अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 61
ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त
देवता - अनुष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
1
अक्ष॒न्नमी॑मदन्त॒ ह्यव॑ प्रि॒याँ अ॑धूषत। अस्तो॑षत॒ स्वभा॑नवो॒ विप्रा॒यवि॑ष्ठा ईमहे ॥
स्वर सहित पद पाठअक्ष॑न् । अमी॑मदन्त । हि । अव॑ । प्रि॒यान् । अ॒धू॒ष॒त॒ । अस्तो॑षत । स्वऽभा॑नव: । विप्रा॑: । यवि॑ष्ठा: । ई॒म॒हे॒ ॥४.६१॥
स्वर रहित मन्त्र
अक्षन्नमीमदन्त ह्यव प्रियाँ अधूषत। अस्तोषत स्वभानवो विप्रायविष्ठा ईमहे ॥
स्वर रहित पद पाठअक्षन् । अमीमदन्त । हि । अव । प्रियान् । अधूषत । अस्तोषत । स्वऽभानव: । विप्रा: । यविष्ठा: । ईमहे ॥४.६१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
पितरों के सत्कार का उपदेश।
पदार्थ
(स्वभानवः) अपना हीप्रकाश रखनेवाले, (विप्राः) बुद्धिमान्, (यविष्ठाः) महाबली [पितरों] ने (अक्षन्)भोजन खाया है और (अमीमदन्त) आनन्द पाया है, उन्होंने (हि) ही (प्रियान्) अपनेप्रिय [बान्धवों] को (अव) निश्चय करके (अधूषत) शोभायमान किया है और (अस्तोषत)बड़ाई योग्य बनाया है, (ईमहे) [उन से] हम विनय करते हैं ॥६१॥
भावार्थ
मनुष्यों को विनय करकेविद्यावृद्ध, बलवृद्ध और वयोवृद्ध पुरुषों का सदा सत्कार करना चाहिये, जिससे वेप्रसन्न होकर उत्तम-उत्तम शिक्षा दिया करें ॥६१॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद मेंहै−१।८२।२। यजुर्वेद में ३।५१ और सामवेद में−पू० ५।३।७ ॥
टिप्पणी
६१−(अक्षन्) अद भक्षणे-लुङ्, घस्लादेशः। अघसन्। भोगान् भक्षितवन्तः (अमीमदन्त) मद तृप्तियोगे, चुरादेरात्मनेपदिनश्चङिरूपम्। आनन्दं प्राप्तवन्तः (हि) अवधारणे (अव) निश्चयेन (प्रियान्) प्रीतिकरान् बान्धवान् (अधूषत) धूष कान्तिकरणे-लङ्। तिङा तिङोभवन्ति। वा० पा० ७।१।३९। बहुवचनस्यैकवचनम्। अधूषन्त। शोभायमानान् कृतवन्तः (अस्तोषत) स्तुत्यान् कृतवन्तः (स्वभानवः) स्वकीया भानुर्दीप्तिः प्रकाशो येषांते (विप्राः) मेधाविनः (यविष्ठाः) युवन्-इष्ठन्। स्थूलदूरयुवह्रस्व०। पा०६।४।१५६। इति वकारस्य लोप उकारस्य च गुणः। अतिशयेन युवानः। निसर्गबलिनः (ईमहे)याच्ञाकर्मा-निघ० ३।१९। याचामहे। प्रार्थयामहे। विनयामः ॥
विषय
स्वभानवः-विप्राः-यविष्ठा:
पदार्थ
१. (अक्षन्) = इन्होंने सोम का भक्षण किया है-सोम को शरीर में सुरक्षित किया है। परिणामत: (अमीमदन्त) = आनन्दित हुए हैं। सोमरक्षण से 'नीरोगता-निर्मलता व दीप्सि' की प्राप्ति होकर आनन्द का अनुभव होता है। इन्होंने (हि) = निश्चय से (प्रियान्) = प्रिय लगनेवाले संसार के भोगों को (अव अधूषत) = अपने से दूर कम्पित किया है [स त्वं प्रियान् प्रियरूपाश्च कामान् अभिध्यायन्नचिकेतो इत्यस्ताक्षीः । कठो०]। २. इसी उद्देश्य से (अस्तोषत) = इन्होंने प्रभु-स्तवन किया है। (स्वभानव:) = ये आत्मदीसिवाले बने हैं। (विप्रा:) = ये विशेषरूप से अपना पूरण करनेवाले हुए हैं। (यविष्ठा:) = बुराइयों को दूर करके अच्छाइयों को इन्होंने अपने से मिलाया है। हम इन लोगों को ही (ईमहे) = प्राप्त करने के लिए प्रार्थना करते हैं। इनके सम्पर्क में हम भी इन-जैसे बन पाएंगे।
भावार्थ
हमें उन लोगों का सम्पर्क प्राप्त हो जो सोमरक्षण द्वारा अपने अन्दर आनन्द का अनुभव करते हैं। प्रिय लगनेवाले भोगों से भी ऊपर उठते हैं। प्रभु-स्तवन द्वारा आत्मदीसिवाले होते हैं। अपना विशेषरूप से पूरण करते हुए बुराइयों को अपने से दूर करते हैं और अच्छाइयों को अपने से मिलाते हैं।
