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अथर्ववेद के काण्ड - 19 के सूक्त 41 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 41/ मन्त्र 1
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - तपः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - राष्ट्रबल सूक्त
    5

    भ॒द्रमि॒च्छन्त॒ ऋष॑यः स्व॒र्विद॒स्तपो॑ दी॒क्षामु॑प॒निषे॑दु॒रग्रे॑। ततो॑ रा॒ष्ट्रं बल॒मोज॑श्च जा॒तं तद॑स्मै दे॒वा उ॑प॒संन॑मन्तु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    भ॒द्रम्। इ॒च्छन्तः॑। ऋष॑यः। स्वः॒ऽविदः॑। तपः॑। दी॒क्षाम्। उ॒प॒ऽनिसेदुः॑। अग्रे॑। ततः॑। रा॒ष्ट्र॒म्। बल॑म्। ओजः॑। च॒। जा॒तम्। तत्। अ॒स्मै॒। दे॒वाः। उ॒प॒ऽसंन॑मन्तु ॥४१.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    भद्रमिच्छन्त ऋषयः स्वर्विदस्तपो दीक्षामुपनिषेदुरग्रे। ततो राष्ट्रं बलमोजश्च जातं तदस्मै देवा उपसंनमन्तु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    भद्रम्। इच्छन्तः। ऋषयः। स्वःऽविदः। तपः। दीक्षाम्। उपऽनिसेदुः। अग्रे। ततः। राष्ट्रम्। बलम्। ओजः। च। जातम्। तत्। अस्मै। देवाः। उपऽसंनमन्तु ॥४१.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 41; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    कल्याण की प्राप्ति का उपदेश।

    पदार्थ

    (भद्रम्) कल्याण [श्रेष्ठ वस्तु] (इच्छन्तः) चाहते हुए, (स्वर्विदः) सुख को प्राप्त होनेवाले (ऋषयः) ऋषियों [वेदार्थ जाननेवालों] ने (तपः) तप [ब्रह्मचर्य अर्थात् वेदाध्ययन जितेन्द्रियतादि] और (दीक्षाम्) दीक्षा [नियम और व्रत की शिक्षा] का (अग्रे) पहिले (उपनिषेदुः) अनुष्ठान किया है। (ततः) उससे (राष्ट्रम्) राज्य, (बलम्) बल [सामर्थ्य] (च) और (ओजः) पराक्रम (जातम्) सिद्ध हुआ है, (तत्) उस [कल्याण] को (अस्मै) इस पुरुष के लिये (देवाः) विद्वान् लोग (उपसंनमन्तु) झुका देवें ॥१॥

    भावार्थ

    विद्वान् लोगों ने पराक्रम से पहिले वेदाध्ययन, जितेन्द्रियता आदि तप का अभ्यास करके महासुख पाया है, इसलिये ऋषि लोग प्रयत्न करें कि सब मनुष्य विद्वान् होकर महासुख को प्राप्त होवें ॥१॥

    टिप्पणी

    यह मन्त्र महर्षिदयानन्दकृत संस्कारविधि, वानप्रस्थाश्रम तथा संन्यासाश्रमप्रकरण में व्याख्यात है ॥१−(भद्रम्) कल्याणम् (इच्छन्तः) कामयमानाः (ऋषयः) वेदार्थज्ञानिनः (स्वर्विदः) सुखं लभमानाः (तपः) ब्रह्मचर्यादितपश्चरणम् (दीक्षाम्) नियमव्रतयोः शिक्षाम् (उपनिषेदुः) षद्लृ गतौ-लिट्। अनुष्ठितवन्तः। सेवितवन्तः (अग्रे) आदौ (ततः) तस्मात् कारणात् (राष्ट्रम्) राज्यम् (बलम्) सामर्थ्यम् (ओजः) पराक्रमः (च) (जातम्) निष्पन्नम् (तत्) भद्रम् (अस्मै) पुरुषाय (देवाः) विद्वांसः (उपसंनमन्तु) आदरेण नमयन्तु। प्रापयन्तु ॥

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    भाषार्थ

    (भ्रदम्) प्रजा का सुख और कल्याण (इच्छन्तः) चाहते हुए, (स्वर्विदः) स्वर्गीय सुख को प्राप्त (ऋषयः) ऋषियों ने, (अग्रे) प्रथम (तपः) तप और (दीक्षाम्) व्रतों का (उपनिषेदुः) अनुष्ठान किया। (ततः) तत्पश्चात् (राष्ट्रम्) राष्ट्रभावना, (बलम् ओजः च) और राष्ट्रिय बल और ओज (जातम्) प्रकट हुआ, (तद्) इसलिये (अस्मै) इस राष्ट्रभावना और राष्ट्रिय बल तथा ओज की पूर्ति के प्रति (देवाः) राष्ट्र के दिव्यनेता (उपसंनमन्तु) परस्पर मिल कर श्रद्धापूर्वक झुके रहें।

