अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 2
प्र तद्वो॑चेद॒मृत॑स्य वि॒द्वान् ग॑न्ध॒र्वो धाम॑ पर॒मं गुहा॒ यत्। त्रीणि॑ प॒दानि॒ निहि॑ता॒ गुहा॑स्य॒ यस्तानि॒ वेद॒ स पि॒तुष्पि॒तास॑त् ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । तत् । वो॒चे॒त् । अ॒मृत॑स्य । वि॒द्वान् । ग॒न्ध॒र्व: । धाम॑ । प॒र॒मम् । गुहा॑ । यत् । त्रीणि॑ । प॒दानि॑ । निऽहि॑ता । गुहा॑ । अ॒स्य॒ । य: । तानि॑ । वेद॑ । स: । पि॒तु: । पि॒ता । अ॒स॒त् ॥१.२॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र तद्वोचेदमृतस्य विद्वान् गन्धर्वो धाम परमं गुहा यत्। त्रीणि पदानि निहिता गुहास्य यस्तानि वेद स पितुष्पितासत् ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । तत् । वोचेत् । अमृतस्य । विद्वान् । गन्धर्व: । धाम । परमम् । गुहा । यत् । त्रीणि । पदानि । निऽहिता । गुहा । अस्य । य: । तानि । वेद । स: । पितु: । पिता । असत् ॥१.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ब्रह्म के मिलने का उपदेश।
पदार्थ
(विद्वान्) विद्वान् (गन्धर्वः) विद्या का धारण करनेवाला पुरुष (अमृतस्य) अविनाशी ब्रह्म के (तत्) उस (परमम्) सबसे ऊँचे (धाम) पद का (प्रवोचद्) उपदेश करे (यत्) जो पद (गुहा=गुहायाम्) गुफा [प्रत्येक अगम्य पदार्थ हृदय आदि] के भीतर है। (अस्य) इस [ब्रह्म] की (गुहा) गुफा [अगम्यशक्ति] में (त्रीणि) तीनों (पदानि) पद (निहिता=०–तानि) ठहरे हुए हैं, (यः) जो [विद्वान् पुरुष] (तानि) उनको (वेद) जान लेता है, (सः) वह (पितुः) पिता का (पिता) पिता (असत्) हो जाता है ॥२॥
भावार्थ
विद्वान् महात्मा पुरुष उस परब्रह्म की महिमा का सदा उपदेश करते रहते हैं। वह ब्रह्म सूक्ष्म से सूक्ष्म और महान् से महान् है। उसके ही वश में तीन पद, अर्थात् संसार की सृष्टि, स्थिति और नाश ये तीनों अवस्थाएँ, अथवा भूत, भविष्यत् और वर्त्तमान, तीनों काल, अथवा सत्त्व, रज और तम, तीनों गुण वर्त्तमान हैं। जिस महापुरुष योगी को इन अवस्थाओं का विज्ञान व्यष्टि और समष्टिरूप से होता है, वह पिता का पिता अर्थात् महाविज्ञानियों में महाविज्ञानी होता है ॥२॥ १–यह मन्त्र कुछ भेद से यजुर्वेद में है–अ० ३२। म० ९। २–मनु महाराज ने कहा है–अ० २।१५३। अज्ञो भवति वै बालः पिता भवति मन्त्रदः। अज्ञं हि बालमित्याहुः पितेत्येव तु मन्त्रदम् ॥१॥ अज्ञानी ही बालक होता है, वेदोपदेष्टा पिता होता है। [मुनि लोग] अज्ञानी को ही बालक और वेदोपदेष्टा को ही पिता कहते हैं ॥१॥
टिप्पणी