भाषार्थ
पितरों ने (अक्षन्) भोजन कर लिया है, (अमीमदन्त) और तृप्त तथा प्रसन्न हुए हैं। (प्रियान्) और हम प्रिय गृहस्थों को सदुपदेश देकर (हि) निश्चय से (अव अधूषत) हमारे अज्ञानों और अवगुणों को झाड़ फेंका है। (स्वभानवः) निज सद्गुणों से प्रकाशमान, (विप्राः) विप्रों ने, मेधावियों ने (अस्तोषत) गृहस्थों के कर्तव्यकर्मों का स्तवन किया है, कथन किया है। (यविष्ठाः) हम युवा गृहस्थी (ईमहे) इनसे सदुपदेशों की याचना करते हैं।
टिप्पणी
[अक्षन् = अश् भोजने। अमीमदन्त= मद तृप्तियोगे; मद हर्षे। विप्राः = मेधाविनः (निघं० ३।१५)। ईमहे = याञ्चाकर्मा (निघं० ३।१९) भोजन करना, तृप्त और प्रसन्न होना, तथा सदुपदेश देना, ये जीवित पितरों द्वारा ही सम्भव है, मृतों द्वारा नहीं। प्रियान्१ = लक्ष्यीकृत्य।][१. अथवा इन "पितरों ने अपने प्रिय-सम्बन्धियों का परित्याग किया हुआ है", और ये अब सब के समानरूप में पितर हो गये हैं।]
इंग्लिश (4)
Subject
Victory, Freedom and Security
Meaning
Vibrant sages and enlightened seniors have come, they enjoy themselves, they inspire and enlighten us, their dear ones. They approve and appreciate our courtesy, reverence and hospitality. We, most youthful and enthusiastic citizens, invite and adore them.
Translation
They have eaten; they have revelled (surely); they have shaken off those that are dear; having own brightness, they have praised: inspired, youngest, we implore.
Translation
Self-brilliant strong wise men enjoy the worldly pleasure and becomes highly satisfied. They shake off all these enjoyments and pray God. We ask them for all help.
Translation
The self-enlightened, spiritually sublime souls taste and perpetually revel in the highest bliss of God. They shed off the worldly pleasures and become sinless. They praise the all-Blissful God. We, the men of lower attainments desire their guidance for spiritual knowledge.
Footnote
The verse describes the state of emancipation and the aspirants are asked to look for guidance to the Jiwan-muktas also see Rig, 1.12.2 and Yajur, 3,51. Pt. Damodar Satvalekar applies to an ordinary sacrifice only.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
६१−(अक्षन्) अद भक्षणे-लुङ्, घस्लादेशः। अघसन्। भोगान् भक्षितवन्तः (अमीमदन्त) मद तृप्तियोगे, चुरादेरात्मनेपदिनश्चङिरूपम्। आनन्दं प्राप्तवन्तः (हि) अवधारणे (अव) निश्चयेन (प्रियान्) प्रीतिकरान् बान्धवान् (अधूषत) धूष कान्तिकरणे-लङ्। तिङा तिङोभवन्ति। वा० पा० ७।१।३९। बहुवचनस्यैकवचनम्। अधूषन्त। शोभायमानान् कृतवन्तः (अस्तोषत) स्तुत्यान् कृतवन्तः (स्वभानवः) स्वकीया भानुर्दीप्तिः प्रकाशो येषांते (विप्राः) मेधाविनः (यविष्ठाः) युवन्-इष्ठन्। स्थूलदूरयुवह्रस्व०। पा०६।४।१५६। इति वकारस्य लोप उकारस्य च गुणः। अतिशयेन युवानः। निसर्गबलिनः (ईमहे)याच्ञाकर्मा-निघ० ३।१९। याचामहे। प्रार्थयामहे। विनयामः ॥
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