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अथर्ववेद के काण्ड - 19 के सूक्त 7 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 1
    ऋषिः - गार्ग्यः देवता - नक्षत्राणि छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - नक्षत्र सूक्त
    1

    चि॒त्राणि॑ सा॒कं दि॒वि रो॑च॒नानि॑ सरीसृ॒पाणि॒ भुव॑ने ज॒वानि॑। तु॒र्मिशं॑ सुम॒तिमि॒च्छमा॑नो॒ अहा॑नि गी॒र्भिः स॑पर्यामि॒ नाक॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    चि॒त्राणि॑। सा॒कम्। दि॒वि। रो॒च॒नानि॑। स॒री॒सृ॒पाणि॑। भुव॑ने। ज॒वानि॑। तु॒र्मिश॑म्। सु॒ऽम॒तिम्। इ॒च्छमा॑नः। अहा॑नि। गीः॒ऽभिः। स॒प॒र्यामि॑। नाक॑म् ॥७.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    चित्राणि साकं दिवि रोचनानि सरीसृपाणि भुवने जवानि। तुर्मिशं सुमतिमिच्छमानो अहानि गीर्भिः सपर्यामि नाकम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    चित्राणि। साकम्। दिवि। रोचनानि। सरीसृपाणि। भुवने। जवानि। तुर्मिशम्। सुऽमतिम्। इच्छमानः। अहानि। गीःऽभिः। सपर्यामि। नाकम् ॥७.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 7; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (3)

    विषय

    ज्योतिष विद्या का उपदेश।

    पदार्थ

    (दिवि) आकाश के बीच (भुवने) संसार में (चित्राणि) विचित्र, (साकम्) परस्पर (सरीसृपाणि) टेढ़े-टेढ़े चलनेवाले, (जवानि) वेग गतिवाले (रोचनानि) चमकते हुए नक्षत्र हैं। (तुर्मिशम्) वेग की ध्वनि [वा समाधि] को और (सुमतिम्) सुमति को (इच्छमानः) चाहता हुआ मैं (अहानि) सब दिन (गीर्भिः) वेदवाणियों से (नाकम्) सुखस्वरूप परमात्मा को (सपर्यामि) पूजता हूँ ॥१॥

    भावार्थ

    जैसे परस्पर आकर्षण से शीघ्र गति के साथ चलकर यह तारागण संसार का उपकार करते हैं, वैसे ही मनुष्य परमात्मा की महिमा को वेद द्वारा गाते हुए परस्पर मेल करके शीघ्रता के साथ सुमति से अपना कर्त्तव्य करते रहें ॥१॥

    टिप्पणी

    १−(चित्राणि) विचित्राणि। अद्भुतानि (साकम्) सह। परस्परम् (दिवि) आकाशे। सूर्यप्रकाशे (रोचनानि) रुच दीप्तावभिप्रीतौ च−युच्। दीप्यमानानि नक्षत्राणि (सरीसृपाणि) सृपेर्यङ्लुगन्तात् पचाद्यच्। नित्यं कौटिल्ये गतौ। पा० ३।१।२३। इति कौटिल्ये−यङ्। वक्रगतीनि (भुवने) संसारे (जवानि) शीघ्रगामीनि। अनुक्षणमावर्त्तमानानि (तुर्मिशम्) तुर त्वरणे-क्विप्+मिश शब्दे रोषकृते समाधौ च-क प्रत्ययः। तुरो वेगस्य मिशं ध्वनिं समाधिं वा (सुमतिम्) कल्याणबुद्धिम् (इच्छमानः) इच्छन्। कामयमानः (अहानि) कालसंयोगे द्वितीया। सर्वाणि दिनानि (गीर्भिः) वेदवाग्भिः (सपर्यामि) परिचरामि-निघ० ३।५। अहं सेवे (नाकम्) सुखस्वरूपं परमात्मानम् ॥

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    विषय

    नक्षत्रों में प्रभु-महिमा का दर्शन

    पदार्थ

    १. (दिवि) = आकाश में (साकम्) = साथ-साथ (रोचनानि) = चमकनेवाले ये नक्षत्र (चित्राणि) = अद्भुत ही हैं। ये सब नक्षत्र उस प्रभु की महिमा को प्रकट कर रहे हैं। ये सब नक्षत्र (सरीसृपाणि) = अपने अण्डाकृति-वक्र से प्रतीत होनेवाले मार्गों पर चल रहे हैं। (भुवने जवानि) = इस ब्रह्माण्ड में ये सब नक्षत्र अतिशयेन वेगवान् हैं । २. मैं इन नक्षत्रों में उस आनन्दमय प्रभु की महिमा को देखता हुआ, (तुर्मिशम्) = [तुर त्वरणे मिश् समाधौ] त्वरा से समाधि को [एकाग्रता को] तथा (सुमतिम्) = कल्याणी मति को (इच्छमान:) = चाहता हुआ (अहानि) = सब दिनों में (गीर्भि:) = इन वेदवाणियों के द्वारा (नाकं सपर्यामि) = क्लेशों से असम्भिन्न आनन्दमय प्रभु का उपासन करता हूँ।