२–वोचेत्। ब्रूञ् व्यक्तायां वाचि आशीर्लिङि वच्यादेशे। लिङ्याशिष्यङ्। पा० ३।१।८६। इति अङ् प्रत्ययः। वच उम्। पा० ७।४।२०। इति उम् आगमः। उच्यात्। उपदिशेत्। व्यवहिताश्च। पा० १।४।८२। इति (प्र) उपसर्गस्य क्रियया संबन्धः। अमृतस्य। तनिमृङ्भ्यां किच्च। उ० ३।८८। इति अ+मृङ् प्राणत्यागे–तन्, स च कित्। मरणरहितस्य। अविनाशिनः। परब्रह्मणः। विद्वान्। वेत्तीति। विद ज्ञाने–शतृ। विदेः शतुर्वसुः। पा० ७।१।३६। इति शतुर्वसुरादेशः। आत्मवित्। प्राज्ञः। पण्डितः। गन्धर्वः। गां वाणीं पृथिवीं गतिं वा धरति धारयति वा सः। कॄगॄशॄदॄभ्यो वः। उ० १।१५५। इति गो+धृञ् धारणे–व प्रत्ययः, पृषोदरादिना गो शब्दस्य गमादेशः। वेदवाणी–धारकः। वेदवेत्ता। स्वर्गगायकः। सूर्यः। घोटकः। धाम। अ० १।१३।३। स्थानम्। प्रभावम्। त्रीणि। तरतेड्रिः। उ० ५।६६। सृष्टिस्थितिप्रलयादिरूपाणि। पदानि। पद्यन्ते गम्यन्ते प्राणिभिः। पद गतौ–अच्। कर्माणि। वस्तूनि। निहिता। दधातेर्हिः। पा० ७।४।४२। इति नि+डुधाञ् धारणपोषणयोः–क्त। हिरादेशः। शेश्छन्दसि बहुलम्। पा० ६।१।७०। इति शिलोपः। निहितानि। स्थापितानि, स्थितानि। वेद। विद ज्ञाने। विदो लटो वा। पा० ३।४।८३। इति सिपो णल् आदेशः। वेत्ति। जानाति। साक्षात्करोति। पितुः पिता। नप्तृनेष्टृत्वष्टृहोतृ०। उ० २।९५। इति पा रक्षणे–तृच्। निपातनात् साधुः। ज्ञानप्रदानेन स्वरक्षकस्यापि रक्षकः। महाविद्वान्। असत्। अस सत्तायां–लेट्, अडागमः। भूयात् ॥
विषय
विद्वान् गन्धर्व का प्रभु-दर्शन
पदार्थ
१. (विद्वान) = ज्ञानी, (गन्धर्वः) = इन्द्रियों को धारण करनेवाला जितेन्द्रिय पुरुष ही (तत्) = उस (ऋतस्य धाम) = अमृतत्व के आधार (परमम्) = सर्वोत्कृष्ट प्रभु को (यत्) = जोकि (गुहा)-हृदयरूप गुहा में स्थित है, (प्रवोचेत्) प्रतिपादित करता है। जितेन्द्रिय ज्ञानी पुरुष ही इसका ज्ञान देता है। २. (अस्य) = इस प्रभु के (त्रीणि पदानि) = तीन पग (गुहा निहिता) = गुहा में निहित हैं, अर्थात् अत्यन्त रहस्यमय हैं। किस प्रकार वे प्रभु इस सृष्टि की रचना करते हैं, कैसे इस अनन्त-से बोझवाले संसार का धारण करते हैं और किस प्रकार प्रलय करते हैं। (य:) = जो भी (तानि) = इन बातों को (वेद) = जानता है, (स:) = वह (पितुः पिता असत्) = पिता का भी पिता होता है, अर्थात् महान् ज्ञानी
होता है। सृष्टि की रचना, धारण व प्रलय को पूरा-पूरा जान सकना तो सम्भव नहीं-('को अद्धा वेद क इह प्रवोचत् कुत आ जाता कुत इयं विसृष्टिः'), परन्तु एक गम्भीर विचारक इसका थोड़ा-बहुत आभास पानेवाला बनता है और उस प्रभु का सच्चा उपासक बनकर अपने ज्ञान को और बढ़ाता है तथा उसी ज्ञान का प्रचार करता है। यह ज्ञान देनेवाला प्रजाओं का सच्चा पिता बनता है।
