अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 1
ऋषिः - अथर्वाङ्गिराः
देवता - अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - जातवेदा सूक्त
1
दि॒वस्पृ॑थि॒व्याः पर्य॒न्तरि॑क्षा॒द्वन॒स्पति॑भ्यो॒ अध्योष॑धीभ्यः। यत्र॑यत्र॒ विभृ॑तो जा॒तवे॑दा॒स्तत॑ स्तु॒तो जु॒षमा॑णो न॒ एहि॑ ॥
स्वर सहित पद पाठदि॒वः। पृ॒थि॒व्याः। परि॑। अ॒न्तरि॑क्षात्। वन॒स्पति॑ऽभ्यः। अधि॑। ओष॑धीभ्यः। यत्र॑ऽयत्र। विऽभृ॑तः। जा॒तऽवे॑दाः। ततः॑। स्तु॒तः। जु॒षमा॑णः। नः॒। आ। इ॒हि॒ ॥३.१॥
स्वर रहित मन्त्र
दिवस्पृथिव्याः पर्यन्तरिक्षाद्वनस्पतिभ्यो अध्योषधीभ्यः। यत्रयत्र विभृतो जातवेदास्तत स्तुतो जुषमाणो न एहि ॥
स्वर रहित पद पाठदिवः। पृथिव्याः। परि। अन्तरिक्षात्। वनस्पतिऽभ्यः। अधि। ओषधीभ्यः। यत्रऽयत्र। विऽभृतः। जातऽवेदाः। ततः। स्तुतः। जुषमाणः। नः। आ। इहि ॥३.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
अग्नि के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(दिवः) सूर्य से, (पृथिव्याः) पृथिवी से, (अन्तरिक्षात् परि) अन्तरिक्ष [मध्यलोक] में से, (वनस्पतिभ्यः) वनस्पतियों [पीपल आदि वृक्षों] से और (ओषधीभ्यः अधि) ओषधियों [अन्न सोमलता आदिकों] में से, और (यत्रयत्र) जहाँ-जहाँ (जातवेदाः) उत्पन्न पदार्थों में विद्यमान तू [अग्नि] (विभृतः) विशेष करके धारण किया गया है, (ततः) वहाँ से (स्तुतः) स्तुति किया गया [काम में लाया गया] और (जुषमाणः) प्रसन्न करता हुआ तू (नः) हमको (आ) आकर (इहि) प्राप्त हो ॥१॥
भावार्थ
सब मनुष्य अग्नि, बिजुली, धूप आदि को सूर्य, पृथिवी, अन्तरिक्ष, वनस्पतियों, ओषधियों अन्य पदार्थों से ग्रहण करके शरीर की पुष्टि और शिल्पविद्या की उन्नति करें ॥१॥
टिप्पणी
इस मन्त्र का प्रथम पाद आया है-अ० ९।१।१ ॥ १−(दिवः) सूर्यात् (पृथिव्याः) भूमेः (परि) सकाशात् (अन्तरिक्षात्) मध्यलोकात् (वनस्पतिभ्यः) पिप्पलादिवृक्षेभ्यः (अधि) सकाशात् (ओषधीभ्यः) अन्नसोमलतादिपदार्थेभ्यः (यत्रयत्र) यस्मिन् यस्मिन् पदार्थे स्थाने वा (विभृतः) विशेषेण धृतः पूर्णः (जातवेदाः) जातेषूत्पन्नेषु वेदो विद्यमानता यस्य सः (ततः) तस्मात् (स्तुतः) प्रशंसितः। प्रयुक्तः (जुषमाणः) जुषी प्रीतिसेवनयोः−शानच्। प्रीणयन् (नः) अस्मान् (आ) आगत्य (इहि) प्राप्नुहि ॥
विषय
विविध अग्नियों का सदुपयोग
पदार्थ
१. (दिव:) = द्युलोक से (पृथिव्याः) = पृथिवीलोक से (अन्तरिक्षात परि) = अन्तरिक्षलोक से-वाय से (वनस्पतिभ्य:) = वनस्पतियों से तथा (ओषधीभ्यः) = अधि ओषधियों में से (यत्रयत्र) = जहाँ भी (जातवेदा:) = [जाते जाते विद्यते] यह व्याप्त होकर रहनेवाला अग्नि (विभृत:) = विशेषरूप से धारण किया गया है, (तत:) = वहाँ से (स्तुत:) = स्तवन किया हुआ व (जुषमाण:) = प्रीतिपूर्वक सेवन किया हुआ (नः एहि) = हमें प्राप्त हो।
भावार्थ
द्युलोकस्थ सूर्यरूप अग्नि के, पृथिवीस्थ अग्नि के, अन्तरिक्षस्थ विद्युत् अग्नि के तथा वनस्पतियों व ओषधियों में अम्ल [acid] रूप में रहनेवाले अग्नि के गुणों का स्तवन करते हुए तथा इनका उचित प्रयोग करते हुए हम नीरोगता-जनित प्रीति का अनुभव करें।
