अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 1
ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
99
ओ चि॒त्सखा॑यंस॒ख्या व॑वृत्यां ति॒रः पु॒रु चि॑दर्ण॒वं ज॑ग॒न्वान्। पि॒तुर्नपा॑त॒मा द॑धीतवे॒धा अधि॒ क्षमि॑ प्रत॒रं दीध्या॑नः ॥
स्वर सहित पद पाठओ इति॑ । चि॒त् । सखा॑यम् । स॒ख्या । व॒वृ॒त्या॒म् । ति॒र: । पु॒रु । चि॒त् । अ॒र्ण॒वम् । ज॒ग॒न्वान् । पि॒तु: । नपा॑तम् । आ । द॒धी॒त॒ । वे॒धा: । अधि॑ । क्षमि॑ । प्र॒ऽत॒रम् । दीध्या॑न: ॥१.१॥
स्वर रहित मन्त्र
ओ चित्सखायंसख्या ववृत्यां तिरः पुरु चिदर्णवं जगन्वान्। पितुर्नपातमा दधीतवेधा अधि क्षमि प्रतरं दीध्यानः ॥
स्वर रहित पद पाठओ इति । चित् । सखायम् । सख्या । ववृत्याम् । तिर: । पुरु । चित् । अर्णवम् । जगन्वान् । पितु: । नपातम् । आ । दधीत । वेधा: । अधि । क्षमि । प्रऽतरम् । दीध्यान: ॥१.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
भाई-बहिन के परस्पर विवाह के निषेध का उपदेश।
पदार्थ
(ओ) ओ ! [हे पुरुष !] (सखायम्) [तुझ] मित्र को (चित्) ही (सख्या) मित्रता के साथ (ववृत्याम्) मैं [स्त्री] प्रवृत्त करूँ-(पुरु चित्) बहुत ही प्रकार से (अर्णवम्) विज्ञानयुक्तशास्त्र को (तिरः जगन्वान्) पार जा चुकनेवाले, (प्रतरम्) बहुत अधिक (दीध्यानः)प्रकाशमान, (वेधाः) बुद्धिमान् आप (पितुः) [अपने] पिता के (नपातम्) नाती [पौत्र]को (क्षमि अधि) पृथिवी पर (आ दधीत) धारण करें ॥१॥
भावार्थ
यह मन्त्र स्त्री कावचन है। हम दोनों बड़े प्रेमी हैं, तू वेद आदि शास्त्रों का जाननेवालाबुद्धिमान् पुरुष है, ऐसा प्रयत्न किया जावे कि हम दोनों के सम्बन्ध से उत्तमसन्तान उत्पन्न हो ॥१॥इस सूक्त के मन्त्र १-१६ में यमी-यम अर्थात् जोड़िया बहिनऔर भाई के संवाद वा प्रश्न-उत्तर की रीति से यह बताया है कि वे दोनों बहिन-भाईहोकर परस्पर विवाह कभी न करें, किन्तु बहिन भाई से अन्य पुरुष के साथ और भाईबहिन से दूसरी स्त्री के साथ विवाह करे ॥मन्त्र १-५। अभेद वा भेद से ऋग्वेद मेंहैं- १०।१०।१-५ ॥
टिप्पणी
१−(ओ) सम्बोधने (चित्) एव (सखायम्) सुहृदम् (सख्या) सुपांसुलुक्०। पा० ७।१।३९। विभक्तेराकारः। सख्येन। मित्रत्वेन (ववृत्याम्) वृतुवर्तने-लिङ्, शपः श्लुः। प्रवर्तयेयम् (तिरः) पारे (पुरु) बहुप्रकारेण (चित्) एव (अर्णवम्) अर्णवं विज्ञानम्-दयानन्दभाष्ये, यजु० १२।४९। धापॄवस्यज्यतिभ्यो नः।उ० ३।६। ऋ गतिप्रापणयोः-न प्रत्ययः, ततो मत्वर्थीयो वः। विज्ञानयुक्तं शास्त्रम् (जगन्वान्) गमेर्लिटः क्वसुः। गतवान् (पितुः) स्वजनकस्य (नपातम्) नप्तारंपौत्रम् (आदधीत) आदध्यात्। समन्ताद् धारयतु (वेधाः) मेधाविनाम-निघ० ३।१५। मेधावीभवान् (क्षमि अधि) भूमेरुपरि (प्रतरम्) प्रकृष्टतरम् (दीध्यानः) दीधीङ्दीप्तिदेवनयोः-शानच्। दीप्यमानः ॥
विषय
सन्तान क्यों?
