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अथर्ववेद के काण्ड - 16 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 1
    ऋषिः - प्रजापति देवता - द्विपदा साम्नी बृहती छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - दुःख मोचन सूक्त
    5

    अति॑सृष्टो अ॒पांवृ॑ष॒भोऽति॑सृष्टा अ॒ग्नयो॑ दि॒व्याः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अति॑ऽसृष्ट: । अ॒पाम् । वृ॒ष॒भ: । अति॑ऽसृष्ट: । अ॒ग्नय॑: । दि॒व्या: ॥१.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अतिसृष्टो अपांवृषभोऽतिसृष्टा अग्नयो दिव्याः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अतिऽसृष्ट: । अपाम् । वृषभ: । अतिऽसृष्ट: । अग्नय: । दिव्या: ॥१.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 16; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    दुःख से छूटने का उपदेश।

    पदार्थ

    (अपाम्) प्रजाओं का (वृषभः) बड़ा ईश्वर [परमात्मा] (अतिसृष्टः) विमुक्त [छूटा हुआ] है, [जैसे] (दिव्याः) व्यवहारों में वर्तमान (अग्नयः) अग्नियाँ [सूर्य, बिजुली और प्रसिद्धअग्नि] (अतिसृष्टाः) विमुक्त हैं ॥१॥

    भावार्थ

    वह परमात्मा सब सृष्टिमें ऐसा स्वतन्त्र रम रहा है, जैसे सूर्य, बिजुली, अग्नि, वायु आदि संसार मेंनिरन्तर सर्वोपकारी हैं, सब मनुष्य उस जगदीश्वर की उपासना करें ॥१॥

    टिप्पणी

    १−(अतिसृष्टः)स्वातन्त्र्येण विमुक्तः (अपाम्) आपः=आप्ताः प्रजाः-दयानन्दभाष्ये, यजुः० ६।२७।प्रजानाम् (वृषभः) वृषु सेचने परमैश्वर्ये च-अभच्, कित्। परमेश्वरः। सर्वस्वामी (अतिसृष्टाः) विमुक्ताः (अग्नयः) सूर्यविद्युत्प्रसिद्धाग्नयः (दिव्याः)व्यवहारेषु भवाः ॥

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    विषय

    प्रभु'माता-पिता-आचार्य'

    पदार्थ

    १. मैंने (अपां वृषभ:) = [आपो नारा इति प्रोक्ताः] नर-समूह पर सुखों का वर्षण करनेवाले प्रभु को (अतिसृष्ट:) = [to part with, abandon, dismiss] छोड़ दिया-ध्यान द्वारा प्रभु सम्पर्क-प्राप्त करने का विचार नहीं किया। इतना ही नहीं, (अग्नयः) = माता-पिता व आचार्यरूप अग्नियों को भी [पिता वै गार्हपत्योऽग्निः माताग्निदक्षिणः स्मृतः। गुरुराहवनीयस्तु साग्नित्रेता गरीयसी। -मनु०] (अतिसुष्ट:) = छोड़ दिया। उनके निर्देशों के अनुसार चलने के लिए यत्न नहीं किया। (दिव्या:) = ये अग्नियाँ तो दिव्य थीं। इन्होंने ही तो मेरे जीवन को प्रकाशमय बनाया था। इनसे दूर होकर मेरा जीवन अन्धकारमय हो गया।

    भावार्थ

    प्रभु का ध्यान तथा माता-पिता व आचार्य की प्रेरणाएँ हमारे जीवनों को प्रकाशमय व सुखी बनाती हैं।

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    भाषार्थ

    (अपाम्) जलों की (वृषभः) वर्षा करने वाला (अतिसृष्टः) मैंने छोड़ दिया है, (दिव्याः) मादक (अग्नयः) अग्नियां (अतिसृष्टाः) मैंने छोड़ दी है।

