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अथर्ववेद के काण्ड - 19 के सूक्त 8 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 1
    ऋषिः - गार्ग्यः देवता - नक्षत्राणि छन्दः - विराड्जगती सूक्तम् - नक्षत्र सूक्त
    1

    यानि॒ नक्ष॑त्राणि दि॒व्यन्तरि॑क्षे अ॒प्सु भूमौ॒ यानि॒ नगे॑षु दि॒क्षु। प्र॑क॒ल्पयं॑श्च॒न्द्रमा॒ यान्येति॒ सर्वा॑णि॒ ममै॒तानि॑ शि॒वानि॑ सन्तु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यानि॑। नक्ष॑त्राणि। दि॒वि। अ॒न्तरि॑क्षे। अ॒प्ऽसु। भूमौ॑। यानि॑। नगे॑षु। दि॒क्षु। प्रऽक॑ल्पयन्। च॒न्द्रमाः॑। यानि॑। एति॑। सर्वा॑णि। मम॑। ए॒तानि॑। शि॒वानि॑। स॒न्तु॒ ॥८.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यानि नक्षत्राणि दिव्यन्तरिक्षे अप्सु भूमौ यानि नगेषु दिक्षु। प्रकल्पयंश्चन्द्रमा यान्येति सर्वाणि ममैतानि शिवानि सन्तु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यानि। नक्षत्राणि। दिवि। अन्तरिक्षे। अप्ऽसु। भूमौ। यानि। नगेषु। दिक्षु। प्रऽकल्पयन्। चन्द्रमाः। यानि। एति। सर्वाणि। मम। एतानि। शिवानि। सन्तु ॥८.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 8; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (3)

    विषय

    सुख की प्राप्ति का उपदेश।

    पदार्थ

    (यानि) जिन (नक्षत्राणि) नक्षत्रों [चलनेवाले लोकों] को (दिवि) आकाश के भीतर (अन्तरिक्षे) मध्यलोक में, (यानि) जिन [नक्षत्रों] को (अप्सु) जल के ऊपर और (भूमौ) भूमि के ऊपर और (यानि) जिन [नक्षत्रों] को (नगेषु) पहाड़ों के ऊपर (दिक्षु) सब दिशाओं में (चन्द्रमा) चन्द्रमा (प्रकल्पयन्) समर्थ करता हुआ (याति) चलता है, (एतानि) यह (सर्वाणि) सब [नक्षत्र] (मम) मेरे (शिवानि) सुख देनेहारे (सन्तु) होवें ॥१॥

    भावार्थ

    जो नक्षत्र [सूक्त ७] अपने तारागणों के साथ चन्द्रमा के आकर्षण और गति मार्ग में घूमकर वायु द्वारा जल पृथिवी आदि पर प्रभाव डालकर अन्न स्वास्थ्य आदि बढ़ाने का कारण हैं, विद्वान् लोग उन नक्षत्रों के ज्योतिष ज्ञान से दूरदर्शी होकर विघ्नों को हटाकर सुख पावें ॥१॥

    टिप्पणी

    १−(यानि) (नक्षत्राणि) गमनशीलान् लोकान् (दिवि) आकाशे (अन्तरिक्षे) मध्यलोके (अप्सु) उदकानामुपरि (भूमौ) भूमेरुपरि (यानि) नक्षत्राणि (नगेषु) पर्वतानामुपरि (दिक्षु) सर्वासु दिक्षु (प्रकल्पयन्) समर्थानि कुर्वन्। प्रोत्साहयन् (चन्द्रमाः) चन्द्रलोकः (यानि) नक्षत्राणि (एति) गच्छति (सर्वाणि) (मम) (एतानि) नक्षत्राणि (शिवानि) सुखकराणि (सन्तु) भवन्तु ॥

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    विषय

    सर्वलोकानुकूलता

    पदार्थ

    १. (यानि) = जो (नक्षत्राणि) = [नक्ष गतौ] गतिमय लोक (दिवि) = द्युलोक में, (अन्तरिक्षे) = अन्तरिक्ष में (अप्सु) = जलों में (या भूमौ) = इस पृथिवी पर है, (यानि) = जो (नगेषु) = पर्वतों पर या (दिक्षु) = दिशाओं में हैं, (यानि) = जिन लोकों को (चन्द्रमा:) = चाँद (प्रकल्पयन्) = ओषधियों में रस-सञ्चार के द्वारा शक्तिशाली बनाता हुआ (एति) = गति करता है, (एतानि सर्वाणि) = ये सब लोक (मम) = मेरे लिए (शिवानि सन्तु) = कल्याणकर हों।

