अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 1
ऋषिः - अथर्वाङ्गिराः
देवता - अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - जातवेदा सूक्त
1
यामाहु॑तिं प्रथ॒मामथ॑र्वा॒ या जा॒ता या ह॒व्यमकृ॑णोज्जा॒तवे॑दाः। तां त॑ ए॒तां प्र॑थ॒मो जो॑हवीमि॒ ताभि॑ष्टु॒प्तो व॑हतु ह॒व्यम॒ग्निर॒ग्नये॒ स्वाहा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयाम्। आऽहु॑तिम्। प्र॒थ॒माम्। अथ॑र्वा। या। जा॒ता॑। या। ह॒व्यम्। अकृ॑णोत्। जा॒तऽवे॑दाः। ताम्। ते॒। ए॒ताम्। प्र॒थ॒मः। जो॒ह॒वी॒मि॒। ताभिः॑। स्तु॒प्तः। व॒ह॒तु॒। ह॒व्यम्। अ॒ग्निः। अ॒ग्नये॑। स्वाहा॑ ॥४.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यामाहुतिं प्रथमामथर्वा या जाता या हव्यमकृणोज्जातवेदाः। तां त एतां प्रथमो जोहवीमि ताभिष्टुप्तो वहतु हव्यमग्निरग्नये स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठयाम्। आऽहुतिम्। प्रथमाम्। अथर्वा। या। जाता। या। हव्यम्। अकृणोत्। जातऽवेदाः। ताम्। ते। एताम्। प्रथमः। जोहवीमि। ताभिः। स्तुप्तः। वहतु। हव्यम्। अग्निः। अग्नये। स्वाहा ॥४.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
बुद्धि बढ़ाने का उपदेश।
पदार्थ
(याम्) जिस (आहुतिम्) यथावत् देने-लेने योग्य क्रिया [सङ्कल्प शक्ति-म० २] को (अथर्वा) निश्चल परमात्मा ने (प्रथमाम्) सब से पहिली, और (या) जिस (या) प्राप्तियोग्य [संकल्प शक्ति] को (जाता) उत्पन्न [प्रजाओं] के लिये (जातवेदाः) उत्पन्न पदार्थों को जाननेवाले परमेश्वर ने (हव्यम्) देने-लेने योग्य वस्तु (अकृणोत्) बनाया। (ताम्) वैसी (एताम्) इस [संकल्प शक्ति] को (ते) तेरे लिये [हे मनुष्य !] (प्रथमः) सब में पहिला [अर्थात् मुख्य विद्वान्] मैं (जोहवीमि) बारंबार देता हूँ, (ताभिः) उन [प्रजाओं] से (स्तुप्तः) एकत्र किया गया [हृदय में लाया गया] (अग्निः) ज्ञानमय परमात्मा (अग्नये) ज्ञानवान् पुरुष के लिये (स्वाहा) सुन्दर वाणी से (हव्यम्) देने-लेने योग्य पदार्थ (वहतु) प्राप्त करे ॥१॥
भावार्थ
परमात्मा ने सब से पहिले सृष्टि की आदि में संकल्प वा विचार शक्ति अर्थात् वेदवाणी प्राणियों के हित के लिये उत्पन्न की है। मनुष्य पूर्ण विद्वान् होकर वेदों का उपदेश करके परमेश्वर की महिमा को प्रकाशित करें ॥१॥
टिप्पणी
१−(याम्) (आहुतिम्) हु दानादानादनेषु−क्तिन्। समन्ताद् दातव्यग्राह्यक्रियाम्। संकल्पशक्तिम्। आकूतिम्-म० २। (प्रथमाम्) सृष्ट्यादौ वर्तमानाम् (अथर्वा) अ० ४।१।७। अथर्वाणोऽथर्वन्तस्थर्वतिश्चरतिकर्मा तत्प्रतिषेधः-निरु० ११।१८। नञ्+थर्व चरणे−वनिप्। निश्चलः परमात्मा (या) सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। इति द्वितीयायाः सुः। याम् (जाता) चतुर्थ्याः सुः। जाताभ्यः प्रजाभ्यः (या) या गतिप्रापणयोः-ड। द्वितीयायाः सुः। यां प्राप्तव्याम् (हव्यम्) दातव्यग्राह्यवस्तु (अकृणोत्) अकरोत् (जातवेदाः) जातानामुत्पन्नानां वेत्ता ज्ञाता परमेश्वरः (ताम्) तादृशीम् (ते) तुभ्यम् (एताम्) आहुतिम् (प्रथमः) मुख्यो विद्वान् अहम् (जोहवीमि) जुहोतेर्यङ्लुकि रूपम्। वारम्वारं जुहोमि ददामि (ताभिः) जाताभिः प्रजाभिः (स्तुप्तः) ष्टुप उच्छ्राये-क्त। राशीकृतः। हृदये समाहितः (वहतु) प्रापयतु (हव्यम्) दातव्यग्राह्यपदार्थम् (अग्निः) ज्ञानमयः परमात्मा (अग्नये) ज्ञानवते पुरुषाय (स्वाहा) सुवाण्या ॥
विषय
[वेद का प्रादुर्भाव] प्रथमा आहुति
पदार्थ
