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अथर्ववेद के काण्ड - 19 के सूक्त 26 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 26/ मन्त्र 1
    ऋषिः - अथर्वा देवता - अग्निः, हिरण्यम् छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - हिरण्यधारण सूक्त
    1

    अ॒ग्नेः प्रजा॑तं॒ परि॒ यद्धिर॑ण्यम॒मृतं॑ द॒ध्रे अधि॒ मर्त्ये॑षु। य ए॑न॒द्वेद॒ स इदे॑नमर्हति ज॒रामृ॑त्युर्भवति॒ यो बि॒भर्ति॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्नेः। प्रऽजा॑तम्। परि॑। यत्। हिर॑ण्यम्। अ॒मृत॑म्। द॒ध्रे। अधि॑। मर्त्ये॑षु। यः। ए॒न॒त्। वेद॑। सः। इत्। ए॒न॒म्। अ॒र्ह॒ति॒। ज॒राऽमृ॑त्युः। भ॒व॒ति॒। यः। बि॒भर्ति॑ ॥२६.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्नेः प्रजातं परि यद्धिरण्यममृतं दध्रे अधि मर्त्येषु। य एनद्वेद स इदेनमर्हति जरामृत्युर्भवति यो बिभर्ति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्नेः। प्रऽजातम्। परि। यत्। हिरण्यम्। अमृतम्। दध्रे। अधि। मर्त्येषु। यः। एनत्। वेद। सः। इत्। एनम्। अर्हति। जराऽमृत्युः। भवति। यः। बिभर्ति ॥२६.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 26; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (3)

    विषय

    सुवर्ण आदि धन की प्राप्ति का उपदेश।

    पदार्थ

    (यत्) जो (हिरण्यम्) कमनीय सुवर्ण (अग्नेः परि) अग्नि से [पार्थिव अग्नि यद्वा पराक्रम रूप तेज से] (प्रजातम्) उत्पन्न हुआ है, (अमृतम्) [उस] मृत्यु से बचानेवाले [जीवन के साधन] को (मनुष्येषु) मनुष्यों में (अधि) अधिकारपूर्वक (दध्रे) मैंने धरा है। (यः) जो पुरुष (एनत्) इस [बात] को (वेद) जानता है, (सः) वह (इत्) ही (एनम्) इस [पदार्थ] के (अर्हति) योग्य होता है, और वह (जरामृत्युः) बुढ़ापे [निर्बलता] को मृत्युसमान [दुःखदायी] माननेवाला महाप्रबल (भवति) होता है, (यः) जो [सुवर्ण को] (बिभर्त्ति) धारण करता है ॥१॥

    भावार्थ

    पृथिवी के साथ सूर्य की किरणों का संयोग होने से सोना उत्पन्न होता है और उसको ईश्वरनियम से मनुष्यों में पराक्रमी ही पाते हैं। मनुष्य इस सिद्धान्त को निश्चय जानकर विद्या द्वारा योग्य होकर सुवर्ण आदि धन प्राप्त करें ॥१॥

    टिप्पणी

    १−(अग्नेः) पार्थिवाग्निसकाशात् पराक्रमरूपप्रकाशाद् वा (प्रजातम्) उत्पन्नं वर्तते (परि) (यत्) (हिरण्यम्) हर्यतेः कन्यन् हिर् च। उ०५।४४। हर्य गतिकान्त्योः कन्यन्, हिरादेशः। कमनीयं सुवर्णादिधनम् (अमृतम्) न म्रियते यस्मात् तत्। जीवनसाधनं हिरण्यम् (दध्रे) धृञ् धारणे-लिट्। उत्तमपुरुषः। अहं धारितवानस्मि (मर्त्येषु) मनुष्येषु (यः) (एनत्) इदं वचनम् (वेद) जानाति (सः) (इति) एव (एनम्) इमं पदार्थम् (अर्हति) धारयितुं योग्यो भवति (जरामृत्युः) जरा निर्बलता मृत्युरिव दुःखप्रदा यस्य सः। महाप्रबलः (भवति) (यः) (बिभर्ति) दधाति हिरण्यम् ॥

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    विषय

    हिरण्य-धारण व दीर्घजीवन

    पदार्थ

    १. शरीर में वैश्वानर अग्नि [जाठराग्नि] भोजन के परिपाक के द्वारा रस, रुधिर आदि धातुओं का निर्माण करती है। इस निर्माण में अन्तिम धातु 'वीर्य' है। यही 'हिरण्य' है-हित रमणीय है। यही 'अमृत' है। रोगों से आक्रान्त न होने देनेवाला है। प्रभु ने (अग्ने: प्रजातम्) = वैश्वानर अग्नि से उत्पन्न हुआ-हुआ (यत्) = जो (हिरण्यम्) = हित-रमणीय (अमृतम्) = रोगों से आक्रान्त न होने देनेवाला वीर्य है, उसको (अधिमयेषु) = इन मानव-शरीरों में (परिदधे) = समन्तात् स्थापित किया है। २. (यः) = जो पुरुष (एनत् वेद) = इस बात को समझ लेता है, (स:) = वह (इत) = निश्चय से (एनम् अर्हति) = इस हिरण्य को धारण करने के योग्य होता है। वह इस हिरण्य को धारण करनेवाला बनता है और (यः बिभर्ति) = जो भी इसे धारण करता है, वह (जरामृत्युः भवति) = पूर्ण जरावस्था तक पहुँचकर शरीर को छोड़नेवाला होता है। दीर्घजीवनवाला होता है।

