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अथर्ववेद के काण्ड - 2 के सूक्त 12 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 12/ मन्त्र 1
    ऋषिः - भरद्वाजः देवता - द्यावापृथिवी, अन्तरिक्षम् छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
    2

    द्यावा॑पृथि॒वी उ॒र्व॑१न्तरि॑क्षं॒ क्षेत्र॑स्य॒ पत्न्यु॑रुगा॒योऽद्भु॑तः। उ॑ता॒न्तरि॑क्षमु॒रु वात॑गोपं॒ त इ॒ह त॑प्यन्तां॒ मयि॑ त॒प्यमा॑ने ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । उ॒रु । अ॒न्तरि॑क्षम् । क्षेत्र॑स्य । पत्नी॑ । उ॒रु॒ऽगा॒य: । अद्भु॑त: । उ॒त । अ॒न्तरि॑क्षम् । उ॒रु । वात॑ऽगोपम् । ते । इ॒ह । त॒प्य॒न्ता॒म् । मयि॑ । त॒प्यमा॑ने ॥१२.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    द्यावापृथिवी उर्व१न्तरिक्षं क्षेत्रस्य पत्न्युरुगायोऽद्भुतः। उतान्तरिक्षमुरु वातगोपं त इह तप्यन्तां मयि तप्यमाने ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    द्यावापृथिवी इति । उरु । अन्तरिक्षम् । क्षेत्रस्य । पत्नी । उरुऽगाय: । अद्भुत: । उत । अन्तरिक्षम् । उरु । वातऽगोपम् । ते । इह । तप्यन्ताम् । मयि । तप्यमाने ॥१२.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 12; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    सबकी रक्षा के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (द्यावापृथिवी=०–व्यौ) सूर्य और पृथिवी (उरु) विस्तीर्ण (अन्तरिक्षम्) मध्य में दीखनेवाला आकाश, (क्षेत्रस्य) निवासस्थान, संसार की (पत्नी) रक्षा करनेवाली [दिशा वा वृष्टि], (अद्भुतः) आश्चर्यस्वरूप (उरुगायः) विस्तृत स्तुतिवाला परमेश्वर, (उत) और (उरु) विस्तीर्ण (वातगोपम्) प्राणवायु से रक्षा किया हुआ (अन्तरिक्षम्) मध्यवर्ती अन्तःकरण [ये सब जो देव हैं] (ते) वे सब (इह) यहाँ पर [इस जन्म में] (मयि) मुझ (तप्यमाने) तपश्चर्या करते हुए पर (तप्यन्ताम्) ऐश्वर्यवाले होवें ॥१॥

    भावार्थ

    जब मनुष्य ब्रह्मचर्य आदि नियमों के पालन से विद्या ग्रहण करके देखभाल करता है, परमेश्वर और सम्पूर्ण सृष्टि के पदार्थ उस पुरुषार्थी पुरुष को ऐश्वर्य प्राप्त कराते हैं ॥१॥

    टिप्पणी

    १–द्यावापृथिवी। अ० २।१।४। ईदूदेद्द्विवचनं प्रगृह्यम्। पा० १।१।११। इति सन्धिविषये प्रकृतिभावः। सूर्यभूमी। उरु। महति ह्रस्वश्च। उ० १।३१। इति ऊर्णु आच्छादने–कु, नुलोपो ह्रस्वश्च। महत्। वड्रम्। अन्तरिक्षम्। अ० १।३०।३। अन्तर्+ईक्ष दर्शने–घञ्। आकाशम्। अन्तःकरणम्। क्षेत्रस्य। गुधृवीपचिवचि०। उ० ४।१६७। इति क्षि निवासगत्यैश्वर्येषु–त्र। निवासस्थानस्य संसारस्य भूमेर्वा। क्षियन्ति निवसन्ति अस्मिन्निति क्षेत्रमुक्तं लोकत्रयम्–इति सायणोऽपि। पत्नी। पत्युर्नो यज्ञसंयोगे। पा० ४।१।३२। इति पतिशब्दस्य नकारादेशः, ङीप् च। पालयित्री दिशा वृष्टिर्वा। उरुगायः। उरु+गै गाने–घञ्। उरुभिर्महद्भिः, यद्वा, उरु विस्तीर्णं गीयते सः। बहुगीयमानः। अद्भुतः। अदि भुवो डुतच्। उ० ५।१। अततीति अत सातत्यगमने–क्विप्। अत्, अद् वा अकस्मादर्थे। अत्+भू सत्तायां भा दीप्तौ वा डुतच्। आश्चर्यस्वरूपः। अपूर्वः। उत। अपि च। वातगोपम्। वातः प्राणवायुः, गोपाः गोपयिता यस्य, यद्वा प्राणवायुना गोप्यमानं धार्यमाणं यत्तद् अन्तरिक्षं हृदयम्। ते। सर्वे पदार्थाः। इह। अस्मिन् जन्मनि। तप्यन्ताम्। तप उपतापे ऐश्वर्ये च। दिवादिः। आत्मनेपदी–लोट्। ऐश्वर्यवन्तो भवन्तु। पश्यत–“तप्यते धनी, ईश्वरः स्यादित्यर्थः।” मयि। उपासके। तप्यमाने। तप उपतापे–कर्मणि शानच्। ब्रह्मचर्यादि–तपश्चर्यां कुर्वन्ति क्लिश्यमाने वा ॥

