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अथर्ववेद के काण्ड - 19 के सूक्त 13 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 13/ मन्त्र 1
    ऋषिः - अप्रतिरथः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - एकवीर सूक्त
    1

    इन्द्र॑स्य बा॒हू स्थवि॑रौ॒ वृषा॑णौ चि॒त्रा इ॒मा वृ॑ष॒भौ पा॑रयि॒ष्णू। तौ यो॑क्षे प्रथ॒मो योग॒ आग॑ते॒ याभ्यां॑ जि॒तमसु॑राणां॒ स्वर्यत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑स्य। बा॒हू इति॑। स्थवि॑रौ। वृषा॑णौ। चि॒त्रा। इ॒मा। वृ॒ष॒भौ। पा॒र॒यि॒ष्णू इति॑। तौ। यो॒क्षे॒। प्र॒थ॒मः। योगे॑। आऽग॑ते। याभ्या॑म्। जि॒तम्। असु॑राणाम्। स्वः᳡। यत् ॥१३.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रस्य बाहू स्थविरौ वृषाणौ चित्रा इमा वृषभौ पारयिष्णू। तौ योक्षे प्रथमो योग आगते याभ्यां जितमसुराणां स्वर्यत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रस्य। बाहू इति। स्थविरौ। वृषाणौ। चित्रा। इमा। वृषभौ। पारयिष्णू इति। तौ। योक्षे। प्रथमः। योगे। आऽगते। याभ्याम्। जितम्। असुराणाम्। स्वः। यत् ॥१३.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 13; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (3)

    विषय

    सेनापति के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (इन्द्रस्य) इन्द्र [परम ऐश्वर्यवान् पुरुष सेनापति] के (इमौ) ये दोनों (बाहू) भुजाएँ (स्थविरौ) पुष्ट, (वृषाणौ) वीर्ययुक्त, (चित्रा) अद्भुत (वृषभौ) श्रेष्ठ और (पारयिष्णू) पार लगानेवाले होवें। (तौ) उन दोनों को (योगे) अवसर (आगते) आने पर (प्रथमः) मुखिया तू (योक्षे) काम में लाता है, (याभ्याम्) जिन दोनों से (असुराणाम्) असुरों [प्राण लेनेवाले शत्रुओं] का (यत्) जो (स्वः) सुख है, [वह] (जितम्) जीता जाता है ॥१॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को सेनापति ऐसा बनाना चाहिये, जो विद्यावान्, धनी, महाप्रतापी, शरीर से पुष्ट, शत्रुओं का दमन करनेवाला और प्रजापालक हो ॥१॥

    टिप्पणी

    यह मन्त्र कुछ भेद से सामवेद में है−उ० ९।३।७ ॥ १−(इन्द्रस्य) परमैश्वर्यवतः सेनापतेः (बाहू) भुजौ (स्थविरौ) अजिरशिशिरशिथिल०। उ० १।५३। ष्ठा गतिनिवृत्तौ−किरच्, वुगागमः। स्थूला। पुष्टौ (वृषाणौ) वीर्ययुक्तौ (चित्रा) चित्रौ। श्लाघनीयौ। अद्भुतौ (इमा) इमौ (वृषभौ) श्रेष्ठौ (पारयिष्णू) पारयितारौ (तौ) भुजौ (योक्षे) युजिर् योगे मध्यमपुरुषस्य लटि छान्दसं रूपम्। त्वं युङ्क्षे। प्रयोगं करोषि (प्रथमः) मुख्यः सन् त्वम् (योगे) अवसरे (आगते) प्राप्ते (याभ्याम्) बाहुभ्याम् (जितम्) जयेन प्राप्तम् (असुराणाम्) असूनां प्राणानां ग्रहीतॄणां शत्रूणाम् (स्वः) सुखम् (यत्) ॥

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    विषय

    इन्द्र की भुजाएँ

    पदार्थ

    १. (इन्द्रस्य) = शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले इस सेनापति की (बाहू) = भुजाएँ (स्थविरौ) = स्थिर बलवाली हैं, (वृषाणौ) = शक्तिशाली हैं, (चित्रा) = अद्भुत हैं, (इमा वृषभौ) = ये प्रजाओं पर सुखों का वर्षण करनेवाली हैं, (पारयिष्णू) = शत्रुओं से पार प्राप्त करानेवाली हैं। २. (प्रथम:) = अपनी शक्तियों का विस्तार करनेवाला मैं योगे (आगते) = अवसर के आने पर (तौ योक्षे) = जन भुजाओं का प्रयोग करता है, (याभ्याम्) = जिन भुजाओं से (असराणां यत् स्व:) = असुरों का जो सुख है, वह (जितम्) = जीत लिया जाता है। मेरी इन भुजाओं के व्याप्त होने पर असुर सुख से नहीं रह पाते।

