अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 46/ मन्त्र 1
ऋषिः - प्रजापतिः
देवता - अस्तृतमणिः
छन्दः - पञ्चपदा मध्येज्योतिष्मती त्रिष्टुप्
सूक्तम् - अस्तृतमणि सूक्त
1
प्र॒जाप॑तिष्ट्वा बध्नात्प्रथ॒ममस्तृ॑तं वी॒र्याय॒ कम्। तत्ते॑ बध्ना॒म्यायु॑षे॒ वर्च॑स॒ ओज॑से च॒ बला॑य॒ चास्तृ॑तस्त्वा॒भि र॑क्षतु ॥
स्वर सहित पद पाठप्र॒जाऽप॑तिः। त्वा॒। ब॒ध्ना॒त्। प्र॒थ॒मम्। अस्तृ॑तम्। वी॒र्या᳡णि। कम्। तत्। ते॒। ब॒ध्ना॒मि॒। आयु॑षे। वर्च॑से। ओज॑से। च॒। बला॑य। च॒। अस्तृ॑तः। त्वा॒। अ॒भि। र॒क्ष॒तु॒ ॥४६.१॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रजापतिष्ट्वा बध्नात्प्रथममस्तृतं वीर्याय कम्। तत्ते बध्नाम्यायुषे वर्चस ओजसे च बलाय चास्तृतस्त्वाभि रक्षतु ॥
स्वर रहित पद पाठप्रजाऽपतिः। त्वा। बध्नात्। प्रथमम्। अस्तृतम्। वीर्याणि। कम्। तत्। ते। बध्नामि। आयुषे। वर्चसे। ओजसे। च। बलाय। च। अस्तृतः। त्वा। अभि। रक्षतु ॥४६.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
विजय की प्राप्ति का उपदेश।
पदार्थ
[हे मनुष्य !] (त्वा=तुभ्यम्) तेरे लिये (प्रजापतिः) प्रजापति [प्रजापालक परमेश्वर] ने (प्रथमम्) पहिले से (अस्तृतम्) अटूट [नियम] को (वीर्याय) वीरता के लिये और (कम्) सुख के लिये (बध्नात्) बाँधा है। (तत्) इसलिये [उस नियम को] (ते) तेरे (आयुषे) जीवन के लिये, (वर्चसे) प्रताप के लिये, (ओजसे) पराक्रम के लिये, (च च) और (बलाय) बल [सामर्थ्य] के लिये (बध्नामि) मैं [आचार्यादि] बाँधता हूँ, (अस्तृतः) अटूट [नियम] (त्वा) तेरी (अभि) सब ओर से (रक्षतु) रक्षा करे ॥१॥
भावार्थ
परमात्मा ने सृष्टि के आदि में मनुष्यादि के पुरुषार्थ करने और सुख भोगने के लिये वेद-शास्त्र द्वारा नियम ठहराये हैं। मनुष्य उन नियमों में सुशिक्षित होकर अपना ऐश्वर्य बढ़ावें ॥१॥
टिप्पणी
१−(प्रजापतिः) प्रजानां पालकः परमात्मा (त्वा) तुभ्यमित्यर्थः (बध्नात्) अबध्नात्। धारितवान् (प्रथमम्) सृष्ट्यादौ (अस्तृतम्) स्तृञ् हिंसायाम्-क्त। अबाधितं सुदृढं नियमम् (वीर्याय) वीरकर्मणे (कम्) सुखाय (तत्) तस्मात् कारणात् (ते) तुभ्यम् (बध्नामि) धारयामि (आयुषे) जीवनाय (वर्चसे) प्रतापाय (ओजसे) पराक्रमाय (च) (बलाय) सामर्थ्याय (च) (अस्तृतः) अबाधितो नियमः (अभि) सर्वतः (रक्षतु) पालयतु ॥
भाषार्थ
(प्रजापतिः) प्रजाओं का पति राजा (वीर्याय) सशक्त होने के लिए (प्रथमम्) सर्वमुखिया, (अस्तृतम्) अपराजित, (कम्) सुखदायी (त्वा) आप महाराज को (बध्नात्) राजनैतिक सन्धि में अपने साथ बांधे। हे राजन्! (ते) तेरी (आयुषे) दीर्घ आयु के लिए, (वर्चसे) तेरी दीप्ति बनाए रखने के लिए, (च) और (ओजसे) पराक्रम के लिए, (च) और (बलाय) सैनिक बल के लिए, (तत्=तम्) उस अपराजित महाराज को तेरे साथ (बध्नामि) मैं राजनैतिक सन्धि में बांधता हूँ। (अस्तृतः) अपराजित महाराज (त्वा) तेरी (अभि रक्षतु) सब प्रकार से रक्षा करे।
टिप्पणी
[मन्त्र में तीन का वर्णन प्रतीत होता है। प्रजापति का, अस्तृत का और बांधने वाले का। प्रजापति माण्डलिक राजा प्रतीत होता है। प्रजापति के राज्य में दो शासन संस्थाएं होती है—सभा और समिति। सभा तो—लोकसभा है, और समिति है—राजसभा, अर्थात् मुख्य-मुख्य प्रभावशाली व्यक्तियों की सभा। यथा—“सभा च मा समितिश्चावतां प्रजापतेर्दुहिरौ संविदाने। येना संगच्छा उप मा स शिक्षाच्चारु वदानि पितरः संगतेषु”॥ (अथर्व० ७.१२.१)। समिति राज्यसभा है। यथा—“राजानः समिताविव” (यजुः० १२.८०)। अस्तृतम=अपराजित; युद्ध में जिसकी हिंसा या जिसका पराजय नहीं हुआ। अस्तृतम्=अ+स्तृ (स्पृणाति वधकर्मा, निघं० २.१९)+क्त। यथा—“शास इत्था महाँ अस्यमित्रसाहो अस्तृतः। न यस्य हन्यते सखा न जीयते कदा चन”॥ (अथर्व० १.२०.४) में “अस्तृत” को “महान् शासः” अर्थात् महाशासक कहा है। तथा यह कहा है कि इसका सखा न तो मारा जाता है, न कभी पराजित होता है। यह अमित्रों का पराभव करता है। इसलिए ऐसे महाराजा के साथ राजनैतिक सन्धि में, माण्डलिक राजाओं का बन्धना आवश्यक हो जाता है। वर्तमान समय में भी आत्मरक्षार्थ राज्यों में पारस्परिक राजनैतिक सन्धियाँ होती है। राजनैतिक सन्धि करानेवाला तीसरा व्यक्ति है, जो कि माण्डलिक या महाशासक का राजदूत है।]