    भावार्थ

    हम झुलोक में दीप्त नक्षत्रों में प्रभु की महिमा को देखें। एकाग्रता व सुमति की कामना करते हुए प्रभु का उपासन करें।

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    भाषार्थ

    (चित्राणि) चित्रविचित्र, (साकम्) साथ-साथ रहनेवाले, (दिवि) द्युलोक में (रोचनानि) रोचकरूप से चमकनेवाले, (सरीसृपाणि) सर्पण करनेवाले, (भुवने) द्युलोक में (जवानि) वेगवाले नक्षत्र हैं। (तुर्मिशम्) प्रवचनों द्वारा शीघ्र ज्ञान देनेवाले नक्षत्रविद्याविज्ञ से (सुमतिम्) नक्षत्रों का यथार्थज्ञान (इच्छमानः) चाहता हुआ मैं (गीर्भिः) प्रवक्ता के कथानानुसार (अहानि) नाना दिन-रातें (नाकम्) द्युलोक के प्रति (सपर्यामि) भेंट करता हूँ।

    टिप्पणी

    [तुर्मिशम्= तुर् त्वरणे+मिश् शब्दे=अर्थात् शीघ्र प्रवक्ता। अहानि=अहश्च कृष्णमहरर्जुनं च” (ऋ० ६.९.१); “अहश्च कृष्णं रात्रिः, शुक्लं चाहः” (निरु० २.६.२१)। सुमतिम्= सु+मति (मनु अवबोधने मनज्ञाने)। नाकम्=द्यौः (निरु० २.४.१४)। नक्षत्रविद्या के लिए नाना रातें द्युलोक के निरीक्षण के लिए समर्पित करनी होती हैं, ताकि नक्षत्रों को ठीक प्रकार पहिचाना जा सके। और दिन में नक्षत्र-शास्त्र का स्वाध्याय किया जा सके। चित्राणि=चित्रों की आकृतिवाले। मृगशिर, हस्त, श्रवण आदि नाम नक्षत्रों की चित्राकृतियों के सूचक हैं।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Nakshatras, Heavenly Bodies

    Meaning

    Wondrous, various and glorious are the stars shining and moving together in orbit in the heavenly region of the universe. Loving the auspicious revealing music of motion and seeking noble understanding of the mystery, I dedicate myself day and night with words of faith and commitment to the vault of heaven.

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    Subject

    To the lunar asterisms : For blessings

    Translation

    Wondrous (are) the lights, shining together in the sky, gliding with (terrific) speed in the universe. Longing for the harm-repelling wisdom, I praise with songs the asterism moving in the heaven.

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    Translation

    I, the man of aptitude desiring (to attain) penetrative wisdom through the words of Praise come in to contact of the vast space and the stars which are wondrous, brilliant simultaneously in the sky, moving and speedy in the world.

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    Translation

    In the universe, the shining heavenly spheres of various colours are together moving on, some with slow speed and some, with rapid speed, in the heavens above. I, a learned person (an astronomer) desirous of evil-removing intelligence, try to discover the secrets of these indestructible heavenly spheres and peace-showering heavens.

    Footnote

    Work is worship. So ‘सपर्यामि’ here means devotedly work for discovering the secrets of the heavenly bodies and making the right use of the discoveries.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(चित्राणि) विचित्राणि। अद्भुतानि (साकम्) सह। परस्परम् (दिवि) आकाशे। सूर्यप्रकाशे (रोचनानि) रुच दीप्तावभिप्रीतौ च−युच्। दीप्यमानानि नक्षत्राणि (सरीसृपाणि) सृपेर्यङ्लुगन्तात् पचाद्यच्। नित्यं कौटिल्ये गतौ। पा० ३।१।२३। इति कौटिल्ये−यङ्। वक्रगतीनि (भुवने) संसारे (जवानि) शीघ्रगामीनि। अनुक्षणमावर्त्तमानानि (तुर्मिशम्) तुर त्वरणे-क्विप्+मिश शब्दे रोषकृते समाधौ च-क प्रत्ययः। तुरो वेगस्य मिशं ध्वनिं समाधिं वा (सुमतिम्) कल्याणबुद्धिम् (इच्छमानः) इच्छन्। कामयमानः (अहानि) कालसंयोगे द्वितीया। सर्वाणि दिनानि (गीर्भिः) वेदवाग्भिः (सपर्यामि) परिचरामि-निघ० ३।५। अहं सेवे (नाकम्) सुखस्वरूपं परमात्मानम् ॥

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