भावार्थ
हम सृष्टि रचना, धारण व प्रलय का विचार करते हुए प्रभु के उपासक बनें, उसका ज्ञान प्रास करके उस ज्ञान को फैलानेवाले हों।
भाषार्थ
(गन्धर्वः) गौ अर्थात् वेदवाणी को धारण करनेवाला, (अमृतस्य विद्वान्) अविनाशी ब्रह्म को जाननेवाला, (तत् ) उस ब्रह्म का (प्रवोचेद्) प्रवचन करता है, (परमम् धाम) जो ब्रह्म कि परमधाम है, अन्तिम प्राप्य स्थान है, (यत्) जो (गुहा) हृदयगुहा में है। ( अस्य) इस ब्रह्म के (त्रीणि पदानि) तीन पाद (गुहा निहिता=निहितानि) हृदय-गुहा में निहित हैं। (यः) जो उपासक (तानि वेद) उन पादों को जानता है (सः) वह (पितुः पिता) पितामह के सदृश (असत्) पूजनीय है या हो जाता है।
टिप्पणी
[गन्धर्वः= गाम् वेदवाणी (निघं० १।११) धारयतीति। त्रीणि पदानि (यजुः० ३१।३, ४) । जो इन तीन पादों का भी प्रवचन कर सकता है वह पितामह के सदृश पूजनीय होता है। ये तीन पाद भी उसकी हृदयगुहा में निहित होते हैं, अतः उसे प्रत्यक्ष होते हैं।]
विषय
परमात्मदर्शन ।
भावार्थ
( अमृतस्य ) उस अमृतस्वरूप ब्रह्म को ( विद्वान् ) जानने हारा (गन्धर्वः) वेदवाणियों का धारण करने हारा, वेदज्ञ विद्वान् (तत्) उस परब्रह्म का ( प्रवोचेत् ) उत्तम रूप से उपदेश करे (यत्) जो ब्रह्म (गुहा) हृदय गुफ़ा या ब्रह्माण्ड गुफा या प्रकृति शक्ति में है अथवा अज्ञायमानस्वरूप है जो ( परमं ) सबसे श्रेष्ठ है (धाम) धारणशील तेजःस्वरूप है। (अस्य) इस परमेश्वर के ( त्रीणि पदानि ) तीन स्वरूप तीन चरण, ( गुहा ) हृदय गुफा में या अज्ञायमान रूप में ( निहिता ), रक्खे हुए हैं । ( यः ) जो परम विद्वान् पुरुष ( तानि ) उक्त ब्रह्म के तीन स्वरूपों को (वेद) अन्तर्ध्यान द्वारा जानता है ( सः ) वह ( पितुः ) पालक का भी ( पिता ) पालक ( असत् ) हो जाता है | अर्थात् वह वास्तव में महापालक होता है। संसार में नाना प्रकार के पालक हैं। अन्न द्वारा, प्राकृतिक कठिनाइयों से रक्षा द्वारा, प्राकृतिक ज्ञान के देने द्वारा इत्यादि नाना प्रकार से प्रजा की रक्षा होती है और इस प्रकार के सभी रक्षक पालक या पिता है, परन्तु वह पिता का भी पिता अर्थात् पालक का भी पालक महापालक है जो कि स्वयं अन्तर्ध्यान से आध्यात्मिक रहस्यों को जानकर लोगों में उन तत्वों का उपदेश करता है। वास्तव में आध्यात्मिक तत्व प्रजा के अधिक पालक होते हैं, अपेक्षया प्राकृतिक तत्वों के ।
टिप्पणी
