अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 54/ मन्त्र 1
का॒लादापः॒ सम॑भवन्का॒लाद्ब्रह्म॒ तपो॒ दिशः॑। का॒लेनोदे॑ति॒ सूर्यः॑ का॒ले नि वि॑शते॒ पुनः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठका॒लात्। आपः॑। सम्। अ॒भ॒व॒न्। का॒लात्। ब्रह्म॑। तपः॑। दिशः॑। का॒लेन॑। उत्। ए॒ति॒। सूर्यः॑। का॒ले। नि। वि॒श॒ते॒। पुनः॑ ॥५४.१॥
स्वर रहित मन्त्र
कालादापः समभवन्कालाद्ब्रह्म तपो दिशः। कालेनोदेति सूर्यः काले नि विशते पुनः ॥
स्वर रहित पद पाठकालात्। आपः। सम्। अभवन्। कालात्। ब्रह्म। तपः। दिशः। कालेन। उत्। एति। सूर्यः। काले। नि। विशते। पुनः ॥५४.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
काल की महिमा का उपदेश।
पदार्थ
(कालात्) काल [गिनती करनेवाले समय] से (आपः) प्रजाएँ, (कालात्) काल से (ब्रह्म) वेदज्ञान, (तपः) तप [ब्रह्मचर्यादि नियम] और (दिशः) दिशाएँ (सम् अभवत्) उत्पन्न हुई हैं। (कालेन) काल के साथ (सूर्यः) सूर्य (उत् एति) निकलता है, (काले) काल में (पुनः) फिर (नि विशते) डूब जाता है ॥१॥
भावार्थ
समय के प्रभाव से प्रलय के पीछे परमात्मा सब पदार्थों और नियमों को उत्पन्न करता और प्रलय समय में लय कर देता है, जैसे सूर्य पृथिवी के सन्मुख होने से दिखाई देता और पृथिवी की आड़ में होने से अदृश्य हो जाता है ॥१॥
टिप्पणी
१−(कालात्) सू० ५३। म० १। संख्याकारकात् समयात् (आपः) आप्ताः प्रजाः (सम् अभवन्) अजायन्त (कालात्) (ब्रह्म) वेदज्ञानम् (तपः) ब्रह्मचर्यादिव्रतम् (दिशः) प्राच्याद्याः (कालेन) (उदेति) उदयं गच्छति (सूर्यः) गमनशील आदित्यः (काले) (नि) नीचैः (विशते) प्रविश्यते। विलीयते (पुनः) सायङ्काले ॥
भाषार्थ
(कालात्) काल से (आपः) जल (समभवन्) प्रकट हुए। (कालात्) काल से (व्रह्म) वेद, (तपः) प्रतप्त सू्र्य, और (दिशः) दिशाएं प्रकट हुई। (कालेन) काल से (सूर्यः उदेति) सूर्य उदित होता है। (काले) और काल में (पुनः) फिर (नि विशते) प्रवेश पा जाता है, अस्त हो जाता है।
टिप्पणी
[आपः= “तस्माद्वा एतस्मादात्मनः आकाशः सम्भूतः। आकाशाद्वायुः वायोराग्निरग्नेराप अद्भ्यः पृथिवी” (उपनिषद्) के अनुसार अग्नि से आपः प्रकट हुए। मन्त्र १९.५३.१० में “तपः” द्वारा अग्नि की उत्पत्ति दर्शाई है, और १९.५४.१ में “आपः” की। यह क्रम उपनिषद् द्वारा भी निर्दिष्ट किया गया है। ब्रह्म=वेद, देखो (१९.५३.८)। दिशः= दिशाओं का परिज्ञान सूर्योदय की दिशा की दृष्टि से होता है, इसलिए तपः=प्रतप्त सूर्य।]
विषय
'आपः, ब्रह्म, तपो, दिशः'
पदार्थ
१. (कालात्) = उस काल नामक प्रभु से (आपः) = [आपो नारा इति प्रोक्ता आपो वै नरसूनवः] सब प्रजाएँ (समभवन्) = उद्भूत हुई। (कालात्) = उस काल से ही (ब्रह्म) = ज्ञान उद्भुत हुआ। उससे ही (तपः दिश:) = सब तप व अन्य कर्मों के निर्देश दिये गये। प्रभु ने प्रजाओं को रचकर मनुष्यों को वेदज्ञान दिया और वेदज्ञान द्वारा तप व अन्य कर्मों के निर्देश दिये। २. इन कर्मों के करने के लिए उस काल नामक प्रभु ने ही दिन-रात की व्यवस्था की। इस व्यवस्था के लिए (कालेन) = इस काल से ही (सूर्य: उदेति) = सूर्य उदय को प्राप्त होता है और (पुन:) = फिर (काले) = उस काल में ही (निविशते) = विलीन हो जाता है-अस्त हो जाता है।
भावार्थ
प्रभु प्रजाओं को जन्म देकर वेदज्ञान द्वारा तप व अन्य कर्मों का निर्देश देते हैं। उन कर्मों को कर सकने के लिए वे सूर्योदय व सूर्यास्त से दिन-रात की व्यवस्था करते हैं।
इंग्लिश (4)
Subject
Kala
Meaning
From Kala, in course of time, arose the ‘waters’, the oceans of particles. From Kala arose Brahma, divine Resolution to create, and the quarters of space. By Kala and with time rises the sun and again sets back into Kala.
Subject
In Praise of Kala
Translation
From Time the waters are born: from time the sacred knowledge, fervour, and the quarters. The sun rises by Time; in Time he enters again.
Translation
From Kala spring waters and from Kala spring the air, heat and regions. The sun rises by Kala and sets up in the Kala.
Translation
From the Mighty Creator were born the waters or atoms. From Him came the Vedic lore or Brahmand, the heating fire, and the quarters. The Sun rises because of His Power, and in Him does it set again.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(कालात्) सू० ५३। म० १। संख्याकारकात् समयात् (आपः) आप्ताः प्रजाः (सम् अभवन्) अजायन्त (कालात्) (ब्रह्म) वेदज्ञानम् (तपः) ब्रह्मचर्यादिव्रतम् (दिशः) प्राच्याद्याः (कालेन) (उदेति) उदयं गच्छति (सूर्यः) गमनशील आदित्यः (काले) (नि) नीचैः (विशते) प्रविश्यते। विलीयते (पुनः) सायङ्काले ॥
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