Loading...
अथर्ववेद के काण्ड - 19 के सूक्त 5 के मन्त्र
मन्त्र चुनें
  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 1
    ऋषिः - अथर्वाङ्गिराः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - जगद् राजा सूक्त
    1

    इन्द्रो॒ राजा॒ जग॑तश्चर्षणी॒नामधि॑ क्षमि॒ विषु॑रूपं॒ यद॑स्ति। ततो॑ ददाति दा॒शुषे॒ वसू॑नि॒ चोद॒द्राध॒ उप॑स्तुतश्चिद॒र्वाक् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्रः॑। राजा॑। जग॑तः। च॒र्ष॒णी॒नाम्। अधि॑। क्षमि॑। विषु॑ऽरूपम्। यत्। अस्ति॑। ततः॑। द॒दा॒ति॒। दा॒शुषे॑। वसू॑नि। चोद॑त्। राधः॑। उप॑ऽस्तुतः। चि॒त्। अ॒र्वाक् ॥५.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रो राजा जगतश्चर्षणीनामधि क्षमि विषुरूपं यदस्ति। ततो ददाति दाशुषे वसूनि चोदद्राध उपस्तुतश्चिदर्वाक् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रः। राजा। जगतः। चर्षणीनाम्। अधि। क्षमि। विषुऽरूपम्। यत्। अस्ति। ततः। ददाति। दाशुषे। वसूनि। चोदत्। राधः। उपऽस्तुतः। चित्। अर्वाक् ॥५.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 5; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    राजा के लक्षणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (इन्द्रः) परम ऐश्वर्यवान् पुरुष (जगतः) जगत् के बीच (चर्षणीनाम्) मनुष्यों का, और (यत्) जो कुछ (अधि क्षमि) पृथिवी पर (विषुरूपम्) नाना रूप [धन आदि] (अस्ति) है, [उस का भी] (राजा) राजा है। (ततः) इसी कारण से वह (दाशुषे) दाता [आत्मदानी राजभक्त] के लिये (वसूनि) धनों को (ददाति) देता है, [तभी] (उपस्तुतः) समीप से प्रशंसित होकर (चित्) अवश्य (राधः) धन को (अर्वाक्) सन्मुख (चोदत्) प्रवृत्त करे [बढ़ावे] ॥१॥

    भावार्थ

    जो राजा अपनी प्रजा की और उसकी सब सम्पत्ति की सुधि रखकर रक्षा करे, और योग्य राजभक्तों का यथोचित धन आदि से सत्कार करे, वही प्रशंसा पाकर राज्य में धन बढ़ा सकता है ॥१॥

    टिप्पणी

    यह मन्त्र ऋग्वेद में है−७।२७।३ ॥ १−(इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् पुरुषः (राजा) शासकः (जगतः) संसारस्य मध्ये (चर्षणीनाम्) मनुष्याणाम्-निघ० २।३। (अधि) उपरि (क्षमि) आतो धातोः। पा० ६।४।१४०। “आतः” इति योगविभागात् क्षमाशब्दात् सप्तम्येकवचन आकारलोपः। क्षमायाम्। भूम्याम् (विषुरूपम्) नानाविधम् (यत्) यत् किमपि धनादिकम्, तस्य च (अस्ति) भवति (ततः) तस्मात् कारणात्, (ददाति) प्रयच्छति (दाशुषे) दात्रे। आत्मसमर्पकाय राजभक्ताय (वसूनि) धनानि (चोदत्) चोदयेत्। प्रेरयत्। प्रवर्तयेत् (राधः) धनम् (उपस्तुतः) समीपे प्रशंसितः (चित्) अवधारणे (अर्वाक्) अभिमुखम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    राजा के नियन्त्रण में इन्द्रो

    पदार्थ

    १. (इन्द्रः) = वह सर्वशक्तिमान, ऐश्वर्यशाली प्रभु (जगत:) = इस ब्रह्माण्ड का, (चर्षणीनाम्) = सब प्रजाओं का और (अधिक्षमि) = इस पृथिवी पर (यत) = जो कुछ भी (विषुरूपम्) = विविध उत्तम रूपोंवाला पदार्थमात्र (अस्ति) = है, उस सबका (राजा) = नियमित करनेवाला स्वामी है। २. हे प्रभु (ततः) = अपने उस अनन्त ऐश्वर्य में से (दाशुषे) = दाश्वान्-दानशील पुरुष के लिए (वसूनि) = निवास के लिए आवश्यक धनों को (ददाति) = देते हैं। वे प्रभु (चित) = ही (उपस्तुत:) = उपस्तुत हुए-हुए (राधः) = कार्यसाधक धनों को (अर्वाक्) = हमारे अभिमुख (चोदत) = प्रेरित करते हैं।

