

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    भाषार्थ

    (सः) वह व्रात्य अर्थात् व्रती तथा मनुष्यहितकारी [संन्यासी] (उदतिष्ठत) उठा, प्रयत्नवान् हुआ, (सः) वह (प्राचीं दिशम्) पूर्व दिशा१ के (अनु) साथ-साथ (व्यचलत्) विशेषतया चला या विचरा।

    टिप्पणी

    [मन्त्र में किसी ऐतिहासिक वृत्त का वर्णन नहीं। प्ररोचनार्थ ऐतिहासिक ढंग के शब्दों में वर्णन किया है। यह केवल अर्थवाद है, काल्पनिक कथारूप है। अर्थवाद में किसी अभिप्रेत वस्तु की सिद्धि के लिये वस्तु का कथारूप में वर्णन किया जाता है। उदतिष्ठत = यथा "उत्तिष्टत जाग्रत प्राप्य वरान निबोधत" (कठोप० १।३।१४) में उठने का अभिप्राय है, –यत्न करना। अनु= Along, Alongside (आप्टे), अर्थात् साथ-साथ। यथा "अनुगङ्ग वाराणसी। व्यचलत् = विशेषतया अर्थात् दूर तक। सूक्त २ में व्रात्यदसंन्यासी का वर्णन है, यह अगले मन्त्रों से स्पष्ट हो जायगा]। [१. सूत्र २ में संन्यासी के - पूर्व, दक्षिण, पश्चिम, उत्तर दिशा में, - गमन का कथन किया है। इस कथन का अभिप्राय यह दर्शाना है कि संन्यासी यथासम्भव सर्वत्र जा कर सदुपदेश किया करे।]

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    विषय

    व्रत्य प्रजापति का वर्णन।

    भावार्थ

    (सः) वह व्रात्य (उद् अतिष्ठत्) उठा। (सः) वह (प्राचीं दिशाम्) प्राची दिशा को (अनुव्यचलत्) चला॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-४ (प्र०), १ ष०, ४ ष० साम्नी अनुष्टुप् १, ३, ४ (द्वि०) साम्नी त्रिष्टुप, १ तृ० द्विपदा आर्षी पंक्तिः, १, ३, ४ (च०) द्विपदा ब्राह्मी गायत्री, १-४ (पं०) द्विपदा आर्षी जगती, २ (पं०) साम्नी पंक्तिः, ३ (पं०) आसुरी गायत्री, १-४ (स०) पदपंक्तिः १-४ (अ०) त्रिपदा प्राजापत्या त्रिष्टुप्, २ (द्वि०) एकपदा उष्णिक्, २ (तृ०) द्विपदा आर्षी भुरिक् त्रिष्टुप् , २ (च०) आर्षी पराऽनुष्टुप, ३ (तृ०) द्विपदा विराडार्षी पंक्तिः, ४ (वृ०) निचृदार्षी पंक्तिः। अष्टाविंशत्यृचं द्वितीयं पर्यायसूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vratya-Prajapati daivatam

    Meaning

    He rose up, moved to the eastern quarter.

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    Subject

    PARYAYA -II

    Translation

    He rose up. He started moving towards the eastern quarter.

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    Translation

    He (the Vratya) rises up and he walks to eastern region.

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    Translation

    God appeared, and manifested Himself in the eastern region.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(सः) व्रात्यः परमात्मा (उदतिष्ठत्)प्रादुरभवत् (सः) (प्राचीम्) अ० ३।२६।१। अभिमुखीभूताम् पूर्वाम् (दिशम्) दिशाम् (अनु) अनुलक्ष्य (वि) विविधम् (अचलत्) अचरत् ॥

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