अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 32/ मन्त्र 1
श॒तका॑ण्डो दुश्च्यव॒नः स॒हस्र॑पर्ण उत्ति॒रः। द॒र्भो य उ॒ग्र ओष॑धि॒स्तं ते॑ बध्ना॒म्यायु॑षे ॥
स्वर सहित पद पाठश॒तऽका॑ण्डः। दुः॒ऽच्य॒व॒नः। स॒हस्र॑ऽपर्णः। उ॒त्ऽति॒रः। द॒र्भः। यः। उ॒ग्रः। ओष॑धिः। तम्। ते॒। ब॒ध्ना॒मि॒। आयु॑षे ॥३२.१॥
स्वर रहित मन्त्र
शतकाण्डो दुश्च्यवनः सहस्रपर्ण उत्तिरः। दर्भो य उग्र ओषधिस्तं ते बध्नाम्यायुषे ॥
स्वर रहित पद पाठशतऽकाण्डः। दुःऽच्यवनः। सहस्रऽपर्णः। उत्ऽतिरः। दर्भः। यः। उग्रः। ओषधिः। तम्। ते। बध्नामि। आयुषे ॥३२.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
शत्रुओं के हराने का उपदेश।
पदार्थ
(शतकाण्डः) सैकड़ों सहारे देनेवाला, (दुश्च्यवनः) न हटनेवाला, (सहस्रपर्णः) सैकड़ों पालनोंवाला, (उत्तिरः) उत्कृष्ट, (यः) जो (दर्भः) दर्भ [शत्रुविदारक परमेश्वर वा औषध विशेष] (उग्रः) उग्र (ओषधिः) ओषधिरूप है। (तम्) उसको (ते) तेरे लिये (आयुषे) [दीर्घ] जीवन के लिये (बध्नामि) मैं धारण करता हूँ ॥१॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जैसे परमात्मा अनेक प्रकार सहारा देनेवाला दृढ़ स्वभाव है, और जैसे उत्तम औषध से सुख मिलता है, वैसे ही तुम लोग उस जगदीश्वर की शरण में रहकर सबके पालन करने का उपाय करो ॥१॥
टिप्पणी
१−(शतकाण्डः) कडि भेदने रक्षणे च-घञ्। बहुरक्षणोपेतः (दुश्च्यवनः) च्युङ् गतौ-युच्। दुःखेन च्यावनीयः अनिवारणीयः (सहस्रपर्णः) पॄ पालनपूरणयोः-न प्रत्ययः। अनन्तपालनसामर्थ्योपेतः (उत्तिरः) उत्+तॄ प्लवनतरणयोः-क प्रत्ययः। उत्कृष्टः (दर्भः) अ०१९।२८।१। शत्रुविदारकः परमेश्वरः (यः) (उग्रः) प्रचण्डः (ओषधिः) ओषधिरूपः (तम्) (ते) तुभ्यम् (बध्नामि) धारयामि (आयुषे) दीर्घजीवनाय ॥
विषय
शतकापड [दर्भ]
पदार्थ
१.(दर्भ:) = शत्रुसंहारक वीर्यरूप मणि (शतकाण्ड:) = [काण्ड-arrow] सैकड़ों तीरोंवाली है इन तीरों से यह रोगरूप शत्रुओं को विद्ध करती है। (दुश्च्यवन:) = यह शत्रुओं से च्युत नहीं की जाती, (सहस्त्रपर्ण:) = हजारों प्रकार से यह हमारा पालन व पूरण करती है। (उत्तिर:) = यह रोगरूप शत्रुओं को उखाड़ देती है। (दर्भ:) = यह वीर्यमणि (यः) = जोकि (उग्रः) = बड़ी तेजस्वी है (ओषधि:) = सब दोषों का दहन करनेवाली है, (ते) = उस ओषधिभूत वीर्य को (ते बध्नामि) = तुझमें बाँधता हूँ। इसे तेरे शरीर में ही सुरक्षित करता हूँ। यह तेरे (आयुषे) = दीर्घजीवन के लिए होती है।
भावार्थ
यह वीर्यमणि सैकड़ों बाणों से रोगरूप शत्रुओं पर प्रहार करती है। रोगों को जला देती है। शरीर में धारण किये जाने पर यह दीर्घजीवन का कारण बनती है।
भाषार्थ
