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अथर्ववेद के काण्ड - 17 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 1
    ऋषिः - आदित्य देवता - त्र्यवसाना षट्पदा जगती छन्दः - ब्रह्मा सूक्तम् - अभ्युदयार्थप्रार्थना सूक्त
    2

    वि॑षास॒हिंसह॑मानं सासहा॒नं सही॑यांसम्। सह॑मानं सहो॒जितं॑ स्व॒र्जितं॑ गो॒जितं॑संधना॒जित॑म्। ईड्यं॒ नाम॑ ह्व॒ इन्द्र॒मायु॑ष्मान्भूयासम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि॒ऽस॒स॒हिम् । सह॑मानम् । स॒स॒हा॒नम् । सही॑यांसम् । सह॑मानम् । स॒ह॒:ऽजित॑म् । स्व॒:ऽजित॑म् । गो॒ऽजित॑म् । सं॒ध॒न॒ऽजित॑म् । ईड्य॑म् । नाम॑ । ह्वे॒ । इन्द्र॑म् । आयु॑ष्मान् । भू॒या॒स॒म् ॥१.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विषासहिंसहमानं सासहानं सहीयांसम्। सहमानं सहोजितं स्वर्जितं गोजितंसंधनाजितम्। ईड्यं नाम ह्व इन्द्रमायुष्मान्भूयासम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विऽससहिम् । सहमानम् । ससहानम् । सहीयांसम् । सहमानम् । सह:ऽजितम् । स्व:ऽजितम् । गोऽजितम् । संधनऽजितम् । ईड्यम् । नाम । ह्वे । इन्द्रम् । आयुष्मान् । भूयासम् ॥१.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 17; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (3)

    विषय

    आयु की बढ़ती के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (विषासहिम्) विशेषहरानेवाले, (सहमानम्) दबा लेते हुए, (सासहानम्) दबा चुकनेवाले, (सहीयांसम्)अत्यन्त शक्तिवाले, (सहमानम्) वश में करते हुए, (सहोजितम्) बलवान् के जीतनेवाले, (स्वर्जितम्) स्वर्ग जीतनेवाले, (गोजितम्) भूमि जीतनेवाले, (संधनजितम्) पूरा धनजीतनेवाले, (ईड्यम्) बड़ाई योग्य (इन्द्रम्) इन्द्र [परम ऐश्वर्यवाले जगदीश्वर]को (नाम) नाम से (ह्वे) मैं पुकारता हूँ, (आयुष्मान्) बड़े आयुवाला (भूयासम्)मैं हो जाऊँ ॥१॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जिससर्वजनक जगदीश्वर परमात्मा ने सब विघ्नों को नाश करके तुम्हें अनेक सुखसाधनदिये हैं, तुम उसी की उपासना से बहु प्रकार शक्ति बढ़ाकर संसार में यश और कीर्तिफैलाओ ॥१॥

    टिप्पणी

    १−(विषासहिम्) षह अभिभवे शक्तौ च यङि-कि प्रत्ययः। विशेषेणाभिभवितारम् (सहमानम्) ताच्छील्यवयोवचनशक्तिषु चानश्। पा० ३।२।१२९। सहेश्चानश्। अभिभवन् (सासहानम्) सहेर्लिटः कानच्, छान्दसो दीर्घः। पूर्वमपि अभिभवितारम् (सहीयांसम्)तुश्छन्दसि। पा० ५।३।५९। सोढृ-ईयसुन्। तुरिष्ठेमेयःसुः। पा० ६।४।१५४। तृलोपः।शक्तिमत्तरम् (सहमानम्) वशीकुर्वन् (सहोजितम्) बलवतो जेतारम् (स्वर्जितम्)स्वर्गस्य जेतारम् (गोजितम्) भूमेर्जेतारम् (संधनजितम्) सांहितिको दीर्घः।सम्यग् धनस्य सम्पूर्णसुवर्णादिलक्षणस्य जेतारम् (ईड्यम्) स्तुत्यम् (नाम)प्रसिद्धौ। नाम्ना (ह्वे) हुवे। आह्वयामि (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तं जगदीश्वरम् (आयुष्मान्) दीर्घजीवनयुक्तः (भूयासम्) भवेयम् ॥