विषय
अस्तृत मणि
पदार्थ
१. (प्रजापतिः) = प्रभु ने (प्रथमम्) = सर्वप्रथम (अस्तृतम् त्वा) = 'अस्तृत' भागवाले तुझे (बध्नात्) = शरीर में बद्ध किया। (वीर्याय) = पराक्रम के सम्पादन के लिए तथा (कम्) = सुख के लिए। शरीर में यह वीर्य ही अस्तृतमणि है-'अस्तृत' अर्थात् अहिंसित [स्तु to kill]| वीर्य के सुरक्षित होने पर रोगों व असद् भावनाओं का आक्रमण नहीं होता। २. (तत्) = उस (ते) = तेरी अस्तृतमणि को ही मैं (बध्नामि) = अपने अन्दर बौधता है, (आयुषे) = दीर्घजीवन के लिए (वर्चस) = श्रुताध्ययन से उत्पन्न तेज के लिए (च) = और (ओजसे) = ओजस्विता के लिए (बलाय च) = तथा बल के लिए। प्रभु कहते हैं कि अस्तृतः यह अस्तृतमणि (त्वा अभिरक्षतु) = तेरा 'शरीर व मन' दोनों क्षेत्रों में रक्षण करे यह तुझे आधि-व्याधियों से बचाए।
भावार्थ
शरीर में बद्ध अस्तृत-[वीर्य]-मणि हमें 'दीर्घजीवन, वर्चस्, ओजस्विता व बल' प्रदान करती है।
इंग्लिश (4)
Subject
Astrta Mani
Meaning
Prajapati, father sustainer of the people, first bound the auspicious Astrta on you for the sake of manly vigour, heroic valour and unfailing strength and power. That I bind on you for the sake of good health and full age, honour and lustre, and unconquerable strength and heroism. And may this unsubdued Astrta mani protect you all round. (Astrta means something unsubdued and unconquerable. Whitney interprets it as an amulet; Vishvanatha Vidyalankara interprets as a bond of agreement between a regional ruler and a super world ruler, Prajapati, the bond being inviolable and all protective; Kshemakaranadasa Trivedi interprets it as the divine law and moral discipline of Prajapati, of which the Yajnopavita, the sacred thread, may be regarded as one symbolic example. The meaning seems open ended and general, depending on the context: in the context of governance, it could be a bond of agreement, in the psychic context, it could be a symbolic amulet, in the religious context it could be the sacred thread, and so on. In Swami Dayananda’s view, ‘Astrta’ means non-violent, friendly inviolable (Rgveda, 1. 41, 6 and 1,15,5). The parties in the mantras are three: Prajapati, the Supreme Lord in whose dispensation Astrta wields inviolable force and power, the man who is the beneficiary, and the guru who vests the man with Astrta.)
Subject
Astrtamani : unsubdued blessing
Translation
The Lord of creatures, in the beginning, bound you, the delightful astrta (unsubdued) blessing, for performing heroic deeds. That very (blessing) I bind on you for a long life, for lustre, for vigour and for strength, may the unsubdued protect you all around.
Translation
O Man, Prajapatih the master of house-hold binds on you, this invincible stone at first for the attainment of might and vigour. I the physician bind on you for long life, splendour, energy and strength. Let this invincible one protect you.
Translation
The protector of the subjects appoints thee alone, the invincible for brave acts. So, O king, I (i.e., Prohita) employ him under you for long life, glory, energy and power. Let the invincible person protect thee in every way.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(प्रजापतिः) प्रजानां पालकः परमात्मा (त्वा) तुभ्यमित्यर्थः (बध्नात्) अबध्नात्। धारितवान् (प्रथमम्) सृष्ट्यादौ (अस्तृतम्) स्तृञ् हिंसायाम्-क्त। अबाधितं सुदृढं नियमम् (वीर्याय) वीरकर्मणे (कम्) सुखाय (तत्) तस्मात् कारणात् (ते) तुभ्यम् (बध्नामि) धारयामि (आयुषे) जीवनाय (वर्चसे) प्रतापाय (ओजसे) पराक्रमाय (च) (बलाय) सामर्थ्याय (च) (अस्तृतः) अबाधितो नियमः (अभि) सर्वतः (रक्षतु) पालयतु ॥
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