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अथर्ववेद के काण्ड - 19 के सूक्त 44 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 44/ मन्त्र 1
    ऋषिः - भृगु देवता - आञ्जनम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - भैषज्य सूक्त
    2

    आयु॑षोऽसि प्र॒तर॑णं॒ विप्रं॑ भेष॒जमु॑च्यसे। तदा॑ञ्जन॒ त्वं श॑न्ताते॒ शमापो॒ अभ॑यं कृतम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आयु॑षः। अ॒सि॒। प्र॒ऽतर॑णम्। विप्र॑म्। भे॒ष॒जम्। उ॒च्य॒से॒। तत्। आ॒ऽअ॒ञ्ज॒न॒। त्वम्। श॒म्ऽता॒ते॒। शम्। आपः॑। अभ॑यम्। कृ॒त॒म् ॥४४.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आयुषोऽसि प्रतरणं विप्रं भेषजमुच्यसे। तदाञ्जन त्वं शन्ताते शमापो अभयं कृतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आयुषः। असि। प्रऽतरणम्। विप्रम्। भेषजम्। उच्यसे। तत्। आऽअञ्जन। त्वम्। शम्ऽताते। शम्। आपः। अभयम्। कृतम् ॥४४.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 44; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (3)

    विषय

    ब्रह्म की उपासना का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे ब्रह्म !] तू (आयुषः) जीवन का (प्रतरणम्) बढ़ानेवाला (असि) है, तू (विप्रम्) परिपूर्ण (भेषजम्) औषध (उच्यसे) कहा जाता है। (तत्) सो, (शन्ताते) हे शान्तिकारक ! (आञ्जन) आञ्जन [संसार प्रकट करनेवाले ब्रह्म], (त्वम्) तू (आपः) हे सुकर्म ! [तुम दोनों] (शम्) शान्ति और (अभयम्) अभय (कृतम्) करो ॥१॥

    भावार्थ

    जो प्राणी परमात्मा के नियम पर चलकर सुकर्म करते हैं, वे सदा सुखी और निर्भय रहते हैं ॥१॥

    टिप्पणी

    इस सूक्त का मिलान करो-अ०४।९॥ आञ्जन शब्द का अर्थ लेप औषध भी है ॥१−(आयुषः) जीवनस्य (असि) (प्रतरणम्) प्रवर्धकम् (विप्रम्) वि+प्रा पूरणे-क। परिपूर्णम् (भेषजम्) औषधम् (उच्यसे) कथ्यसे (तत्) तस्मात् कारणात् (आञ्जन) अ०४।९।३। आङ्+अञ्जू व्यक्तिम्रक्षणकान्तिगतिषु-ल्युट्। हे यथावत् संसारस्य व्यक्तिकारक ब्रह्म। हे प्रलेप (त्वम्) (शन्ताते) अ०४।१३।५। शिवशमरिष्टस्य करे। पा०४।४।१४३। तातिल्-प्रत्ययः करणेऽर्थे। हे शान्तिकारक (शम्) शान्तिम् (आपः) आपः कर्माख्यायां ह्रस्वो नुट् च वा। उ०४।२०८। आप्लृ व्याप्तौ-असुन्। हे सुकर्म (अभयम्) भयराहित्यम् (कृतम्) कुरुतं युवाम् ॥

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    भाषार्थ

    हे ब्रह्म! आप (आयुषः) आयु के (प्रतरणम्) बढ़ानेवाले (असि) हैं। (विप्रम्) मेधावी हैं, (भेषजम्) सर्वरोगों की चिकित्सा करनेवाले महौषध रूप (उच्यसे) कहे जाते हैं। (तत्) अतः (शन्ताते) शान्तिविस्तारक, (आञ्जन) तथा जगत् को व्यक्त करनेवाले हे परमेश्वर! (त्वम्) आप और (आपः) हे मेरे प्राणो! तुम दोनों, (शम्) मेरे उपस्थित रोगों की शान्ति, तथा मुझे (अभयम्) भावी रोगों से निर्भय (कृतम्) कीजिए।

    टिप्पणी

    [आञ्जन= आञ्जन का अर्थ यहां है—अभिव्यक्ति करनेवाला, तथा कान्ति पैदा करनेवाला। अञ्ज्=व्यक्ति, कान्ति। परमेश्वर आञ्जन है, क्योंकि वह जगत् को व्यक्त करता, और उसे कान्तिसम्पन्न करता है। इसी प्रकार सुरमा (Antimony) भी आञ्जन है, क्योंकि वह आंखों में अभिव्यक्ति तथा कान्ति पैदा करता है। इसलिए आञ्जन को “अक्ष्यम्” (अथर्व० ४.९.१) कहा है। अक्ष्यम् का अर्थ है—“आंखों के लिए हितकर”। आञ्जन अर्थात् सुरमा शरीर के अन्य रोगों को भी दूर करके, शरीर के स्वास्थ्य को अभिव्यक्त करके, शरीर में कान्ति पैदा करता है। इसलिए इस सूक्त में परमेश्वर और सुरमा, इन दोनों का वर्णन हुआ है। विप्रम्=विप्रः मेधावीनाम (निघं० ३.१५)। भेषजम्=परमेश्वर। यथा “भेषजमसि भेषजं गवेऽश्वाय पुरुषाय भेषजम्। सुखं मेषाय मेष्यै॥” (यजुः० ३.५९)। इस मन्त्र के अर्थ में महर्षि दयानन्द ने भेषज पद द्वारा परमेश्वर को “भेषज” कहा है, अर्थात् रोगनिवारक कहा है। आपः= प्राणाः। यथा—“आपः आपनानि षडिन्द्रियाणि विद्या सप्तमी” (निरु० १२.४.३७)। तथा—आञ्जन अर्थात् सुरमा आयु को बढ़ाता; विप्रम्=अर्थात् शरीर की क्षति को पूर्ण करता (वि+प्रा पूरणे); प्राप्त रोगों को शमन तथा अनागत रोगों के आक्रमण को न होने देने के कारण निर्भय बनाता है।]