१. (याम्) = जिस (आहुतिम्) = [हु दाने] दान को (प्रथमाम्) = सर्वप्रथम अथर्वा-उस न डोलनेवाले 'अच्युत' (जातवेदा:) = सर्वज्ञ प्रभु ने (अकृणोत्) = किया, (या) = जो वेदज्ञान की देन (जाता) = अग्नि आदि ऋषियों के हदयों में प्रादुर्भूत हुई, या जो वेदज्ञान की देन हमारे लिए (हव्यम् अकृणोत्) = हव्य पदार्थों को करती है। इस वेदज्ञान से हमें चाहने योग्य 'आयु, प्राण, प्रजा, पशु, द्रविण, कीर्ति व ब्रह्मवर्चस्' आदि सब उत्तम पदार्थ प्राप्त होते हैं। प्रभु ने इस वेदज्ञान को सर्वप्रथम दिया। यह वेदज्ञान 'अग्नि' आदि ऋषियों के हृदयों में प्रादुर्भूत हुआ। यह प्रभु की सर्वप्रथम देन है। २. (ताम्) = उस (एताम्) = इस वेदज्ञान की आहुति को (ते) = आपसे (प्रथम:) = सबसे पहिले (जोहवीमि) = पुकारता हूँ-माँगता हूँ। (ताभि:) = उन वेदवाणियों से (स्तुत:) = [स्तुभ to praise] स्तुत हुआ-हुआ (अग्नि:) = वह अग्रणी प्रभु (हव्यं वहतु) = हमारे लिए सब हव्य पदार्थों को प्राप्त कराए। इस (अग्नये) = अग्रणी प्रभु के लिए (स्वाहा) = हम अपना अर्पण करते हैं। अर्पण करनेवाले हम लोगों का वे प्रभु वेदज्ञान प्राप्त कराने के द्वारा कल्याण क्यों न करेंगे?
भावार्थ
प्रभु की सर्वप्रथम देन वेदज्ञान है। प्रभु सृष्टि के प्रारम्भ में इसका अग्नि आदि के हृदयों में प्रकाश करते हैं। हम भी इस वेदज्ञान की याचना करते हैं। वेदवाणियों द्वारा स्तुत प्रभु हमारे लिए सब हव्य पदार्थों को प्राप्त कराएँ। हम उस प्रभु के प्रति अपना अर्पण करते है।
भाषार्थ
(अथर्वा) अचल कूटस्थ, (जातवेदाः) उत्पन्न प्रज्ञ परमेश्वर ने, जगन्निर्माणयज्ञ में (याम्) जिसे (प्रथमाम् आहुतिम्) प्रथम आहुतिरूप (अकृणोत्) किया, और (याः याः जाताः) जिन-जिन नवजात आहुतियों को [उत्तरोत्तर तत्त्वों के उत्पादन में] उसने (हव्यम्) हविरूप (अकृणोत्) किया, (ताम्) तत्सदृश (एताम्) इस निज आहुति को, (प्रथमः) सर्वप्रथम मैं (ते) हे परमेश्वर! आपके प्रति (जोहवीमि) समर्पित करता हूँ। (स्तुप्तः) त्रिपाद-रूप में जगद्रचना से ऊपर उठा हुआ (अग्निः) जगत् का अग्रणी परमेश्वर (ताभिः) उन मेरी आहुतियों द्वारा प्रसन्न होकर (हव्यम्) मेरी हवि को (वहतु) प्राप्त करे, स्वीकार करे। (अग्नये) जगदग्रणी के प्रति (स्वाहा) मैं आहुतियाँ समर्पित करता हूँ।
टिप्पणी
[अथर्वाः= थर्वतिश्चरतिकर्मा, तत्प्रतिषेधः (निरु० ११.२.१९)। जातवेदाः= जातविद्यो वा जातप्रज्ञानः (निरु० ७.५.१९)। स्तुप्तः=ष्टुप् उच्छ्राये (Raised; lifted up)। यथा— “त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुषः पादोऽस्येहाभवत् पुनः१" (यजुः० ४०.४) अग्निः अग्रणीर्भवति (निरु० ७.४.१४)। आहुतिः= मन्त्र में इसका अभिप्राय है—“आकूतिः”, जैसा कि इस सूक्त के अगले मन्त्रों में वर्णन है। आकूति= शुभ दृढ़-संकल्प। महाप्रलयानन्तर, सृष्ट्यारम्भ में, प्रथम ईश्वर ने ईक्षण किया। तद् ऐक्षत बहु स्यां प्रजायेति, तत्तेजोऽसृजत। तत्तेज ऐक्षत बहुस्यां प्रजायेयेति, तदपोऽसृजत। ता आप ऐक्षन्त बह्व्य। स्याम प्रजायेमहीति, ता अन्नमसृजन्त (छा० उप० ६.२.३-४)। इस खण्ड में “ऐक्षत” पद का प्रयोग ३ वार हुआ है। ३ तत्त्वों के सर्जन में, अर्थात् तेजः आपः और अन्नम् इनके सर्जन में। सृष्टिक्रम में उत्तरोत्तर तत्त्वों के सर्जन में तीन वार “ईक्षण” का वर्णन हुआ है। प्रत्येक नव-तत्त्व के उत्पादन काल में परमेश्वर द्वारा “ईक्षण” दर्शाया है। उपनिषदों में सृष्ट्युत्पादन काल में “अकामयत” शब्द का तो प्रयोग हुआ है। ईक्षण के साथ “स्याम” शब्द का प्रयोग हुआ है, जो कि सृष्ट्युत्पादन में “परमेश्वरीय-इच्छा" का द्योतक है। अतः इक्षणे, स्याम, अकामयत शब्द निरीक्षण और इच्छा को प्रकट करते है। इस प्रबल इच्छा को ही मन्त्रों में आकूति तथा आहुति शब्दों द्वारा निर्दिष्ट किया गया है। प्रत्येक नवीन-तत्त्व के सर्जन के प्रारम्भ में परमेश्वर द्वारा किया गया “ईक्षण” तथा इच्छा आहुति रूप हैं। आकूतिः wish, desire (आप्टे)।] [१. निर्माण कार्य में “ईक्षण" गौण कारण है, और इच्छा मुख्य कारण है। इसलिये इच्छा(आकूति) को प्रथमा-आहुति कहा है।]