(शतकाण्डः) सैकड़ों द्वारा कमनीय अर्थात् चाहा गया, (दुश्च्यवनः) न्यायपथ से च्युत न होनेवाला या अपराभवनीय, (सहस्रपर्णः) हजारों का परिपालक, (उत्तिरः) क्लेशों से तैरानेवाला (यः) जो (उग्रः ओषधिः) उग्र ओषधिरूप (दर्भः) अविद्याग्रन्थि-विदारक परमेश्वर है, (तम्) उसे (ते) तेरे (आयुषे) जीवन के लिए (बध्नामि) तेरे साथ मैं दृढ़ बद्ध करता हूँ।
टिप्पणी
[काण्डः= काम्यते जनैः (उणा० १.११५), अर्थात् जो जनों द्वारा चाहा जाता है। यथा— “प्रियमिन्द्रस्य काम्यम्” (यजुः० ३२.१३) अर्थात् परमेश्वर, इन्द्र (=जीवात्मा) का प्रिय है, काम्य है। पर्णः१=पिपर्ति पालयति (उणा० ३.६)। दर्भः= विदारयति अविद्याग्रन्थिम्। ओषधिः= ओषद्धयति दोषं धयतीति वा (निरु० ९.३.२७)। परमेश्वर अविद्यादि रोगों का औषधरूप है, उग्र औषधरूप है।] [१. वेद में "पर्ण" शब्द पुंल्लिङ्ग भी पठित है (अथर्व० ३.५.४, ८; तथा १८.४.५३)]
इंग्लिश (4)
Subject
Darbha
Meaning
Hundred stemmed, inviolable, thousand leaved, the efficacious saviour Darbha, powerful healer, I bind on you for good health and long life.
Subject
Darbha : For long life etc.
Translation
Having hundreds of joints, and thousands of blades, difficult to remove, and up-growing darbha is a powerful remedy; that -I bind on you for a long life-span.
Translation
I bind on you, O man, for lengthening the life this Darbha which is an effectual healing plant having. hundred stems and thousand blades, which is excellent and which throws away the diseases.
Translation
O man, I (a physician) tie this kusha-grass, which is a forceful, energizing herb, with hundreds of reeds, infallible, with thousands of leaves and far efficacious than other herbs, for lengthening your life-span.
Footnote
I am at a loss to understand why should the specific properties of kusha-grass, mentioned herein and other suktas be ignored, as has been done by Griffith, who simply takes it as an Amulet only and Pt. Jaidev Vidyalankar, who interprets it as Commander of the army and Pt. Khem Karan Das Trivedi who refers to God sometimes and to the herb at other times.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(शतकाण्डः) कडि भेदने रक्षणे च-घञ्। बहुरक्षणोपेतः (दुश्च्यवनः) च्युङ् गतौ-युच्। दुःखेन च्यावनीयः अनिवारणीयः (सहस्रपर्णः) पॄ पालनपूरणयोः-न प्रत्ययः। अनन्तपालनसामर्थ्योपेतः (उत्तिरः) उत्+तॄ प्लवनतरणयोः-क प्रत्ययः। उत्कृष्टः (दर्भः) अ०१९।२८।१। शत्रुविदारकः परमेश्वरः (यः) (उग्रः) प्रचण्डः (ओषधिः) ओषधिरूपः (तम्) (ते) तुभ्यम् (बध्नामि) धारयामि (आयुषे) दीर्घजीवनाय ॥
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