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    विषय

    तप और दीक्षा

    शब्दार्थ

    (भद्रम् इच्छन्तः) कल्याण चाहनेवाले (स्वर्विदः) आत्मसुख की अनुभूतिवाले (ऋषय:) ऋषि लोग (अग्रे) सबसे पहले (तपः दीक्षाम्) तप और दीक्षा को (उप निषेदुः) प्राप्त करते हैं (ततः) उस तप और दीक्षा से (राष्ट्रम्) राष्ट्र में (बलम्) भौतिक बल तथा (ओज:) आत्मिक बल (जातम्) उत्पन्न होता है । (तत् अस्मै) तब ऐसे राष्ट्र के लिए (देवा:) विद्वान् लोग (उप सं नमन्तु) झुकते रहें, आदर करते रहें ।

    भावार्थ

    संसार का कल्याण चाहनेवाले आत्मदर्शी और ऋषि लोग राष्ट्र को उन्नत बनाने के लिए सबसे पूर्व तप और दीक्षा का अवलम्बन लेते हैं । तप क्या है ? अपने कर्त्तव्य कर्म को करते हुए जो बाधाएँ, संकट और कष्ट आएँ, उन्हें झेलते हुए आगे-ही-आगे बढ़ना । दीक्षा का अर्थ है जिस कार्य को सोच-समझकर आरम्भ कर दिया उसकी पूर्ति में सिर-धड़ की बाज़ी लगा देना । तप और दीक्षा से राष्ट्र चमक उठता है । यह भौतिक सम्पदाओं से पूर्ण हो जाता है । वहाँ के निवासियों में आत्मिक बल और तेज आ जाता है । जो व्यक्ति राष्ट्र के लिए जीता है, राष्ट्र के लिए प्राणों को भी बलिदान करने के लिए तैयार रहता है उसका सभी मान और सम्मान करते हैं, बड़े-बड़े व्यक्ति भी उसके पास खिंचे चले आते हैं, दिव्य गुण उसके जीवन में निवास करने लगते हैं ।

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    विषय

    तप और दीक्षा से 'राष्ट्र, बल व ओज' की उत्पत्ति

    पदार्थ

    १. (भद्रम् इच्छन्त:) = कल्याण चाहते हुए (ऋषयः) = तत्त्वद्रष्टा पुरुषों ने (स्वर्विदः) = प्रकाश को प्राप्त करते हुए (अग्रे) = सर्वप्रथम (तपः दीक्षाम् उपनिषेदुः) = तप और दीक्षा को प्राप्त किया। २. (ततः) = उस तप और दीक्षा से ही (राष्ट्रम्) = उत्तम राष्ट्र (बलम्) = बल (च) = और (ओज:) = ओजस्विता (जातम्) = उत्पन्न हुई। २. (देवा:) = 'माता, पिता, आचार्य' आदि देव (अस्मै) = इस युवक सन्तान के लिए भी (ततः) = उस तप और दीक्षा को तथा तप और दीक्षा के द्वारा 'राष्ट्र बल व ओज' को (उपसंनमन्तु) = प्राप्त कराएँ।

    भावार्थ

    जीवन में तप व दीक्षा के धारण से ही उत्तम राष्ट्र, बल व ओज की उत्पत्ति होती है। जिस राष्ट्र में युवक तप व दीक्षावाले होंगे, वही राष्ट्र उत्तम बनता है।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Rashtra and Strength

    Meaning

    Wishing for peace, collective progress and all round well being of humanity, the seers who realised divine bliss first dedicated themselves to austere discipline and commitment to basic and universal personal, social and divine values. Thence arose Rashtra, the social order, strength, lustre and splendour. To that same discipline and commitment should all noble people submit and commit themselves, to the basic laws and values of the social order, the Rashtra.

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    Subject

    Tapa

    Translation

    Desirous of weal, attainers of light, the seers began austerity and consecration in ancient times. Therefrom the kingdom, strength and vigour was born. May the bounties of Nature bring all that under control of this person.

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    Translation

    May the twain of teacher and preacher give us that intellect which is refulgent with splendor and which make us cross over the great darkness.

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    Translation

    In the very beginning of the creation, the well-enlightened sages, wishing well of the world, worship the Almighty Father with austerity and initiation. From thence is born the nation, with vigor and energy. Then all the learned people bow to it, i.e., such a powerful and vigorous nation.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    यह मन्त्र महर्षिदयानन्दकृत संस्कारविधि, वानप्रस्थाश्रम तथा संन्यासाश्रमप्रकरण में व्याख्यात है ॥१−(भद्रम्) कल्याणम् (इच्छन्तः) कामयमानाः (ऋषयः) वेदार्थज्ञानिनः (स्वर्विदः) सुखं लभमानाः (तपः) ब्रह्मचर्यादितपश्चरणम् (दीक्षाम्) नियमव्रतयोः शिक्षाम् (उपनिषेदुः) षद्लृ गतौ-लिट्। अनुष्ठितवन्तः। सेवितवन्तः (अग्रे) आदौ (ततः) तस्मात् कारणात् (राष्ट्रम्) राज्यम् (बलम्) सामर्थ्यम् (ओजः) पराक्रमः (च) (जातम्) निष्पन्नम् (तत्) भद्रम् (अस्मै) पुरुषाय (देवाः) विद्वांसः (उपसंनमन्तु) आदरेण नमयन्तु। प्रापयन्तु ॥

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