अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 24/ मन्त्र 1
ऋषिः - अथर्वा
देवता - मन्त्रोक्ताः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - राष्ट्रसूक्त
2
येन॑ दे॒वं स॑वि॒तारं॒ परि॑ दे॒वा अधा॑रयन्। तेने॒मं ब्र॑ह्मणस्पते॒ परि॑ रा॒ष्ट्राय॑ धत्तन ॥
स्वर सहित पद पाठयेन॑। दे॒वम्। स॒वि॒तार॑म्। परि॑। दे॒वाः। अधा॑रयन्। तेन॑। इ॒मम्। ब्र॒ह्म॒णः॒। प॒ते॒। परि॑। रा॒ष्ट्राय॑। ध॒त्त॒न॒ ॥२४.१॥
स्वर रहित मन्त्र
येन देवं सवितारं परि देवा अधारयन्। तेनेमं ब्रह्मणस्पते परि राष्ट्राय धत्तन ॥
स्वर रहित पद पाठयेन। देवम्। सवितारम्। परि। देवाः। अधारयन्। तेन। इमम्। ब्रह्मणः। पते। परि। राष्ट्राय। धत्तन ॥२४.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
राजा के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(येन) जिस [नियम] से (देवम्) विजय चाहनेवाले (सवितारम्) प्रेरक [पुरुष] को (देवाः) विद्वानों ने (परि) सब ओर से (अधारयन्) धारण किया है [स्वीकार किया है]। (तेन) उस [नियम] से (इमम्) इस [पराक्रमी] को (राष्ट्राय) राज्य के लिये, (ब्रह्मणः पते) हे वेद के रक्षक ! [और तुम सब] (परि) सब ओर से (धत्तन) धारण करो ॥१॥
भावार्थ
जैसे प्रजागण सदा से सदाचारी पराक्रमी पुरुष को राजा बनाते आये हैं, वैसे ही विद्वान् प्रजा के प्रतिनिधि पुरुष प्रजा की सम्मति से राजा बनावें ॥१॥
टिप्पणी
१−(येन) नियमेन (देवम्) विजिगीषुम् (सवितारम्) प्रेरकम् (परि) सर्वतः (देवाः) विद्वांसः (अधारयन्) धारितवन्तः। स्वीकृतवन्तः (तेन) नियमेन (इमम्) पराक्रमिणम् (ब्रह्मणस्पते) हे वेदस्य रक्षक यूयं च सर्वे (परि) (राष्ट्राय) राज्याय (धत्तन) तस्य तनप्। धारयत। स्वीकुरुत ॥
विषय
देव-देव का धारण-आत्मशासन
पदार्थ
१. इस सूक्त का देवता 'ब्रह्मणस्पति' है-ज्ञान का रक्षक। यह ज्ञान हमें अपने पर शासन करने के योग्य बनाता है। इसप्रकार इस ज्ञान को यहाँ 'वास:' कहा गया है, चूंकि यह हमें आच्छादित करता हुआ पापों से बचाता है। इसी से अन्ततः देवपुरुष प्रभु को अपने बदयों में धारण करते हैं। (येन) = जिस ज्ञान से (देवाः) = देववृत्ति के व्यक्ति उस (सवितारम्) = सर्वोत्पादक सर्वप्रेरक (देवम्) = प्रकाशमय प्रभु को (परि अधारयन्) = समन्तात् धारण करते हैं। जान ही वस्तुत: उन्हें देव बनाता है। देव बनकर वे महादेव के समीप होते चलते हैं। अन्ततः वे हृदयों में प्रभु के प्रकाश को देखते हैं। २. हे (ब्रह्मणस्पते) = ज्ञान के स्वमिन् प्रभो । (तेन) = उस ज्ञान से (इमम्) = इस अपने उपासक को भी आप (राष्ट्राय) = इस शरीररूप राष्ट्र की उत्तमता के लिए अपने पर शासन कर सकने के लिए-(परिधत्तन) = धारण कीजिए।
भावार्थ
ज्ञानरूप वस्त्र हमें पाप आदि से सुरक्षित करता हुआ देव बनाता है और अन्ततः प्रभु-दर्शन कराता है। इसको धारण करते हुए हम आत्मशासन के योग्य बनें।
भाषार्थ
(येन) जिस विधि से (देवाः) द्योतमान ग्रह आदि ने (देवम्) द्योतमान (सवितारम्) ग्रहों आदि के उत्पादक और प्रेरक ऐश्वर्यशाली सूर्य को (परि) सब प्रकार से (अधारयन्) नियत स्थान में धारित किया हुआ है, (तेन) उस विधि से (ब्रह्मणस्पते) हे वेदों के विद्वान्! आप, तथा हे अन्य राष्ट्रदेवो! (इमम्) इस सम्राट् को (राष्ट्राय) भूमण्डलव्यापी राष्ट्र के प्रबन्ध के लिए (परि) सब प्रकार से (धत्तन) धारित करो।
टिप्पणी
[येन—ग्रह आदि और सूर्य पारस्परिक आकर्षण-शक्ति द्वारा एक-दूसरे को धारण किये हुए हैं। इसी प्रकार प्रजावर्ग और राजवर्ग में पारस्परिक स्नेहाकर्षण होना चाहिए। तभी राज्य का प्रबन्ध उत्तम हो सकता है, और शासन में स्थिरता आ सकती है।]
इंग्लिश (4)
Subject
Rashtra
Meaning
By the law and commitment by which the Devas, divine powers and brilliancies of Nature, fully hold and wholly support Savita, the divine, self-refulgent, all- inspiring Sun, O Brahmanaspati, high priest of this great Dominion, you and other enlightened personalities, invest and consecrate this ruler in his office for the sake of the Rashtra, enlightened self-governing social order.
Subject
For prosperity and protection
Translation
Wherewith the enlightened ones invested the divine impeller Lord, therewith. O Lord of knowledge, may you invest this person for kingly power.
Translation
O Brahmanaspati (the master of Vedic speech) you invest for royal insignia or sway this man in the way by which the learned men invest the brilliant man of constructive genius.
Translation
O the learned person, well-versed in Vedic lore, invest this pushing king of noble qualities with royal robes as well authority for the very reason for which the nobility and intelligentsia of the land have upheld.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(येन) नियमेन (देवम्) विजिगीषुम् (सवितारम्) प्रेरकम् (परि) सर्वतः (देवाः) विद्वांसः (अधारयन्) धारितवन्तः। स्वीकृतवन्तः (तेन) नियमेन (इमम्) पराक्रमिणम् (ब्रह्मणस्पते) हे वेदस्य रक्षक यूयं च सर्वे (परि) (राष्ट्राय) राज्याय (धत्तन) तस्य तनप्। धारयत। स्वीकुरुत ॥
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