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    विषय

    दीस पुरुष का दीप्त संसार

    पदार्थ

    १. (द्यावापृथिवी) = द्युलोक और पृथिवीलोक, (उरु अन्तरिक्षम्) = विशाल अन्तरिक्ष क्(षेत्रस्य पत्नी) = [क्षियन्ति निवसन्ति अस्मिन्निति क्षेत्रमुक्तं लोकत्रयम्, तस्य पत्नी अधिपतिः देवता अग्निवायुसूर्यात्मिका-सा०] प्रथिवी की देवता अग्नि, अन्तरिक्ष की देवता वायु तथा युलोक की देवता सूर्य, (उरुगाय:) = [उरुभिः गीयमानः] वह बहुत-से स्तवन किया जाता हुआ (अद्भुतः) = सर्वलोकों को व्याप्त करनेवाला अद्भुत प्रभु (उत) = और (वायुगोपाम्) = वायु से रक्षण किया जाता हुआ वायु से धारण किया जाता हुआ (उरु अन्तरिक्षम्) = यह महा आकाश (ते) = वे सब (इह) = यहाँ (मयि तप्यमाने) = [तप दीसौं] मेरे दीत होने पर (तप्यन्ताम्) = दौत हों। २. वस्तुतः यह सारा संसार हमारा अपना ही प्रतिबिम्ब मात्र है। हम दीप्स हैं तो संसार हमें दीप्त ही दिखता है। मन्त्र का ऋषि 'भरद्वाज' अपने में शक्ति भरने से दीप्ति का अनुभव करता है,वही दीप्ति उसे संसार में प्रतिक्षित हुई प्रतीत होती है, उसे सारा संसार ही चमकता दिखता है। निराशावादी का संसार निराशा से भरा व मुाया हुआ होता है। इस आशावादी भरद्वाज का संसार खिला हुआ व दीप्त है।

    भावार्थ

    मेरा जीवन दीप्त हो और मैं सारे संसार को दौसरूप में ही देखू।

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    भाषार्थ

    (इह) इस पृथिवी पर (मयि तप्यमाने) मेरे तपश्चर्या करते हुए, (द्यावापृथिवी) द्युलोक और पृथिवी लोक, (उरु अन्तरिक्षम्) विस्तृत अन्तरिक्ष, (क्षेत्रस्य पत्नी) संसार क्षेत्र की रक्षिका शक्ति [अग्नि, वायु, और सूर्य आदि,] (उरुगायः) महागीयमान (अद्भुतः) अद्भुत परमेश्वर, (उत) तथा (वातगोपम्) वायु द्वारा सुरक्षित या वायु का रक्षक (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष (वे) वे सब (तप्यन्ताम्) तपश्चर्या करते हुए प्रतीत हों।

    टिप्पणी

    [जैसे सुखी को सब संसार सुखमय और दुःखी को दुःखमय प्रतीत होता है, वैसे तपस्वी को संसार तपश्चर्या करता हुआ प्रतीत होता है। परमेश्वर भी उसे तपस्वी प्रतीत होता है, जो कि विश्राम किये बिना संसार की रचना और पालना करता रहता है। अन्तरिक्षपद दो बार पठित है। प्रथम पठित अन्तरिक्ष है संसारव्यापी महा अन्तरिक्ष, और द्वितीय अन्तरिक्ष सीमित है वहाँ तक, जितनी सीमा में वायु का निवास है, इसे "वातगोपम्" कहा है।