    भावार्थ

    प्रभु ही सब ब्रह्माण्ड के नियन्ता राजा है। प्रभु ही दानशील पुरुष के निवास के लिए आवश्यक धनों को प्राप्त कराते हैं। स्तुत हुए-हुए प्रभु ही कार्यसाधक धनों को देते हैं। गतमन्त्र का अथर्वा प्रभु-स्तवन करता हुआ प्रभु जैसा ही बनने के लिए यत्नशील होता है 'नारायण' ही बन जाता है। यह प्रभु-स्तवन करता हुआ कहता है-

    इस भाष्य को एडिट करें

    भाषार्थ

    (इन्द्रः) परमेश्वर (राजा) राजा है (जगतः) जगत् का, (चर्षणीनाम्) मनुष्यों का, तथा दर्शनशक्तिसम्पन्न सब प्राणियों का, और (क्षमि अधि) पृथिवी में (विषुरूपम्) विविध रूप (यद् अस्ति) जो कुछ है उस का। (ततः) इसलिए (दाशुषे) दानी के लिए, अर्थात् दान करनेवाले को वह (वसूनि) धन-सम्पत्तियाँ (ददाति) प्रदान करता है। और (उपस्तुतः चित्) स्तुति पाए दानी-मनुष्य के सदृश वह (अर्वाक्) हम दानियों की ओर (राधः) सबके कार्यों का साधक धन (चोदत्) प्रेरित करता है।

    टिप्पणी

    [अभिप्राय यह कि परमेश्वर धन-सम्पत्तियां देता है ताकि धनिक उस धन-सम्पत् का दान करें, जिससे सबके कार्य सिद्ध हो सकें। राधः=धन राधृ संसिद्धौ। चित् उपमार्थे (निरु० १.२.४)। इन्द्रः=इदि परमैश्वर्ये।]

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (4)

    Subject

    World Ruler

    Meaning

    Indra is the self-refulgent ruler of the moving world and dynamic humanity, the lord that pervades infinite forms of existence over the earth. Thereby he gives prosperity of wealth for the generous yajamana and, invoked and adored, inspires and accomplishes many possibilities of achievement directly.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject

    Prayer to Indra

    Translation

    The resplendent Lord is the sovereign of the world, of men, and of all, whatsoever, that exists on this earth in various forms. He gives riches to the liberal donor. Praised (by us) may He direct wealth towards us. (Rg. VII.23.3)

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    The Almighty Divinity is the ruler of the universe, human- being and whatever in multifarious forms is present on this earth. He gives thus the wealth to man of munificence, He always praised by us bestwos Prosperity and fortune upon ‘us.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    On this earth, the Glorious God is the Radiant master of all the people of the world and whatever there is of various kinds. Being prayed with devotion, He grants riches to the devotee and always bestows wealth, health and knowledge on him.

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    यह मन्त्र ऋग्वेद में है−७।२७।३ ॥ १−(इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् पुरुषः (राजा) शासकः (जगतः) संसारस्य मध्ये (चर्षणीनाम्) मनुष्याणाम्-निघ० २।३। (अधि) उपरि (क्षमि) आतो धातोः। पा० ६।४।१४०। “आतः” इति योगविभागात् क्षमाशब्दात् सप्तम्येकवचन आकारलोपः। क्षमायाम्। भूम्याम् (विषुरूपम्) नानाविधम् (यत्) यत् किमपि धनादिकम्, तस्य च (अस्ति) भवति (ततः) तस्मात् कारणात्, (ददाति) प्रयच्छति (दाशुषे) दात्रे। आत्मसमर्पकाय राजभक्ताय (वसूनि) धनानि (चोदत्) चोदयेत्। प्रेरयत्। प्रवर्तयेत् (राधः) धनम् (उपस्तुतः) समीपे प्रशंसितः (चित्) अवधारणे (अर्वाक्) अभिमुखम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top