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अथर्ववेद के काण्ड - 19 के सूक्त 15 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 15/ मन्त्र 1
    ऋषिः - अथर्वा देवता - इन्द्रः छन्दः - पथ्या बृहती सूक्तम् - अभय सूक्त
    10

    यत॑ इन्द्र॒ भया॑महे॒ ततो॑ नो॒ अभ॑यं कृधि। मघ॑वञ्छ॒ग्धि तव॒ त्वं न॑ ऊ॒तिभि॒र्वि द्विषो॒ वि मृधो॑ जहि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यतः॑। इ॒न्द्र॒। भया॑महे। ततः॑। नः॒। अभ॑यम्। कृ॒धि॒। मघ॑ऽवन्। श॒ग्धि। तव॑। त्वम्। नः॒। ऊ॒तिऽभिः॑। वि। द्विषः॑। वि। मृधः॑। ज॒हि॒ ॥१५.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत इन्द्र भयामहे ततो नो अभयं कृधि। मघवञ्छग्धि तव त्वं न ऊतिभिर्वि द्विषो वि मृधो जहि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यतः। इन्द्र। भयामहे। ततः। नः। अभयम्। कृधि। मघऽवन्। शग्धि। तव। त्वम्। नः। ऊतिऽभिः। वि। द्विषः। वि। मृधः। जहि ॥१५.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 15; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (3)

    विषय

    राजा के कर्त्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले राजन्] (यतः) जिससे (भयामहे) हम डरते हैं, (ततः) उससे (नः) हमें (अभयम्) अभय (कृधि) करदे। (मघवन्) हे महाधनी ! (त्वम्) तू (तव) अपनी (ऊतिभिः) रक्षाओं से (नः) हमें (शग्धि) शक्ति दे, (द्विषः) द्वेषियों को और (मृधः) सङ्ग्रामों को (वि) विशेष करके (विजहि) विनाश करदे ॥१॥

    भावार्थ

    राजा को चाहिये कि प्रजा को जिन शत्रुओं से भय हो, उनको नाश करके प्रजा में शान्ति स्थापित करे ॥१॥

    टिप्पणी

    यह मन्त्र ऋग्वेद में है-८।६१ [वा सायणभाष्य ५०]।१३, साम० पू०३।९।२ तथा उ०५।२।१५॥१−(यतः) यस्मात् कारणात् (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् राजन् (भयामहे) बिभीमः (ततः) तस्मात् कारणात् (नः) अस्मभ्यम् (अभयम्) भयराहित्यम् (कृधि) कुरु (मघवन्) हे बहुधनवन् (शग्धि) शकेर्लोट् शक्तिं देहि (तव) स्वकीयाभिः (त्वम्) (नः) अस्मभ्यम् (ऊतिभिः) रक्षाभिः (वि) विशेषेण (द्विषः) द्वेष्टॄन्। द्रोहिणः (मृधः) संग्रामान्-निघ०२।१७। (वि जहि) विनाशय ॥

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    विषय

    द्वेषी व शत्रुओं का विनाश

    पदार्थ

    १.हे इन्द्र-सब शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभो! हम (यतः भयामहे) = जहाँ से भी भय का अनुभव करते हैं, (तत:) = वहाँ से (न:) = हमें (अभयं कृधि) = निर्भय कीजिए। २. हे (मघवन्) = ऐश्वर्यशालिन् प्रभो! (शग्धि) = आप ही शक्तिशाली हैं, आप ही हमें अभय कर सकते हैं। (त्वम्) = आप (तव ऊतिभि:) = आपके रक्षणों के द्वारा (न:) = हमारे (विद्विषः) = विद्वेष करनेवालों को तथा (मधः) = [murder] हत्या करनेवाले शत्रुओं को (विजहि) = सुदूर विनष्ट कीजिए।

    भावार्थ

    प्रभु हमें अभय करें। हमारे द्वेषी शत्रुओं को सुदूर विनष्ट करें।

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    भाषार्थ

    (इन्द्र) हे सेनाधीश! (यतः) जहां से (भयामहे) हम प्रजाजन भय की आशंका करते हैं, (ततः) वहां से (नः) हमें (अभयम्) निर्भय (कृधि) कीजिये। (मघवन्) हे धनों के स्वामीन! (तव) हम आप के हैं। (त्वम्) आप (ऊतिभिः) रक्षाओं द्वारा (नः) हमें (शग्धि) शक्ति प्रदान कीजिये। (द्विषः) पारस्परिक द्वेषभावों को (वि जहि) पृथक् कीजिए, (मृधः) पारस्परिक संग्रामों को (वि जहि) विगत कीजिये। [मृधः=संग्राम नाम (निघं० २।१७)। जहि= हन् गतौ।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Fearlessness

    Meaning

    Indra, ruler of the world, whatever we fear from, wherever we fear, give us freedom from fear everywhere. O lord of power and glory, strengthen us with all your modes and means of protection. Eliminate all haters, destroy all conflict and eliminate mutual warfare.

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    Subject

    For safety and success

    Translation

    Wherefrom, O resplendent Lord, we apprehend danger, therefrom may you make us safe and secure. O bounteous . Lord, you are capable of it with your protective aids. May you destroy completely our haters and harmers.

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    Translation

    O Indra (Almighty God), you make us secure and safe from that from whom and where any fear is likely to come to us. O Maghvan; you are capable of doing so. You by your succors drive away our dangerous internal enemies (the passion, aversion, etc.).

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    Translation

    O God, make us free from fear, from whatever quarter we are afraid. O Lord of all riches, thou has the capacity to do so. Mayst thou completely destroy the violent enemies of ours.

    Footnote

    cf. Rig, 8.61.13.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    यह मन्त्र ऋग्वेद में है-८।६१ [वा सायणभाष्य ५०]।१३, साम० पू०३।९।२ तथा उ०५।२।१५॥१−(यतः) यस्मात् कारणात् (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् राजन् (भयामहे) बिभीमः (ततः) तस्मात् कारणात् (नः) अस्मभ्यम् (अभयम्) भयराहित्यम् (कृधि) कुरु (मघवन्) हे बहुधनवन् (शग्धि) शकेर्लोट् शक्तिं देहि (तव) स्वकीयाभिः (त्वम्) (नः) अस्मभ्यम् (ऊतिभिः) रक्षाभिः (वि) विशेषेण (द्विषः) द्वेष्टॄन्। द्रोहिणः (मृधः) संग्रामान्-निघ०२।१७। (वि जहि) विनाशय ॥

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