    टिप्पणी

    [१६ वें काण्ड में दो अनुवाक है। अनुक्रमणी में इन्हें "प्राजापत्य" कहा है। प्राजापत्य का अभिप्राय सम्भवतः है "प्रजापतिदेवताक" अर्थात प्रजापति-परमेश्वर द्वारा प्रोक्त। अथर्ववेद १९।२३।२६ में "प्राजापत्यभ्यां स्वाहा" द्वारा १६ वें काण्ड के ये दो अनुवाक निर्दिष्ट किये है। १९।२३।२६ के अनुसार अनुक्रमणी में इन दो अनुवाकों को प्राजापत्य कहा प्रतीत होता है। अपाम् = आपः शब्द वेद में कई अर्थों में प्रयुक्त होता है। यथा जल, प्राण, रक्त, अन्तरिक्ष आदि। महर्षि दयानन्द ने आपः की व्युत्पत्ति की है "आप्नुवन्ति शरीरमिति आपः" (उणा० २।५९)। इस से ज्ञात होता है कि महर्षि को आपः द्वारा "रक्त" अर्थ भी अभिप्रेत है (अथर्व १०।२।१२ में भी आपः का अर्थ रक्त प्रतीत होता है। यथा- को अस्मिन्नापो व्यदधात्विषूवृतः पुरूवृतः सिन्धुसृत्याय जाताः। तीव्रा अरुणा लोहिनीस्ताम्रधूम्रा ऊर्ध्वा अवाचीः पुरुषे तिरश्चीः ॥ (अथर्व० २०।२।११)। मन्त्र में "सिन्धु" पद द्वारा हृदय कहा है, और "पुरुषे आपः” द्वारा पुरुषस्थ रक्त आदि। आपः के विशेषणः है "तीव्राः, अरुणाः, लोहिनीः, धूम्रवर्णाः" आदि जो कि रक्त के बोधक है। अपाम्, वृषभः= इन पदों द्वारा वीर्य-वर्षुक कामी व्यक्ति सूचित किया है। वीर्य, विलीन रहता है रक्त रूपी-आपः में। इस दृष्टि से वृषभ पद के साथ "अपाम्" शब्द प्रयुक्त हुआ है। इस वीर्य-वर्षुक कामी व्यक्ति के कुसङ्ग के परित्याग का वर्णन मन्त्र में हुआ है। इस कुसङ्ग का परिणाम यह होता है कि कुसङ्गी का संगी भी कामी बन जाता है। मन्त्र में कुसङ्गी के सङ्ग का परित्यागी व्यक्ति, संकल्प और प्रतिज्ञा करता है कि मैंने अब मादक अग्नियों का भी परित्याग कर दिया है। स्त्रियों का पुरुषों के साथ, तथा पुरुषों का स्त्रियों के साथ नर्तन, कीर्तन, केलि, अनुरागमय भाषण अवैधरति आदि कुकाममयी अग्नियां हैं, जो कि मानसिक और शारीरिक शक्तियों को भस्मीभूत कर देती है। यह अग्नियां दिव्य हैं, पार्थिव अग्नियों की रुपाकृति के सदृश नहीं। ये मनोगत और शरीरगत अग्नियां है। दिव्य पद में दिव्-धातु का अर्थ है "मद"। अतः "दिव्याः अग्नयः" का अर्थ "मादक अग्नियां" किया है। ये अग्नियां मदमस्ती पैदा कर देती हैं१। अथवा मन्त्र में "अग्नयोऽदिव्याः"= अग्नयोदिव्याः][१. १६ काण्ड में आपः अर्थात् जल, रस-रक्त और वीर्य का; आपः में स्थित दो प्रकार की अग्नियों का; दुःस्वप्न और उसके परिणामों का; तथा स्वप्नों के कारणों आदि का वर्णन हुआ है।]

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    विषय

    पापशोधन।

    भावार्थ

    (अपां) जलों का (वृषभः) वर्षण करने वाला सूर्य (अतिसृष्टः) अच्छे प्रकार से रचा गया है। इसी प्रकार (दिव्याः) और भी दिव्य अग्नि में, द्यौ लोक में प्रकाशमान सहस्रों सूर्य और विद्युत् आदि (अतिसृष्टाः) रचे गये हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रजापतिर्देवता। १, ३ साम्नी बृहत्यौ, २, १० याजुपीत्रिष्टुभौ, ४ आसुरी गायत्री, ५, ८ साम्नीपंक्त्यौ, (५ द्विपदा) ६ साम्नी अनुष्टुप्, ७ निचृद्विराड् गायत्री, ६ आसुरी पंक्तिः, ११ साम्नीउष्णिक्, १२, १३, आर्च्यनुष्टुभौ त्रयोदशर्चं प्रथमं पर्यायसूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vratya-Prajapati daivatam

    Meaning

    The mighty cloud of the waters of life is released, the flood is on the flow, the divine fires of life are released, the lights radiate, ...

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    Subject

    Prajápati

    Translation

    Sent away is the showerer of waters; sent away are the fires celestial.

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    Translation

    The electricity in cloud, which causes rain has been let go, the fires in heavenly region and rays have been let go (without making any harm).

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    Translation

    God, the Lord of all creatures is free like the Sun, Lightning and fire.

    Footnote

    Apana (अपाम्) आपः= आप्तः प्रजाः vide Dayananda commentary Yajur, 6-27,

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(अतिसृष्टः)स्वातन्त्र्येण विमुक्तः (अपाम्) आपः=आप्ताः प्रजाः-दयानन्दभाष्ये, यजुः० ६।२७।प्रजानाम् (वृषभः) वृषु सेचने परमैश्वर्ये च-अभच्, कित्। परमेश्वरः। सर्वस्वामी (अतिसृष्टाः) विमुक्ताः (अग्नयः) सूर्यविद्युत्प्रसिद्धाग्नयः (दिव्याः)व्यवहारेषु भवाः ॥

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