इंग्लिश (4)
Subject
Akuti
Meaning
The first oblation into the creative yajna, i.e., thought and intention, which Atharva, the unmoved mover, Jataveda, self-manifested into self-awareness, made, and the first fragrance that arose and produced further creative materials of creation, that very first oblation of thought and intention, I too make, O leading light of creation, Agni, and I pray that, thereby adored and moved, lead my self-creative yajna and carry my offerings to the first and ultimate yajamana. With this homage, honour and salutations to Agni.
Subject
To Various divinities
Translation
What first offering the fire-inventor (Atharvan) made, which was born and which the cognizant of all beings (Jàtavedas) made an sacrificial oblation, that (oblation) I offer to you first; praised by them, may the fire divine carry the oblation I dedicate it to the adorable Lord.
Translation
The fire which is present in all the produced objects bears the oblation being praised by those-which as an important expression and diction the Lored of the universe creates, which is obvious in its excellence and which accomplished the performance of Yajna and that of which I, the disseminator of Yajna take into action and practice. Whatever is uttered here is concerned with Agni.
Translation
The very first Instructive Voice, that was manifested by the Revealer of Vedas, the Protector of the people or which revealed itself and by which the creator made this comprehensible universe known to men. I offer this very Vedic Lore to thee. Being praised by those Vedic hymns, may the Illuminating God sustain this world worthy to be known and made the right use of. Our hearty prayers are to the same Effulgent God.
Footnote
The verse is very clear about the Vedas being the first revelation by God in the very beginning of the creation.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(याम्) (आहुतिम्) हु दानादानादनेषु−क्तिन्। समन्ताद् दातव्यग्राह्यक्रियाम्। संकल्पशक्तिम्। आकूतिम्-म० २। (प्रथमाम्) सृष्ट्यादौ वर्तमानाम् (अथर्वा) अ० ४।१।७। अथर्वाणोऽथर्वन्तस्थर्वतिश्चरतिकर्मा तत्प्रतिषेधः-निरु० ११।१८। नञ्+थर्व चरणे−वनिप्। निश्चलः परमात्मा (या) सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। इति द्वितीयायाः सुः। याम् (जाता) चतुर्थ्याः सुः। जाताभ्यः प्रजाभ्यः (या) या गतिप्रापणयोः-ड। द्वितीयायाः सुः। यां प्राप्तव्याम् (हव्यम्) दातव्यग्राह्यवस्तु (अकृणोत्) अकरोत् (जातवेदाः) जातानामुत्पन्नानां वेत्ता ज्ञाता परमेश्वरः (ताम्) तादृशीम् (ते) तुभ्यम् (एताम्) आहुतिम् (प्रथमः) मुख्यो विद्वान् अहम् (जोहवीमि) जुहोतेर्यङ्लुकि रूपम्। वारम्वारं जुहोमि ददामि (ताभिः) जाताभिः प्रजाभिः (स्तुप्तः) ष्टुप उच्छ्राये-क्त। राशीकृतः। हृदये समाहितः (वहतु) प्रापयतु (हव्यम्) दातव्यग्राह्यपदार्थम् (अग्निः) ज्ञानमयः परमात्मा (अग्नये) ज्ञानवते पुरुषाय (स्वाहा) सुवाण्या ॥
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