    भावार्थ

    प्रभु ने ऐसी व्यवस्था की है कि शरीर में 'वैश्वानर अग्नि' द्वारा रस-रुधिर आदि के क्रम से हिरण्य [वीर्य] की उत्पत्ति होती है। यही अमृत है। जो इसका धारण करता है वह नीरोग होकर दीर्घजीवन प्राप्त करता है।

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    भाषार्थ

    (यत्) जो (हिरण्यम्) हितकर और रमणीय वीर्य-तत्त्व (अग्नेः परि) तपश्चर्या की अग्नि से (प्रजातम्) प्रकृष्टस्वरूप में प्रकट होता है, वह वीर्य-तत्त्व (मर्त्येषु अधि) मरणधर्मा मनुष्यों में (अमृतम्) अमृत परमेश्वर को (दध्रे) स्थापित करता है। (यः) जो कोई (एनत्) वीर्य-तत्त्व के इस स्वरूप को (वेद) जानता है, (सः इद्) वह ही (एनम्) इस अमृत परमेश्वर की प्राप्ति के (अर्हति) योग्य होता है। (यः) जो कोई (बिभर्ति) वीर्य-तत्त्व को धारण-पोषण करता है, वह (जरामृत्युः) बुढ़ापे पर मरनेवाला (भवति) हो जाता है।

    टिप्पणी

    [हिरण्यम्= हितरमणं भवतीति वा हृदयरमणं भवतीति वा (निरु० २.३.१०)। हिरण्यम्= semen virile (आप्टे), अर्थात् पुरुष का वीर्य। अथर्व० १.३५वें सूक्त में हिरण्य के सम्बन्ध में कहा है कि हिरण्य “दाक्षायण” है, अर्थात् कर्मशक्ति और वृद्धि का अयन अर्थात् घर या मार्ग है, (दक्ष गतौ, वृद्धौ)। तथा “अपाम्” अर्थात् रक्त का तेज, ज्योति, ओज और बल है। आपः=रक्त (अथर्व० १०.२.११)। यथा—“कोऽस्मिन्नापो व्यदधात् विषूवृतः पुरूवृतः सिन्धुसृत्याय जाताः। तीव्रा अरुणा लोहिनीस्ताम्रधूम्रा ऊर्ध्वा अवाचीः पुरुषे तिरश्चीः”। इस उद्धरण में ‘सिन्धु’ हृदय है। लोहिनीः= लोहयुक्त लाल खून, तथा ताम्रधूम्राः= नीला खून; तीव्राः= रक्त का तीव्र आस्वाद। तथा अथर्व० १.३५.३ में “हिरण्य” को वनस्पतियों का सार कहा है, यथा—“वनस्पतीनामुत१ वीर्याणि”।] [१. ओषधिभ्य अन्नं अन्नाद्रेतः (वीर्यम्)।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Hiranyam

    Meaning

    One who wears gold, (and the golden glow of lustrous vitality of health), born of the crucibles of fire, bears the immortal nectar spirit of life among mortals. Whoever knows this, deserves this, and one who wears this becomes immune to old age and infirmity till death.

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    Subject

    Hiranyam : with something Golden

    Translation

    The gold, which is born from fire, bestows immortality on the mortals. Whoever know this to be so, he deserves it (the gold). Whoso wears it, reaches the good old age before death.

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    Translation

    The gold which is produced by the process of fire (Gold chloride) used in the men retain immortality (the life) Only he who knows and obtains deserves to use it. He who uses it dies after maturity.

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    Translation

    The life-prolonging semen, which is produced by ‘jathragni’ bodily temperature, is maintained in the mortal bodies through-and-through. He, who knows the importance of it, does deserve it and who keeps it intact, attains to long, long old age before he dies.

    Footnote

    The importance of not wasting one’s semen for the longevity of life is emphasized here.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(अग्नेः) पार्थिवाग्निसकाशात् पराक्रमरूपप्रकाशाद् वा (प्रजातम्) उत्पन्नं वर्तते (परि) (यत्) (हिरण्यम्) हर्यतेः कन्यन् हिर् च। उ०५।४४। हर्य गतिकान्त्योः कन्यन्, हिरादेशः। कमनीयं सुवर्णादिधनम् (अमृतम्) न म्रियते यस्मात् तत्। जीवनसाधनं हिरण्यम् (दध्रे) धृञ् धारणे-लिट्। उत्तमपुरुषः। अहं धारितवानस्मि (मर्त्येषु) मनुष्येषु (यः) (एनत्) इदं वचनम् (वेद) जानाति (सः) (इति) एव (एनम्) इमं पदार्थम् (अर्हति) धारयितुं योग्यो भवति (जरामृत्युः) जरा निर्बलता मृत्युरिव दुःखप्रदा यस्य सः। महाप्रबलः (भवति) (यः) (बिभर्ति) दधाति हिरण्यम् ॥

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