अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 64/ मन्त्र 1
अग्ने॑ स॒मिध॒माहा॑र्षं बृह॒ते जा॒तवे॑दसे। स मे॑ श्र॒द्धां च॑ मे॒धां च॑ जा॒तवे॑दाः॒ प्र य॑च्छतु ॥
स्वर सहित पद पाठअग्ने॑। स॒म्ऽइध॑म्। आ। अ॒हा॒र्ष॒म्। बृ॒ह॒ते। जा॒तऽवे॑दसे। सः। मे॒। श्र॒द्धाम्। च॒। मे॒धाम्। च॒। जा॒तऽवे॑दाः। प्र। य॒च्छ॒तु॒ ॥६४.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्ने समिधमाहार्षं बृहते जातवेदसे। स मे श्रद्धां च मेधां च जातवेदाः प्र यच्छतु ॥
स्वर रहित पद पाठअग्ने। सम्ऽइधम्। आ। अहार्षम्। बृहते। जातऽवेदसे। सः। मे। श्रद्धाम्। च। मेधाम्। च। जातऽवेदाः। प्र। यच्छतु ॥६४.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
भौतिक अग्नि के उपयोग का उपदेश।
पदार्थ
(बृहते) बढ़ते हुए, (जातवेदसे) पदार्थों में विद्यमान (अग्ने=अग्नये) अग्नि के लिये (समिधम्) समिधा [जलाने के वस्तु काष्ठ आदि] को (आ अहार्षम्) मैं लाया हूँ। (सः) वह (जातवेदाः) पदार्थों में विद्यमान [अग्नि] (मे) मुझे (श्रद्धाम्) श्रद्धा [आदर, विश्वास] (च च) और (मेधाम्) धारणावती बुद्धि (प्र यच्छतु) देवे ॥१॥
भावार्थ
मनुष्यों को चाहिये कि काष्ठ घृत और अन्य द्रव्यों से भौतिक अग्नि को प्रज्वलित करके हवन और शिल्प कार्यों में उपयोगी करें तथा उसके गुणों में श्रद्धा और बुद्धि बढ़ावें और इसी प्रकार परमात्मा की भक्ति को अपने हृदय में स्थापित करें ॥१॥
टिप्पणी
इस सूक्त का मिलान करो-यजु० ३।१-४ ॥१−(अग्ने) सुपां सुपो भवन्ति। वा० पा० ७।१।३९। चतुर्थ्यर्थे सम्बोधनम्। भौतिकाग्नये (समिधम्) समिन्धनसाधनं काष्ठघृतादिकम् (अहार्षम्) आहृतवानस्मि (बृहते) वर्धमानाय (जातवेदसे) पदार्थेषु विद्यमानाय (सः) अग्निः (मे) मह्यम् (श्रद्धाम्) आदरम्। विश्वासम् (च) (मेधाम्) धारणावतीं बुद्धिम् (जातवेदाः) पदार्थेषु विद्यमानः (प्रयच्छतु) ददातु ॥
भाषार्थ
(अग्ने) हे अग्नि! (जातवेदसे) उत्पन्न पदार्थों में विद्यमान, (बृहते) तथा महान् तेरे प्रति (समिधम्) समिधा (आहार्षम्) मैं लाया हूँ। (सः) वह (जातवेदाः) उत्पन्न पदार्थों में विद्यमान अग्नि (मे) मुझे (श्रद्धाम्) सत्य को धारण करने की शक्ति, (च) और (मेधाम्) बुद्धि (प्र यच्छतु) प्रदान करे।
टिप्पणी
[इस सूक्त द्वारा ब्रह्मचारी अग्नि में इन्धन तथा समिधाओं का आधान करता है, जो काष्ठौषध सात्त्विक और मेधाजनक हों। उनके इन्धन और उनकी समिधाओं के प्रयोग से यज्ञोत्थ धूम्र मन को श्रद्धामय, और बुद्धि को पढ़े-सुने को धारण करने में समर्थ बनाता है। श्रद्धा=श्रत् सत्यनाम (निघं० ३.१०)+धा (धारणे)। मेधा=धीः धारणावती, बुद्धि मेधृ संगमे।]
विषय
यज्ञ से श्रद्धा व मेधा' की प्राप्ति
पदार्थ
१. हे (अग्ने) = यज्ञाग्ने । (बृहते) = वृद्धि की कारणभूत, (जातवेदसे) = सब धनों [वेदस्-wealth] को उत्पन्न करनेवाले तेरे लिए मैं (समिधम् आहार्षम्) = समिन्धनसाधन काष्ठ को लाया हूँ, अर्थात् मैं इस यज्ञाग्नि की वृद्धि का कारणभूत व सब धनों का जन्मदाता समझकर यज्ञ में प्रवृत्त हुआ हूँ। २. (सः) = वह (जातवेदा:) = धनों का जन्मदाता अग्नि (मे) = मेरे लिए (श्रद्धाम्) = [श्रत, सत्यं दधाति] सत्यज्ञान को धारण करने की शक्ति को (च) = और (मेधां च) = ज्ञान को समझनेवाली बुद्धि को भी (प्रयच्छतु) = दे। अग्निहोत्र से सब वातावरण की पवित्रता के कारण 'श्रद्धा और मेधा' की प्रासि होती ही है।
भावार्थ
हम वृद्धि के कारणभूत, सब धनों के दाता यज्ञाग्नि को अपने घरों में समिद्ध करें। यह मेरे लिए 'श्रद्धा और मेधा' को प्रास कराए।
इंग्लिश (4)
Subject
Fullness and Growth
Meaning
O leading light of life, Agni, I have collected and brought the samits for the service of boundless Jataveda, all pervading divine energy and cosmic awareness. May that universal energy and awareness bless me with faith and intelligence.
Subject
To Agni : with fuel
Translation
O adorable Lord. I have brought fuel-wood for the great cognizant of all. May that cognizant of all grant me faith and intelligence (wisdom).
Translation
I the student have brought the fuel for the fire of Yajna which is lofty and is present in atl the born objects. Let that fire present in all the born objects become the means to give me faith and intelligence.
Translation
Oh! God, the Omniscient, the master of learning, I have brought for the great store-house of knowledge and brilliance, this soul of mine as a fuel. Let both of you conservant with the Veadas and givers of knowledge of all things to the people, grant me faith and sharp intellect.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
इस सूक्त का मिलान करो-यजु० ३।१-४ ॥१−(अग्ने) सुपां सुपो भवन्ति। वा० पा० ७।१।३९। चतुर्थ्यर्थे सम्बोधनम्। भौतिकाग्नये (समिधम्) समिन्धनसाधनं काष्ठघृतादिकम् (अहार्षम्) आहृतवानस्मि (बृहते) वर्धमानाय (जातवेदसे) पदार्थेषु विद्यमानाय (सः) अग्निः (मे) मह्यम् (श्रद्धाम्) आदरम्। विश्वासम् (च) (मेधाम्) धारणावतीं बुद्धिम् (जातवेदाः) पदार्थेषु विद्यमानः (प्रयच्छतु) ददातु ॥
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