यजु० में लिखा है कि “पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि” इस मंत्र में विश्वभूतों की उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलय में परमात्मा की एक चतुर्थांश शक्ति के लगने तथा शेष ३ हिस्सों का उसके स्वप्रकाशमय आनन्दस्त्ररूप में स्थित रहने का वर्णन है। जैसे कोई शक्तिशाली पुरुष किसी छोटे से कार्य को यदि करे तो वह कार्य उसके अल्प सामर्थ्य द्वारा ही सम्पन्न हो जाता है और उसकी शेष महाशक्ति उस कार्य के सम्बन्ध में प्रसुप्त सी रहती है, इसी प्रकार सम्पूर्ण जगत के उत्पादन आदि कार्यों में भी परमात्मा की केवल अल्प शक्ति का ही उपयोग होता है और उनकी शेष शक्ति उसी आनन्दमय स्वरूप में निमग्न रहती है। इस सत्र को यहां उपरोक्त शब्दों द्वारा प्रगट किया गया है।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वेन ऋषिः । ब्रह्मात्मा देवता । १, २, ४ त्रिष्टुभः | ३ जगती । चतुर्ऋचं सूक्तम् ॥
इंग्लिश (4)
Subject
The Supreme Abode
Meaning
Of that highest One mystery which is the ultimate centre of diversity, only that noble sagely scholar of immortal vision would speak who commands the language of that immortal vision and reality. Three are the stages of the manifestation of this mysterious One into existence: Creation, evolution and sustenance, and dissolution. Three are the stages of existential awareness: knowledge of discrete objects, the underlying physical laws, and the one immanent spirit of it all. Three are the stages of the evolution of inner awareness: Dharma, Dhyana and Samadhi. One who knows these three is the preceptor senior of those who claim to know.
Translation
Let the master of speech, who knows the immortal one, describe the cavity that is His highest abode. Three quarters of Him lie in that cavity. He, who knows them, is the father’s father.
Translation
The man possessed of Vedic wisdom knowing His nature tell us of that Immortal Being who is present in the secret recess of our heart and who is the grand refuge of all the world. The three: steps of this Supreme Being----the creation. subsitance and dissolution of the universe, are hidden in His own secret Mystery and one who know these steps, is the father of father i.e., the learned of learned.
Translation
May the learned sage declare to us that highest station of God, who is hidden in the cave of the heart. Three steps of God lie bidden in His infinite might. He who knows them becomes the father’s father. [1]