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    विषय

    प्रशस्ततम जीवन

    पदार्थ

    १. मैं (ईड्यं नाम) = प्रशंसनीय [स्तुत्य] यशवाले (इन्द्रम्) = शत्रु-विद्रावक प्रभु को (ह्वे) = पुकारता हूँ। उन प्रभु को पुकारता हूँ जो (विषासहि) = शत्रुओं का अत्यधिक पराभव करनेवाले हैं। (सहमानम्) = शत्रुओं को कुचल देनेवाले हैं। (सासहानम्) = निरन्तर शत्रुओं का विनाश कर रहे हैं। (सहीयांसम्) = शत्रुमर्षकों में श्रेष्ठ हैं। उन प्रभु को मैं पुकारता हूँ जो (सहमानम्) = [be able to resist] मेरे अन्दर उत्पन्न होनेवाले-मुझपर आक्रमण करनेवाले सब प्रलोभनों को रोकने में समर्थ हैं। (सहोजितम्) = मेरे लिए शत्रुपराभवधारी बल का विजय करनेवाले हैं-मुझे 'सहस्' प्रास करानेवाले हैं। केवल 'सहस्' ही नहीं (स्वर्जितम्) = प्रलोभनों के निराकरण के द्वारा (स्व:) = आत्मप्रकाश को प्राप्त करानेवाले हैं। (गोजितं) = मेरे लिए ज्ञान की वाणियों का विजय करनेवाले, इन्हें मुझे प्राप्त करानेवाले हैं और (सन्धनाजितम्) = प्रशस्त धनों का मेरे लिए विजय करनेवाले हैं। २. इसप्रकार बल '[सहस] को, आत्मप्रकाश [स्वः] को, गौओं को [ज्ञानवाणियों को] व धनों को प्राप्त करके (आयुष्मान् भूयासम्) = मैं प्रशस्त आयु-[जीवन]-वाला बनूं। प्रशंसनीय जीवन वही है जिसमें भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए धनों की कमी नहीं, जो जीवन जानमय है, जिसमें आत्मप्रकाश को प्राप्त करने की रुचि है और सहस् [बल] है, शत्रुमर्षक बल है। ३. ऐसा बनकर मैं (देवानां प्रियः भूयासम्) = देवों का प्रिय बनें। माता, पिता, आचार्य व विद्वान् अतिथि और अन्ततः प्रभु का भी मैं प्रिय बनें। ये सब देव मुझे प्रशस्त जीवन के बनाने में सहायक हों। ४. इसप्रकार का बनकर (प्रियः प्रजानां भूयासम्) = मैं प्रजाओं का भी प्रिय बनें। सब लोग मुझे देखकर प्रसन्न हों। मेरा कोई भी कार्य किसी के अहित का कारण न बने। (पशूनां प्रियः भूयासम्) = पशुओं का भी मैं प्रिय बनूं। गौ आदि का तो घर पर पालन करूँ ही, परन्तु इसके साथ ही इसप्रकार अहिंसा की साधना करूँ कि 'अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः।' इस योगसूत्र के अनुसार मेरे समीप शेर आदि भी वैरत्याग करके आसीन हों। ५. मेरा व्यवहार इतना सुन्दर व अभिमानशून्य हो कि मैं (समानानां प्रियः भूयासम्) = अपने समबर्ग के लोगों का भी प्रिय बनूँ। अपने उत्थान का अभिमान न कसैं और किसी की निन्दा में कभी प्रवृत्त न होऊँ। प्रभु-स्मरण करता हुआ अभिमान आदि दुर्गुणों से दूर रहूँ।

    भावार्थ

    प्रभु का 'विषासहि, सहमान, सासहान, सहीयान् व सहमान' इन पाँच शब्दों से स्मरण करता हुआ मैं पाँचों कोशों के शत्रुओं का पराभव करूँ। शत्रुपराभव द्वारा 'बल, आत्मप्रकाश, ज्ञान व धन' का विजय करके मैं प्रशस्त जीवनवाला बनूं। इस प्रशस्त जीवन में मैं 'देवों का, प्रजाओं का, पशुओं का व अपने समवर्गवालों का' प्रिय बनें।

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    भाषार्थ

    (विषासहिम्) सदा से पराभवकारी, तो भी (सहमानम्) सहिष्णु, (सासहानम्) अतिबली, (सहीयांसम्) सांसारिक बलों की अपेक्षया अधिक बलशाली, (सहमानम्) सदा तृप्त, आप्तकाम, (सहोजितम्) समग्रबलों के विजेता, (स्वर्जितम्) सुखों पर विजय पाये हुए, आनन्दमय, तथा द्युलोक पर विजय पाये हुए, (गोजितम्) पृथिवी पर विजय पाये हुए, (संधनाजितम्) समस्त ऐश्वर्यों पर विजय पाए हुए, (ईड्यम्) स्तुत्य (नाम) तथा सर्वप्रसिद्ध (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवान् परमेश्वर का (ह्वे) मैं सदा आह्वान करता हूँ, (आयुष्मान्) ताकि स्वस्थ तथा दीर्घ आयु वाला (भूयासम्) मैं हो जाऊं।