पदार्थ
१. यमी यम से कहती है कि (ओचित्) = निश्चय से (सखायम्) = मित्रभूत तुझको (सख्या) = मित्रभाव से (आववृत्याम्) = आवृत्त करती हूँ। 'सखे सप्तपदी भव' इस सातवें पग के वाक्य के अनुसार पति-पत्नी इस संसार-समुद्र में एक-दूसरे के सखा तो हैं ही, इसलिए मैं तुझे पतिरूप से चाहती हूँ कि (पुरूचित्) = इस अत्यन्त विस्तृत (अर्णवम्) = संसार-समुद्र को (जगन्वान्) = गया हुआ पुरुष (तिर:) = अन्तर्हित हो जाता है। मनुष्य मृत्यु का शिकार होकर संसार-समुद्र में लीन हो जाता है। २. इस बात का ध्यान करके ही (प्रतरं दीध्यान:) = इस विस्तृत समुद्र का विचार करता हुआ (वेधा:) = बुद्धिमान् पुरुष (अधिक्षमिः) = इस पृथ्वी पर (पितुः नपातमा) = पिता के न नष्ट होने देनेवाले सन्तान को (आदधीत) = आहित करता है। इसप्रकार इस नश्वर शरीर के नष्ट हो जाने पर भी उस सन्तान के रूप में बना ही रहता है। यमी का युक्तिक्रम यह है कि [क] इस विशाल संसार-समुद्र में मनुष्य कुछ देर बाद तिरोहित हो जाता है। [ख] सन्तानन के रूप में ही उसका चिह बना रहता है, [ग] अत: सन्तान-प्राप्ति के लिए तू मुझे पत्नी रूप में चाहनेवाला हो।
भावार्थ
इस विशाल संसार-समुद्र में मनुष्य सन्तान के रूप में ही बना रहता है, अत: सन्तान-प्राप्ति के लिए 'यम' यमी' की कामना करे। 'यम-यमी' शब्द के प्रयोग से स्पष्ट है कि पति-पत्नी संयत जीवनवाले हों।
भाषार्थ
(सख्या) सखिभाव से (सखायम्) तुझ सखा की ओर (आ ववृत्याम्) मैं आऊं, तुझे प्राप्त होऊं - यह मेरी अभिलाषा है। तु ब्रह्मचर्यरूपी (पुरू अर्णवम् चित्) महान् तथा सद्गुणों से परिपूर्ण समुद्र को (तिरः) तैर (जगन्वान्) चुका है, पार कर चुका है। (वेधाः) इसलिये विधिविधान को तू जानता है। विधिविधान के ज्ञाता को चाहिये कि वह (क्षमि अधि) पृथिवी में अपने भविष्य का (प्रतरं दीध्यानः) पूर्णतया ध्यान कर, (पितुः) निज पिता के (नपातम्) पौत्र को उत्पन्न करने का लक्ष्य बना कर, (आ दधीत) विवाह-पूर्वक गर्भाधान करें१।
टिप्पणी
[१८ वें काण्ड में पितरों का वर्णन है। पितरों की सत्ता गृहस्थ धर्म पर आश्रित है। इसलिये १८वें काण्ड के प्रारम्भ में विवाह की चर्चा हुई है। विवाह की चर्चा यमयमी के संवादरूप में की गई है। मन्त्रों में यम-यमी को जोड़िया भाई-बहिन के रूप में उपस्थित किया है। यम तो ब्रह्मचर्याश्रम में यम-नियमों का पालन कर स्नातक बन कर आया है। इसलिये वह विवाह आदि के विधिविधानों को जानता है। यमी है युवति, परन्तु विवाह के विधिविधानों से अनभिज्ञ है। वह यम के साथ विवाह चाहती है। इसलिये यम के प्रति विवाह का प्रस्ताव रख रही है। विवाह की सप्तपदी की विधि में "सखे सप्तपदी भव" द्वारा विवाह-बन्धन दृढ़ हो जाता है। इसे लक्ष्य में रखकर यमी कहती है यम से कि- मैं सखिभाव की विधि से तुझे अपना विवाहित सखा बनाना चाहती हूं। अनेक प्रकार की उक्तियों और प्रत्युक्तियों के प्रसङ्ग में यम, भाई-बहिन के पारस्परिक विवाह को तर्कसङ्गत, अवैज्ञानिक तथा शिष्टासंमत दर्शाता हुआ विवाह-सम्बन्ध का प्रत्याख्यान करता है। यम-यमी ऐतिहासिक व्यक्ति नहीं हैं। अपितु संवाद के ये कल्पित पात्र हैं। जैसे कि उपन्यासों, कथा-कहानियों, और नाटकों में पात्र कल्पित कर लिये जाते हैं। वेदों में ऐसे संवाद प्ररोचनार्थ यत्र-तत्र मिलते हैं। यथा-उर्वशी और पुरुरवा का संवाद (ऋ० १०।