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    विषय

    शम् अभयम्

    पदार्थ

    १. गत सूक्त के मन्त्रों के अनुसार 'दीक्षा व तप' में चलनेवाले व्यक्ति शरीर में शक्ति का रक्षण कर पाते हैं। यह वीर्यशक्ति ही यहाँ'आञ्जन' शब्द से कही गई है। [आ अंज-togo. to shine, to decorate] यह शरीर में चारों ओर गतिबाला होता है, शरीर में यही सर्वाधिक शोभावाली धातु है, शरीर में सुरक्षित होकर यह शरीर को 'शक्ति, पवित्रता व दीसि' से अलंकृत करती है। हे (आञ्जन) = वीर्यमणे! तू (आयुषः प्रतरणम् असि) = आयु का बढ़ानेवाला है। विप्रम् विशेषरूप से हमारा पूरण करनेवाला है। (भेषजम् उच्यसे) = सब रोगों को दूर करने से तू औषध कहलाता है। २. (तत्) = अत: हे शंताते शरीर में रोगविनाश द्वारा शान्ति का विस्तार करनेवाले [आप् व्याप्ती] वीर्यकणों [आप:रेतो भूत्वा०] आपके द्वारा (अभयम्) = निर्भयता (कृतम्) = की गई है। शरीर मंक वीर्यकणों के व्यास होने पर रोगों का भय नहीं रहता।

    भावार्थ

    शरीर में सुरक्षित वीर्य आयु को बढ़ाता है, कमियों को दूर करता है, सब रोगों का औषध है। शान्ति और अभय को प्राप्त कराता है।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Bhaishajyam

    Meaning

    Anjana, beauteous sanctifier, you are the promoter of life with health and longevity. You are called the sure and vibrant universal cure (of ailment and ignorance). Therefore, O Anjana, harbinger of peace and fulfilment, alleviate my worry and suffering, bring us peace and comfort. O Apah, pranic energies and potential for action, give us freedom from fear. (‘Anjana’ is derived from the root ‘Anj’ which means ‘to anoint, to beautify, to beatify, to express and reveal. ’ In this context, it can be interpreted as collyrium which beautifies the eyes, and also as the Supreme Spirit of the universe which beatifies life’s beauty and reveals the same in human form and consciousness.)

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    Subject

    Anjanam : ointment against disease

    Translation

    You are the lengthener of life-span: you are said to be an allcure medicine. So, O ointment, augmenter of happiness, may you and the waters give us relief and freedom from fear.

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    Translation

    Let Brahman, the chief-priest of Yajna and the master of four Vedas give me Knowledge and lead me to that stats which the men knowing God and endowed with austerity and observe of vow, occupy. My homage to Brahman.

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    Translation

    O Anjana thou art the prolonger of life. Thou art called a wise physician, capable of removing various diseases. Latest such Thou be for peace and happiness. Let waters be peaceful and free from danger of all sorts.

    Footnote

    Anjana: the antimony or any ointment for the eyes, the body as well, having various properties to remove other fell diseases like jaundice, constipation, Eczema and aches, etc. It is for the physicians to discover it.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    इस सूक्त का मिलान करो-अ०४।९॥ आञ्जन शब्द का अर्थ लेप औषध भी है ॥१−(आयुषः) जीवनस्य (असि) (प्रतरणम्) प्रवर्धकम् (विप्रम्) वि+प्रा पूरणे-क। परिपूर्णम् (भेषजम्) औषधम् (उच्यसे) कथ्यसे (तत्) तस्मात् कारणात् (आञ्जन) अ०४।९।३। आङ्+अञ्जू व्यक्तिम्रक्षणकान्तिगतिषु-ल्युट्। हे यथावत् संसारस्य व्यक्तिकारक ब्रह्म। हे प्रलेप (त्वम्) (शन्ताते) अ०४।१३।५। शिवशमरिष्टस्य करे। पा०४।४।१४३। तातिल्-प्रत्ययः करणेऽर्थे। हे शान्तिकारक (शम्) शान्तिम् (आपः) आपः कर्माख्यायां ह्रस्वो नुट् च वा। उ०४।२०८। आप्लृ व्याप्तौ-असुन्। हे सुकर्म (अभयम्) भयराहित्यम् (कृतम्) कुरुतं युवाम् ॥

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