Footnote
[1] Three steps are Creation, Sustenance and Dissolution of the universe, or Past, Present, and Future, or Satva, Rajas and Tamasa, Father’s father means, he becomes wiser than, and able to instruct his elders. See Yajur, 32. 9.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२–वोचेत्। ब्रूञ् व्यक्तायां वाचि आशीर्लिङि वच्यादेशे। लिङ्याशिष्यङ्। पा० ३।१।८६। इति अङ् प्रत्ययः। वच उम्। पा० ७।४।२०। इति उम् आगमः। उच्यात्। उपदिशेत्। व्यवहिताश्च। पा० १।४।८२। इति (प्र) उपसर्गस्य क्रियया संबन्धः। अमृतस्य। तनिमृङ्भ्यां किच्च। उ० ३।८८। इति अ+मृङ् प्राणत्यागे–तन्, स च कित्। मरणरहितस्य। अविनाशिनः। परब्रह्मणः। विद्वान्। वेत्तीति। विद ज्ञाने–शतृ। विदेः शतुर्वसुः। पा० ७।१।३६। इति शतुर्वसुरादेशः। आत्मवित्। प्राज्ञः। पण्डितः। गन्धर्वः। गां वाणीं पृथिवीं गतिं वा धरति धारयति वा सः। कॄगॄशॄदॄभ्यो वः। उ० १।१५५। इति गो+धृञ् धारणे–व प्रत्ययः, पृषोदरादिना गो शब्दस्य गमादेशः। वेदवाणी–धारकः। वेदवेत्ता। स्वर्गगायकः। सूर्यः। घोटकः। धाम। अ० १।१३।३। स्थानम्। प्रभावम्। त्रीणि। तरतेड्रिः। उ० ५।६६। सृष्टिस्थितिप्रलयादिरूपाणि। पदानि। पद्यन्ते गम्यन्ते प्राणिभिः। पद गतौ–अच्। कर्माणि। वस्तूनि। निहिता। दधातेर्हिः। पा० ७।४।४२। इति नि+डुधाञ् धारणपोषणयोः–क्त। हिरादेशः। शेश्छन्दसि बहुलम्। पा० ६।१।७०। इति शिलोपः। निहितानि। स्थापितानि, स्थितानि। वेद। विद ज्ञाने। विदो लटो वा। पा० ३।४।८३। इति सिपो णल् आदेशः। वेत्ति। जानाति। साक्षात्करोति। पितुः पिता। नप्तृनेष्टृत्वष्टृहोतृ०। उ० २।९५। इति पा रक्षणे–तृच्। निपातनात् साधुः। ज्ञानप्रदानेन स्वरक्षकस्यापि रक्षकः। महाविद्वान्। असत्। अस सत्तायां–लेट्, अडागमः। भूयात् ॥
बंगाली (3)
पदार्थ
(বিদ্বান্) জ্ঞানী (গন্ধর্বঃ) বিদ্যার ধারণকর্তা পুরুষ (অমৃতস্য) অবিনাশী ব্রহ্মের (তৎ) সেই (পরমং) শ্রেষ্ঠ (ধাম) পদঃ (প্ৰবোচেৎ) উপদেশ করুন (য়ৎ) যাহা (গুহা) অগম্য পদার্থের অভ্যন্তরে অবস্থান করে। (অস্য) ইহার (গুহা) অগম্য শক্তিতে (ত্রীণি) তিন (পদানি) পদ (নিহিতা) অবস্থিত (য়ঃ) যিনি (তানি) সে সকলকে (বেদ) জানিয়াছেন (সঃ) তিনি (পিতুঃ) পিতার (পিতা) পিতা (অসৎ) হন।।
‘গন্ধর্বঃ’ গাং বাণীং পৃথিবীং গতিং বা ধরতি ধারয়তি বা সঃ। বেদবাণীধারকঃ, বেদবেত্তা, গায়কঃ, সূয়্যঃ, ঘোটকঃ
भावार्थ
বিদ্যার ধারণকর্তা জ্ঞানবান পুরুষ অবিনাশী ব্রহ্মের সেই পরমপদ সম্বন্ধেই উপদেশ দান করিয়া থাকেন। ব্রহ্ম হৃদয়াদি অগম্য সূক্ষ্ম পদার্থের অভ্যন্তরেও অবস্থান করেন। ইহার অগম্য শক্তিতে সৃষ্টি, স্থিতি ও প্রলয়রূপ তিনপদ অবস্থান করে। যিনি সেই ব্রহ্মকে জানিয়াছেন তিনি আমাদের পিতারও পিতা।।