९५); विश्वामित्र और नदियों का संवाद (ऋ० ३।३३); सरमा और पणियों का संवाद (ऋ० १०।१०८)। ऐसे संवादों को निरुक्तकार ने "आख्यान" तथा "आख्यायिकाएं" कहा है। ओ=आ+उ। “आ” का सम्बन्ध "ववृत्याम्" के साथ है। तिरः का अर्थ है - तैर कर सफलतापूर्वक ब्रह्मचर्याश्रम समाप्त कर "तॄ संतरणे"। महर्षि दयानन्द ने "ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका" के ब्रह्मचर्य - प्रकरण में "स सद्य एति पूर्वस्मादुत्तरं समुद्रम्" (अथर्व० ११।५।६) का अर्थ किया है- "स ब्रह्मचारी (पूर्वस्मात्) ब्रह्मचर्यानुष्ठानभूतात् समुद्रात् (उत्तरम्) गृहाश्रमसमुद्रं शीघ्रं प्राप्नोति"। इसलिये हमने मन्त्र १ में "अर्णवम्" पद का अर्थ "ब्रह्मचर्याश्रम" किया है, और यह अर्थ यहाँ उपयुक्त भी है। पुरू=महान्, तथा "पृ" (पूरणे)। नपात=नपात् का अर्थ है "पोता"। यमी "नपात्" और "पितुः" शब्दों का प्रयोग कर यम को "पितृ-ऋण" से मुक्त होने की ओर प्रेरित करती है। यह तभी सम्भव है जब कि यम विवाह करके पुत्र के निमित्त गर्भाधान करे। यमी साथ ही यह भी कहती हैं कि बिना पुत्र के बुढ़ापे तथा बिमारी में जीवन अन्धकारमय हो जाता है। अतः भविष्य का ध्यान करा वह यम को विवाह के लिये प्रेरित करती है ।] [१. यम-यमी के संवाद से पूर्व, एतत्सम्बन्धी भूमिका का पढ़ना आवश्यक प्रतीत होता है।]
इंग्लिश (4)
Subject
Victory, Freedom and Security
Meaning
Mantras 1-16 are a dialogue between Yama, a ‘young man’, and Yami, a ‘young maiden’, on love, marriage, family and continuance of the family line. The same theme is celebrated in Rgveda 10, 10, 1-14. The dialogue has been interpreted by Sayana and others as a dialogue between a brother and a sister, which is not correct because, if it were so, the name of the girl would be ‘Yama’, not Yami. Yama himself and Yami describe themselves as ‘friends’ in mantra 1 and 2. The dialogue has also been interpreted as a dialogue between day and night, so close and yet so divergent they meet but only to part. On the theme of love, marriage, family and pitaras, let us take the dialogue as an act of courtship between the ‘male’ and ‘female’ twins of nature. Yama describes them as childrren of the Sun and Earth in mantra 4. Yami: With love and desire I come to a friend of my own choice, a friend who has a long way crossed the vast ocean of life, and I solicit and pray that knowing and thinking of your fulfilment of familial obligation on earth, you beget a successor saviour of your father’s familial line and in marriage bless me with a child.
Subject
Yama
Translation
Unto a friend would I turn with friendship; having gone through much ocean, may the pious one take a grandson of his father, considering further onward upon the earth.