    भावार्थ

    सब लोक हमारे लिए सुखकर हों। द्युलोक में, अन्तरिक्ष में, भूमि पर, जलों, पर्वतों वा दिशाओं में जो भी लोक-लोकान्तर है, इन सबमें चन्द्रमा ओषधियों में रस-सञ्चार करता हुआ इन्हें शक्तिशाली बनाता है। ये लोक मेरे लिए शिव हों।

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    भाषार्थ

    (यानि) जो (नक्षत्राणि) नक्षत्र (दिवि) द्युलोक में हैं, जो कि (अन्तरिक्षे) अन्तरिक्ष में [हवाई जहाज द्वारा] जाकर, (अप्सु) समुद्रों में [समुद्रीय जहाजों द्वारा] जाकर, (भूमौ) भूमि पर स्थित होकर, (नगेषु) पर्वतों पर आरूढ़ होकर, (दिक्षु) तथा भिन्न-भिन्न दिशाओं में दृष्टिगोचर होते हैं; तथा (चन्द्रमाः) चान्द (यानि) जिन नक्षत्रों को (प्रकल्पयन्) कल्पित करता हुआ (एति) उनमें गति करता है, (एतानि) ये (सर्वाणि) सब नक्षत्र (मम) मेरा (शिवानि) कल्याण करने वाले (सन्तु) हों।

    टिप्पणी

    [सब नक्षत्र हैं तो द्युलोक में, परन्तु एक स्थान में स्थित हुए व्यक्ति को ये सब नक्षत्र एक समय में दृष्टिगोचर नहीं हो सकते। इनमें से कई तो भूमिस्तर पर स्थित हुए को दिखाई पड़ते हैं, कई समुद्रों में समुद्रिय जहाजों द्वारा दूर जाकर क्षितिज के नीचे छिपे दृष्टिगोचर होते हैं, कई पर्वतों की ऊँचाइयों पर से, कई हवाई जहाजों द्वारा अन्तरिक्ष में दूर तक उड़कर जाने से दृष्टिगोचर होते हैं; कई भिन्न-भिन्न दिशाओं में जा-जाकर दृष्टिगोचर होते हैं। इन नक्षत्रों के विभाग की कल्पना चन्द्रमा की गति पर निर्भर है। एक दिन-रात में चन्द्रमा क्रान्तिवृत्त (Ecliptie) के जिस नियत अंश पर पहुँचता है, उसे नक्षत्र कहते हैं, जिसकी कि कल्पना उस अंश पर स्थित तारा या तारागणों द्वारा निर्दिष्ट की जाती है। यह यतः काल्पनिक है, इसलिए “प्रकल्पयन्” शब्द का प्रयोग हुआ है। प्रकल्पयन् का अर्थ— “समर्थ करता हुआ” भी होता है। इन सब नक्षत्रों को शिवकारी कहा है। यह तभी सम्भव है जब कि ऋत्वनुकूल यज्ञ सब करें, और सब पुण्य-पुनीत कर्मों को सदा करते रहें।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Nakshatras, Heavenly Bodies

    Meaning

    May all the stars, the constellations, which are in heaven, in the middle regions, visible over the seas, on earth, on mountains, in directions of space, whose position in relation to the earth, the moon determines as it revolves in its earthly orbit, may all these in their position be auspicious harbingers of peace and good fortune to me.

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    Subject

    For well-beeing : To the asterisms etc.

    Translation

    The asterisms, which are there in the sky, in the midspace, in the waters, on the earth, and which are on the mountains and in various quarters of heaven; and to which the moon goes enjoying them, may all those be benign to me.

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    Translation

    Let be favorable to me all those lunar mansions on which the Moon moving rotates and which are seen in sky, firmament, in the waters, on the earth, and which are looked at from mountains and from the quarters.

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    Translation

    Whatsoever constellations there are in the heavens, the mid-regions, observed through waters and on the earth, on the mountains and in all quarters, and the moon passes by them, revealing them, may they all be peaceful to me.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(यानि) (नक्षत्राणि) गमनशीलान् लोकान् (दिवि) आकाशे (अन्तरिक्षे) मध्यलोके (अप्सु) उदकानामुपरि (भूमौ) भूमेरुपरि (यानि) नक्षत्राणि (नगेषु) पर्वतानामुपरि (दिक्षु) सर्वासु दिक्षु (प्रकल्पयन्) समर्थानि कुर्वन्। प्रोत्साहयन् (चन्द्रमाः) चन्द्रलोकः (यानि) नक्षत्राणि (एति) गच्छति (सर्वाणि) (मम) (एतानि) नक्षत्राणि (शिवानि) सुखकराणि (सन्तु) भवन्तु ॥

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