Loading...
अथर्ववेद के काण्ड - 16 के सूक्त 5 के मन्त्र
मन्त्र चुनें
  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 1
    ऋषिः - दुःस्वप्ननासन देवता - विराट् गायत्री छन्दः - यम सूक्तम् - दुःख मोचन सूक्त
    1

    वि॒द्म ते॑स्वप्न ज॒नित्रं॒ ग्राह्याः॑ पु॒त्रोऽसि॑ य॒मस्य॒ कर॑णः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि॒द्म । ते॒ । स्व॒प्न॒ । ज॒नित्र॑म् । ग्राह्या॑: । पु॒त्र: । अ॒सि॒ । य॒मस्य॑ । कर॑ण: ॥५.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विद्म तेस्वप्न जनित्रं ग्राह्याः पुत्रोऽसि यमस्य करणः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विद्म । ते । स्वप्न । जनित्रम् । ग्राह्या: । पुत्र: । असि । यमस्य । करण: ॥५.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 16; सूक्त » 5; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    आलस्यादिदोष के त्याग के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (स्वप्न) हे स्वप्न ! [आलस्य] (ते) तेरे (जनित्रम्) जन्मस्थान को (विद्म) हम जानते हैं, तू (ग्राह्याः) गठिया [रोगविशेष] का (पुत्रः) पुत्र और (यमस्य) मृत्यु का (करणः)करनेवाला (असि) है ॥१॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! कुपश्यआदि करने से गठिया आदि रोग होते हैं, गठिया आदि से आलस्य और उससे अनेकविपत्तियाँ मृत्यु आदि होती हैं। इससे सब लोग दुःखों के कारण अति निद्रा आदि कोखोजकर निकालें और केवल परिश्रम की निवृत्ति के लिये ही उचित निद्रा का आश्रयलेकर सदा सचेत रहें ॥१-३॥

    टिप्पणी

    १−इदं सूक्तं किञ्चिद्भेदेन गतं व्याख्यातं च-अ० ६।४६।२। (विद्म) जानीमः (ते) तव (स्वप्न) हे निद्रे।हे आलस्य (जनित्रम्) जन्मस्थानम् (ग्राह्याः) अ० २।९।१। सन्धीनांग्रहणशीलपीडायाः (पुत्रः) पुत्र इवोत्पन्नः (यमस्य) मृत्योः (करणः) करोतेर्ल्यु।कर्ता ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    ग्राही का पुत्र

    पदार्थ

    १. हे (स्वप्न) = सोने के समय, गाढ़ निन्द्रा के न होने पर, अन्तःकरण में उत्पन्न होनेवाले स्वप्न! (ते जनित्रं विद्य) = तेरे उत्पत्तिकारण को हम जानते हैं। (ग्राह्याः पुत्रः असि) = तू ग्राही का पुत्र है। वह बीमारी जो हमें पकड़ लेती है 'ग्राही' कहलाती है। इस बीमारी से सामान्य पुरुष दुःखी जीवनवाला होकर रात को भी उस बीमारी के ही स्वप्न देखता है। इसप्रकार यह स्वप्न उसे मृत्यु की ओर ले-जाता है। यह (यमस्य करण:) = यम का करण–साधन बनता है। २. वस्तुतः हे स्वप्न! तु (अन्तकः असि) = अन्त करनेवाला है, (मृत्यः असि) = तू मौत ही है। ३. हे स्वप्न-रात्रि में भी व्याकुलता का कारण बननेवाले स्वप्न! (तं त्वा) = उस तुझको तथा-उस तेरे अन्तक व मृत्यु के ठीक रूप को हम (संविद्य) = सम्यक् जानते हैं। तुझे ठीक रूप में देखते हैं। जैसा तू है, वैसा तुझे समझते हैं। वैसा समझकर ही प्रार्थना करते हैं कि हे (स्वप्न) = स्वप्न ! (स:) = वह तू (न:) = हमें (दु:ष्वप्न्यात् पाहि) = दुष्ट स्वप्नों के कारणभूत रोगों से बचा। न हम ग्राही से पीड़ित हों और न ही अशुभ स्वप्नों को देखें।

    भावार्थ

    हमें बुरी तरह से जकड़ लेनेवाले रोग ग्राही कहलाते हैं। इनसे पीड़ित होने पर हम अशुभ स्वप्नों को देखते हैं। ये स्वप्न हमें मृत्यु की ओर ले-जाते है। हम प्रयत्न करके ऐसे रोगों से अपने को बचाएँ। परिणामत: अशुभ स्वप्नों से बचकर दीर्घजीवी बनें।

    इस भाष्य को एडिट करें

    भाषार्थ

    (स्वप्न) हे सुस्वप्न ! (ते) तेरे (जनित्रम्१) उत्पत्तिकारण को (विद्म) हम जानते हैं, (ग्राह्याः) निग्रह भावना का (पुत्रः) परिणाम (असि) तू है, (यमस्य) योगाङ्गरूपी यम-नियम या संयम का (करणः) तू कर्म है।