    टिप्पणी

    [इस काण्ड में मुख्य रूप से परमेश्वर का तथा बीच बीच में गौण-रूप से आदित्य का भी वर्णन हुआ है। आदित्य के वर्णन में भी तात्पर्य परमेश्वर के वर्णन का ही है। आदित्य का अधिष्ठाता परमेश्वर ही है। यथा "योऽसावादित्ये पुरुषः सोऽसावहम्। ओ३म् खं ब्रह्म ।। यजु० ४०।१७॥ अर्थात् वह जो आदित्य में जो आदित्य में पुरुष है, वह मैं हूं, जिस का कि नाम ओ३म् है, जो आकाश के सदृश व्यापक है, तथा ब्रह्म है। आदित्य ब्रह्म की ही कृति है, जिस में कि शक्तिमान् परमेश्वर विद्यमान है, जिस के कि अनुशासन से आदित्य उदित हो रहा है यथा “भीषाऽस्माद्वातः पवते। भीषोदेति सूर्यः। भीषास्मादग्निश्चेन्द्रश्च मृत्युर्धावति पञ्चमः"॥ (तैत्ति० उप० अनुवाक ८)। सहमानम् = षह चक्यर्थे, चक्यथैः तृप्तिः; तथा सहनशील१। सहीयांसम् = सहः बलनाम (निघं० २।९) + ईयंसुन्। स्वर्जितम्= स्वः सुख। तथा स्वः = द्युलोक (निरु० २।४।१४)। गोजितम् = गौः = पृथिवी (निघं० १।१)। संधनाजितम् = समग्र धनों पर विजय पाए हुए। धन = प्राकृतिक धन, अर्थात् पृथिवी की सम्पत्तियों, बलधन, ज्ञानधन, यश-धन, आध्यात्मिक विभूतियों के धन आदि में सर्वातिशायी परमेश्वर। आयुष्मान् =परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना अर्थात् उसे अपने समीप जान कर आसन जमाने से, विचार तथा जीवन सात्त्विक बन जाते हैं, परिणामरूप में आयु अर्थात् जीवन सुखदायी तथा दीर्घायुष्य२ वाला हो जाता है। राजसिक तथा तामसिक विचार तथा तदनुरूप जीवन दुःखप्रद तथा अल्पायुष्य वाले होते हैं] [१. षह मर्षणे। मर्षणम् = Endurance; forbearance; Gatience (आप्टे)। २. यथा “न तस्य रोगो न जरा न मृत्युः प्राप्तस्य योगाग्निमयं शरीरम्" (श्वेता० उप० २।१२) अर्थात् जिस का शरीर योगाग्नि से सम्पन्न हो जाता है, यह योगाग्नि उस के रजोगुण और तमोगुण को भस्मीभूत कर सात्त्विक कर देती है; जिस का परिणाम यह होता है कि योगी रोगों, जरा तथा शीघ्र मृत्यु का शिकार नहीं होता। इस भाव को मनुस्मृति में भी अभिव्यक्त किया है। यथा 'ऋषयो दीर्घसन्ध्यात्वाद् दीर्घमायुरवाप्नुयुः” (मनु०)]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    I invoke and pray to Indra, adorable lord omnipotent, instant challenger of contradictions, constant warrior, intense fighter, more and ever more powerful, yet steady and patient, ultimate victor. Master ordainer of his own power is he, winner of the light of heaven, self-controlled ruler of the earth, and ultimate unifier of the diverse wealth of nations into a common¬ wealth of humanity. O lord, in all sincerity I pray, bless me with a long full age of good health and prosperity.

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    Subject

    Prayer and praise to Indra and the Sun

    Translation

    I invoke the resplendent Lord of praiseworthy name, full of extra-ordinary might, the withstander, the subduer, always more powerful, the withstander, winner of might, winner of bliss, winner of kine and winner of accumulated wealth. May I have a long life-span.

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    Translation

    I praise and worship Almighty God who has the vanquishing power over all the powers, who has overpowering strength, who is conqueror over all the hinderances and obsta- cles, who is extremely strong, who has excessive tolerance and resistance, who is victorious in his operations, who is super-abundantly luminous, who is the powerful master of earth and cows, who is the Lord of all kinds of wealth and who is the only worshipable entity. May I attain long life.

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    Translation

    I praise the Adorable God, Indra by name, Vanquishing, Overpowering, the Conqueror, the Subduer of foes. Victorious, the Controller of the mighty the Embodiment of pleasure, the Lord of land and cattle and the Owner of riches. May I enjoy a long life.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(विषासहिम्) षह अभिभवे शक्तौ च यङि-कि प्रत्ययः। विशेषेणाभिभवितारम् (सहमानम्) ताच्छील्यवयोवचनशक्तिषु चानश्। पा० ३।२।१२९। सहेश्चानश्। अभिभवन् (सासहानम्) सहेर्लिटः कानच्, छान्दसो दीर्घः। पूर्वमपि अभिभवितारम् (सहीयांसम्)तुश्छन्दसि। पा० ५।३।५९। सोढृ-ईयसुन्। तुरिष्ठेमेयःसुः। पा० ६।४।१५४। तृलोपः।शक्तिमत्तरम् (सहमानम्) वशीकुर्वन् (सहोजितम्) बलवतो जेतारम् (स्वर्जितम्)स्वर्गस्य जेतारम् (गोजितम्) भूमेर्जेतारम् (संधनजितम्) सांहितिको दीर्घः।सम्यग् धनस्य सम्पूर्णसुवर्णादिलक्षणस्य जेतारम् (ईड्यम्) स्तुत्यम् (नाम)प्रसिद्धौ। नाम्ना (ह्वे) हुवे। आह्वयामि (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तं जगदीश्वरम् (आयुष्मान्) दीर्घजीवनयुक्तः (भूयासम्) भवेयम् ॥

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