मन्त्र (बांग्ला)
প্র তদ্বোচেদমৃতস্য বিদ্বান্গর্বো ধাম পরমং গৃহা য়ৎ। ত্রীণি পদানি নিহিতা গুহাস্য য়স্তানি বেদ স পিতুষ্পিতাসৎ।।
ऋषि | देवता | छन्द
বেনঃ। ব্রহ্ম, আত্মা। ত্রিষ্টুপ্
भाषार्थ
(গন্ধর্বঃ) গৌ অর্থাৎ বেদবাণীর ধারক/ধারণকারী (অমৃতস্য বিদ্বান্) অবিনাশী ব্রহ্মের জ্ঞাতা, (তৎ) সেই ব্রহ্মের (প্রবোচেদ্) প্রবচন করে, (পরমম্ ধাম) যে ব্রহ্ম পরমধাম, অন্তিম প্রাপ্য স্থান, (তৎ) যিনি (গুহা) হৃদয়গুহায় বিদ্যমান। (অস্য) এই ব্রহ্মের (ত্রীণি পদানি) তিন পাদ (গুহা নিহিতা=নিহিতানি) হৃদয়-গুহায় নিহিত রয়েছে। (যঃ) যে উপাসক (তানি বেদ) সেই পাদসমূহকে জানে (সঃ) সে (পিতুঃ পিতা) পিতামহের সদৃশ (অসৎ) পূজনীয় হয়ে যায়।
टिप्पणी
[গন্ধর্বঃ=গাম্ বেদবাণীং (নিঘং০ ১।১১) ধারয়তীতি। ত্রীণি পদানি (যজু০ ৩১।৩, ৪)। যে এই তিন পাদেরও প্রবচন করতে পারে সে পিতামহের সদৃশ পূজনীয় হয়। এই তিন পাদও তাঁর হৃদয়গুহায় নিহিত থাকে, অতএব সে প্রত্যক্ষ করে।]
मन्त्र विषय
ব্রহ্মপ্রাপ্ত্যুপদেশঃ
भाषार्थ
(বিদ্বান্) বিদ্বান্ (গন্ধর্বঃ) বিদ্যা ধারণকারী পুরুষ (অমৃতস্য) অবিনাশী ব্রহ্মের (তৎ) সেই (পরমম্) সবোর্চ্চ (ধাম) পদের (প্রবোচদ্) উপদেশ করে (যৎ) যে পদ (গুহা=গুহায়াম্) গুহা [প্রত্যেক অগম্য পদার্থ হৃদয় আদি] এর ভেতরে রয়েছে। (অস্য) এই [ব্রহ্ম] এর (গুহা) গুহায় [অগম্যশক্তিতে] (ত্রীণি) তিন (পদানি) পদ (নিহিতা=০–তানি) নিহিত রয়েছে, (যঃ) যে [বিদ্বান্ পুরুষ] (তানি) তা (বেদ) জেনে নেয়, (সঃ) সে (পিতুঃ) পিতার (পিতা) পিতা (অসৎ) হয়ে যায়॥২॥
भावार्थ
বিদ্বান্ মহাত্মা পুরুষ সেই পরব্রহ্মের মহিমার সদা উপদেশ করতে থাকে। সেই ব্রহ্ম সূক্ষ্ম থেকে সূক্ষ্মতম এবং মহান্ থেকেও মহান্। উনার বশে/নিয়ন্ত্রণে ত্রিপদ, অর্থাৎ সংসারের সৃষ্টি, স্থিতি ও নাশ এই তিনটি অবস্থা, অথবা ভূত, ভবিষ্যৎ ও বর্ত্তমান, তিনটি কাল, অথবা সত্ত্ব, রজ ও তম, তিনটি গুণ বর্ত্তমান। যে মহাপুরুষ যোগী এই অবস্থার বিজ্ঞান ব্যষ্টি ও সমষ্টিরূপ জ্ঞাত হয়, সে পিতার পিতা অর্থাৎ মহাবিজ্ঞানীদের মধ্যে মহাবিজ্ঞানী হয় ॥২॥ ১–এই মন্ত্র কিছুটা আলাদাভাবে যজুর্বেদে আছে–অ০ ৩২। ম০ ৯। ২–মনু মহারাজ বলেছেন –অ০ ২।১৫৩। অজ্ঞো ভবতি বৈ বালঃ পিতা ভবতি মন্ত্রদঃ। অজ্ঞং হি বালমিত্যাহুঃ পিতেত্যেব তু মন্ত্রদম্ ॥১॥ অজ্ঞানীই বালক হয়, বেদোপদেষ্টা পিতা হয়। [মুনিগণ] অজ্ঞানীকেই বালক ও বেদোপদেষ্টাকেই পিতা বলে ॥১॥
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