    टिप्पणी

    [स्वप्न = मन्त्र में सुस्वप्न अर्थात् सात्त्विक स्वप्न का वर्णन है। मन्त्र ३ में "स नः स्वप्न दुष्वप्न्यात पाहि" द्वारा स्वप्न को कहा है कि तु दुःस्वप्न और दुःष्वप्न्य के दुष्परिणामों से हमारी रक्षा कर। रजोगुण और तमोगुण का परिणाम है दुष्यप्न्य। दुःष्वप्न, दुष्वप्न्य से रक्षा नहीं कर सकते। सुष्वप्न या सात्त्विक स्वप्न ही दुष्वप्नों को हटा कर दुःष्वप्न्य से रक्षा कर सकते हैं। इसलिये सूक्त ५ में स्वप्न पद द्वारा सुस्वप्न का ग्रहण करना चाहिये। भय, क्रोध, कलह, रोना-चिल्लाना, वीर्यस्खलन आदि दुष्परिणाम हैं दुःष्वप्नों के। दुष्वप्न्यम् = दुःष्वप्ने भवम्। ग्राह्याः पुत्रः = सुस्वप्न ग्राही का पुत्र है, परिणाम है। ग्राही का अभिप्राय है-निग्रह भावना, अर्थात् मन का निग्रह, मन की रजोगुणी तथा तमोगुणी विषयों में अप्रवृत्ति। इस से न तो दुःष्वप्न ही होते हैं और न दुष्वप्न्य अर्थात् दुःष्वप्नों के दुष्परिणाम। यमस्य करणः = करणः का अर्थ साधन नहीं। साधन अर्थ में "करणम्" शब्द का प्रयोग होता है, करणः का नहीं। करणः शब्द आद्युदात्त है, इस में "कृ" धातु औणादिक "युन्" प्रत्ययान्त है (उणा० ५।४२)। यह स्पष्ट है कि "सुस्वप्न" योगाङ्गयम-नियम या संयम-जीवन के परिणाम होते हैं] [१. जनित्रम् = जन् + इत्र (उणा० ४।१९४, १७५)। जनयतीति जनित्रम् उत्पत्तिकारणम्।]

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    दुःस्वप्न और मृत्यु से बचने के उपाय।

    भावार्थ

    हे (स्वप्न) स्वप्न ! (ते जनित्रं विद्म) हम तेरे उत्पत्ति स्थान को जानते हैं तू (ग्राह्याः) ग्राही अंगों को शिथिल करने वाली शक्ति का (पुत्रः असि=) पुत्र है, उससे उत्पन्न होता है। तू (यमस्य करणः) यम बांध लेने वाले का करण साधन है। तू (अन्तकः असि) ‘अन्तक’ है सब चेतना वृत्तियों का अन्त करने वाला है। तू (मृत्युः असि) मृत्यु है। हे (स्वप्न) स्वप्न ! (तं त्वा) उस तुझको हम (तथा) उस प्रकार (संविद्म) भली प्रकार से जानते हैं। (सः सः) वह तू हमें (दुःस्वप्न्यात्) (पाहि) दुःखप्रद स्वप्न की अवस्था या मृत्यु से बचा।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    यम ऋषिः। दुःस्वप्ननाशनो देवता। १-६ (प्र०) विराड्गायत्री (५ प्र० भुरिक्, ६ प्र० स्वराड्) १ प्र० ६ मि० प्राजापत्या गायत्री, तृ०, ६ तृ० द्विपदासाम्नी बृहती। दशर्चं पञ्चमं पर्यायसूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (4)

    Subject

    Atma-Aditya Devata

    Meaning

    O dream, we know your origin, you are the child of seizure, you are an instrument of Yama.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject

    Against evil dreams

    Translation

    O dream, we know your place of origin: you are son of gripping disease; an instrument of the Controller Lord.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    We know the origin of dream, it is the son of Grahi. the disease and Karana, the means of Yama. the sun.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    We know thine origin, O Idleness! Thou art the son of gout, the bringer of Death.

    Footnote

    Tennyson describes sleep in Inmemortara as ‘twin sister of death.’ Rabindra Nath Tagore condemns idleness as a traitor that betrays the soul. Sleep is equivalent to idleness.

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−इदं सूक्तं किञ्चिद्भेदेन गतं व्याख्यातं च-अ० ६।४६।२। (विद्म) जानीमः (ते) तव (स्वप्न) हे निद्रे।हे आलस्य (जनित्रम्) जन्मस्थानम् (ग्राह्याः) अ० २।९।१। सन्धीनांग्रहणशीलपीडायाः (पुत्रः) पुत्र इवोत्पन्नः (यमस्य) मृत्योः (करणः) करोतेर्ल्यु।कर्ता ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top