    भावार्थ

    हमारा सेनापति शक्तिशाली हो। अवसर आने पर उसकी भुजाएँ शत्रु-सैन्य के सुख को समाप्त करनेवाली हों।

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    भाषार्थ

    (इन्द्रस्य) सेनापति की (बाहू) भुजाएँ (स्थविरौ) सुदृढ़, (वृषाणौ) शक्तिशाली, (चित्रा=चित्रौ) अद्भुत कार्य करनेवाली हैं, (इमा=इमौ) और ये (वृषभौ) अस्त्रों की वर्षा करती हुई चमकती हैं, (पारयिष्णू) तथा उपस्थित युद्ध को सफलतापूर्वक समाप्त कर देती हैं। (प्रथमः) राष्ट्र का मुखिया मैं राजा, (योगे आगते) अवसर आने पर (तौ) सेनापति की उन भुजाओं का (योक्षे) प्रयोग करता हूँ, (याभ्याम्) जिन भुजाओं द्वारा (असुराणाम्) स्वप्राणपोषणतत्पर शत्रुओं के (यत्) जो (स्वः) सुख तथा सुख-साधन हैं, (तत्) उन्हें (जितम्) जीत लिया जाता है।

    टिप्पणी

    [इन्द्रः= इन्द्रञ्छत्रूणां दारयिता (निरु० १०.१.८)। पारयिष्णू= पार कर्मसमाप्तौ। असुराः=असुः प्राणः तद्वन्तः; “असुरिति प्राणनाम, अस्तः शरीरे भवति, तेन तद्वन्तः” (निरु० ३.२.८), अर्थात् जिनके जीवन का उद्देश्य स्वप्राणपोषणमात्र है। स्वः=सुख (यजुः० ३२.६) महर्षिभाष्य। वृषभौ=वृष (वर्षण)+भा।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    The Sole Hero

    Meaning

    These two arms of the forces of Indra, mighty ruler and supreme commander, both strong and stable, varied and wonderful, virile and creative, saviour and victorious, I, the first in rank, command and deploy whenever the occasion arises. By these two arms of the forces, the power, pleasure and privilege of the uncreative and destructive forces is defeated and won over.

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    Translation

    The two of the resplendent Lord are two sturdy, mighty, wonderful bulls, capable of carrying us across the difficulties; when the need arises, first of all I shall yoke them, by whom the heaven of the life-destroyers was conquered.

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    Translation

    These two arms of the mighty ruler are firm and sturdy, powerful, wondrous, mighty and successful. I, the first in rank when emergency arises employ these (arms) by which the strength and vigor of iniquitous persons whatever that be, is conquered.

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    Translation

    These wonderful arms of the Commander are stout like two bulls and are able to hurl missiles on the enemy and thus cross all hurdles in his way laid by his foe. I the foremost among the people, (the king) utilise them, by which the abode of the wicked enemies where they revel, is conquered, in getting hold of what is to be attained and protecting what has already been achieved.

    Footnote

    cf. Sama, 3.9.3.7.3.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    यह मन्त्र कुछ भेद से सामवेद में है−उ० ९।३।७ ॥ १−(इन्द्रस्य) परमैश्वर्यवतः सेनापतेः (बाहू) भुजौ (स्थविरौ) अजिरशिशिरशिथिल०। उ० १।५३। ष्ठा गतिनिवृत्तौ−किरच्, वुगागमः। स्थूला। पुष्टौ (वृषाणौ) वीर्ययुक्तौ (चित्रा) चित्रौ। श्लाघनीयौ। अद्भुतौ (इमा) इमौ (वृषभौ) श्रेष्ठौ (पारयिष्णू) पारयितारौ (तौ) भुजौ (योक्षे) युजिर् योगे मध्यमपुरुषस्य लटि छान्दसं रूपम्। त्वं युङ्क्षे। प्रयोगं करोषि (प्रथमः) मुख्यः सन् त्वम् (योगे) अवसरे (आगते) प्राप्ते (याभ्याम्) बाहुभ्याम् (जितम्) जयेन प्राप्तम् (असुराणाम्) असूनां प्राणानां ग्रहीतॄणां शत्रूणाम् (स्वः) सुखम् (यत्) ॥

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