भाषार्थ
अग्निविद्या के विद्वानों द्वारा (स्तुतः) वर्णित, (जातवेदाः) प्रत्येक उत्पन्न पदार्थ में विद्यमान अग्नि, (यत्र यत्र) जिस-जिस पदार्थ में (विभृतः) अपने विविधरूपों में विचरता है या स्थित है, (ततः) उस-उस पदार्थ से (नः जुषमाणः) हमारी सेवा करता हुआ, (एहि) आए, हमें प्राप्त हो। (दिवः) द्युलोक अर्थात् सूर्य से, (पृथिव्याः) पार्थिव पदार्थों से, (अन्तरिक्षात् परि) अन्तरिक्षस्थ विद्युत् से, (वनस्पतिभ्यः) वृक्षों से, (ओषधीभ्यः अधि) तथा ओषधियों से हमें अग्नि प्राप्त हो।
टिप्पणी
[जातवेदाः= जाते जाते विद्यते (निरु० ७.५.१९) सूर्य, विद्युत्, पार्थिव पदार्थों, तथा काष्ठों द्वारा अग्नि को उत्पन्न कर उसे अपने सेवाकार्यों में प्रयुक्त करना चाहिये। विभृतः= वि+हृ+क्त; हृग्रहोर्भः छन्दसि, अथवा वि+भृ (धारण)+क्त।]
इंग्लिश (4)
Subject
Jataveda
Meaning
From the solar regions (as light), from the earth (as magnetic energy), from the sky (as wind and electric energy), from the herbs and trees (as food and vital energy), and from medicinal herbs, wherever Agni energy is present, is studied, valued and developed, let fire energy, our friend and companion of love and value, come to us.
Subject
Praise to Agni
Translation
From the sky, from the earth, from the midspace, from the forest trees, from the medicinal plants, wheresoever you have been held, thence, O cognizant of all, come to us, praised and well pleased.
Translation
Let this fire, whether so ever, from earth, from atmosphere, from trees and from herbs, is carried hither and thither to different places and praised and being usable taken into our use.
Translation
O electricity, the self-illumined and the illuminating of other, wheresoever you are borne, contained, being fit to be used by us come to us thence, from the heavens, from earth, from the atmosphere, from trees and from herbs.
Footnote
(1-2) The verse instructs man to make use of electric power from all sources enumerated herein. When we compare modern developments, they would appear but a drop before the vast ocean thrown open to man by this verse.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
इस मन्त्र का प्रथम पाद आया है-अ० ९।१।१ ॥ १−(दिवः) सूर्यात् (पृथिव्याः) भूमेः (परि) सकाशात् (अन्तरिक्षात्) मध्यलोकात् (वनस्पतिभ्यः) पिप्पलादिवृक्षेभ्यः (अधि) सकाशात् (ओषधीभ्यः) अन्नसोमलतादिपदार्थेभ्यः (यत्रयत्र) यस्मिन् यस्मिन् पदार्थे स्थाने वा (विभृतः) विशेषेण धृतः पूर्णः (जातवेदाः) जातेषूत्पन्नेषु वेदो विद्यमानता यस्य सः (ततः) तस्मात् (स्तुतः) प्रशंसितः। प्रयुक्तः (जुषमाणः) जुषी प्रीतिसेवनयोः−शानच्। प्रीणयन् (नः) अस्मान् (आ) आगत्य (इहि) प्राप्नुहि ॥
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