Translation
[N.B. In this hymn first sixteen Verses are alleged to be highly controversial by the scholars. But reality true themes in this controversy is as distinct as anything and it rules out the whole idea of raising controversy. Those who attempted to treat the dialogue between Yama and Yami as the signal- giving thought about marriage of a sister with her own brother desperately failed in grasping the real meaning enclothed in the verses concerned. They in reality represented the view of Sayana who had himself committed the blunder in commenting these verses. Here in the dialogue the consanguineous marriage is not under any circumstances allowed. The idea of consanguineous marriage is quite foreign to it. Had these scholars tried to grasp the real meaning they would have arrived at the decision that the view of Sayana and their own blind adherence to is quit despicable. Yama is the Sun and Yami is the night. The dialogue between sun (the day) and night is a very beautiful imagination. It leads one to understand idea of day and night which gives a striking not to the mind that the simultaneity or concurrence of day and night is not possible under naturs' law. We further want to say that the Yama in this dialogue is representing to males and Yami to females who were born in blooming youth in the primitive state of creation. The men and women, quite young emerged from the womb of earth in God's creation. This view has been adopted by some foreigners that Yama and Yami are primitive Adam and Eva. We do not share with this idea, But we can take the view, a bitte, for granted and say that this idea also does not give any clue of the nature that here marriage between sister and brother has been permitted. The males and females born in the primitive state of creation were not consanguineous sisters and brothers. The relation of consanguinity had been exterminated in God in the time of dissolution who is free from all kinds of consanginueity so the males and females born at primitive stage are not consanguineous and therefore the marriage between pairs cannot be any how called consanguineous marriage. Here this question does not at all arise. The dialogue between Yama and Yami is throwing light on another fact which is concerned with socio-fanilial contract, ties relation and continuity between a couple which is based on sacrosanct principles of religious bonds. But in the state of impotancy and barrenness of a married couple either of them may be allowed for Niyoga by the sanction of states. This idea of Niyoga has been inculcated in these verses through a dialogue between husband and wife. So Yama and Yami respectively mean husband and wife. Through this dialogue the following conclusions may be drawn:- (a) It gives the lucid explanation of the day and night whose concurrence is not possible. (b) It rules out consanguineous marriage. (c) The male and female of primitive creation are not consanguineous and marriage between such pairs is not consanguineous marriage as the idea of consanguinity finds its termination in God who is free from all such relations. The primitive men and women did not find their origination from father, in the womb of a mother which is the basis of the thought of consanguinity and hence the consanguineous question does not arise there. (d) Niyoga may be allowed by the state under certain circumstances.] Yami, the wife of an impotent husband says: I as your wife, the best companion of you, O my husband the best counterpart of mine, like to have co-habitation only with you. A house-holding man of integrity and understanding on this earth, desiring to cross the tremendously vast world-sea and realizing the progeny as the source of crossing it have the son or daughter who saves from the fall the continuity of fathers' race.
Translation
Fain would I win my friend to kindly friendship. O master of religious lore, highly brilliant and wise as thou art, let us obtain on the earth, through wedlock, the grandson of thy father.
Footnote
The first sixteen verses of this hymn are a dialogue between Yama and Yami, brother and sister, whereby marriage between real brother and sister is condemned. The description is superbly beautiful and instructive. In the first verse the sister asks the brother to marry her and produce a son. See Rig, 10-10-1. (अर्णवम्) अर्णवम विज्ञानम्—Dayananda commentary Yajar, 12-49.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(ओ) सम्बोधने (चित्) एव (सखायम्) सुहृदम् (सख्या) सुपांसुलुक्०। पा० ७।१।३९। विभक्तेराकारः। सख्येन। मित्रत्वेन (ववृत्याम्) वृतुवर्तने-लिङ्, शपः श्लुः। प्रवर्तयेयम् (तिरः) पारे (पुरु) बहुप्रकारेण (चित्) एव (अर्णवम्) अर्णवं विज्ञानम्-दयानन्दभाष्ये, यजु० १२।४९। धापॄवस्यज्यतिभ्यो नः।उ० ३।६। ऋ गतिप्रापणयोः-न प्रत्ययः, ततो मत्वर्थीयो वः। विज्ञानयुक्तं शास्त्रम् (जगन्वान्) गमेर्लिटः क्वसुः। गतवान् (पितुः) स्वजनकस्य (नपातम्) नप्तारंपौत्रम् (आदधीत) आदध्यात्। समन्ताद् धारयतु (वेधाः) मेधाविनाम-निघ० ३।१५। मेधावीभवान् (क्षमि अधि) भूमेरुपरि (प्रतरम्) प्रकृष्टतरम् (दीध्यानः) दीधीङ्दीप्तिदेवनयोः-शानच्। दीप्यमानः ॥
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