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    विषय

    तपस्या की साधना

    भावार्थ

    (द्यावापृथिवी) द्यौ और पृथिवी और उनके समान इस देह में प्राण और अनान और गृह में माता और पिता (उरु) विशाल (अन्तरिक्षं) अन्तरिक्ष, आकाश एवं हृदय-देश और गृह के अन्य जन (क्षेत्रस्य पत्नी) समस्त लोकों के निवासस्थान और तीनों लोकों की पालक शक्ति वह ईश्वरी शक्ति और इस देह की पालिका चितिशक्ति और घर में धर्मपत्नी (उरुगायः) विशाल ब्रह्माण्ड में व्यापक बड़े २ देव विद्वानों से कीर्तित, महायशस्वी, परब्रह्म ओर देह में यह आत्मा (अद्भुतः) जो कि रहस्यमय आश्चर्यजनक, कभी न उत्पन्न होने वाला, अभूतपूर्व है (उत) और (वातगोपम्) वायु और प्राण से सुरक्षित यह (उरु) विशाल (अन्तरिक्षम्) चेतन संसार ओर देह का इन्द्रिय संसार (ते) वे सब (इह) इस दशा में जबकि (मयि) में (तप्यमाने) तपस्या करता हूं (तप्यन्ताम्) तपस्या करें और तप में सहायक हों।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजप्रव्रस्कं सूक्तम्। भरद्वाज ऋषिः। नाना देवताः। प्रथमया द्यावापृथिव्योः उरूगा यस्यान्तरिक्षस्य च स्तुतिः। द्वितीयया देवस्तुतिः। तृतीयया इन्द्रस्तुतिः। चतुर्थ्या आदित्यवस्वंगिरः पितॄणाम् सौम्यानां। पञ्चम्या, ब्रह्मविराट्तमोऽघ्न्यानां, पष्ठ्या मरुताम् सप्तम्या यमसदनात् ब्रह्मस्तुतिः। अष्टम्या अग्निस्तुतिः। २ जगती । १, ३-६ त्रिष्टुभः । ७, ८ अनुष्टुभौ। अष्टर्चं सूक्तम् ॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Self Protection and Development

    Meaning

    Let heaven and earth, expansive space, Mother Nature, divine sustainer of the universe and the human body, the wondrous sublime supreme soul, the vast firmament, sojourn of air and electric energy, may all these here in me strengthen and season me in the process of self-discipline.

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    Subject

    Dyāvā-Prthivī-Midspace

    Translation

    Heaven and earth, the vast midspace, the mistress of the universe, the wonderful wide-strider and the wind protected. vast midspace, may all these be inflamed while I am inflamed.

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    Translation

    Let the vital airs, the Pran and Udana; the broad space of heart; the mistress of the body, the consciousness; the wonderful energy of vitality; the abdominal cavity preserved by the vital airs; be influenced by the heat of austerity when I am over-powered by the effect of austerity.

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    Translation

    May the Earth and Heaven, the spacious Firmament, God, the Protector of the three regions, the wonderful immortal soul, praised by the learned, and the animate world dependent on air, help me in my religious austerity. [1]

    Footnote

    [1] Three regions: Earth, Heaven, Firmament.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १–द्यावापृथिवी। अ० २।१।४। ईदूदेद्द्विवचनं प्रगृह्यम्। पा० १।१।११। इति सन्धिविषये प्रकृतिभावः। सूर्यभूमी। उरु। महति ह्रस्वश्च। उ० १।३१। इति ऊर्णु आच्छादने–कु, नुलोपो ह्रस्वश्च। महत्। वड्रम्। अन्तरिक्षम्। अ० १।३०।३। अन्तर्+ईक्ष दर्शने–घञ्। आकाशम्। अन्तःकरणम्। क्षेत्रस्य। गुधृवीपचिवचि०। उ० ४।१६७। इति क्षि निवासगत्यैश्वर्येषु–त्र। निवासस्थानस्य संसारस्य भूमेर्वा। क्षियन्ति निवसन्ति अस्मिन्निति क्षेत्रमुक्तं लोकत्रयम्–इति सायणोऽपि। पत्नी। पत्युर्नो यज्ञसंयोगे। पा० ४।१।३२। इति पतिशब्दस्य नकारादेशः, ङीप् च। पालयित्री दिशा वृष्टिर्वा। उरुगायः। उरु+गै गाने–घञ्। उरुभिर्महद्भिः, यद्वा, उरु विस्तीर्णं गीयते सः। बहुगीयमानः। अद्भुतः। अदि भुवो डुतच्। उ० ५।१। अततीति अत सातत्यगमने–क्विप्। अत्, अद् वा अकस्मादर्थे। अत्+भू सत्तायां भा दीप्तौ वा डुतच्। आश्चर्यस्वरूपः। अपूर्वः। उत। अपि च। वातगोपम्। वातः प्राणवायुः, गोपाः गोपयिता यस्य, यद्वा प्राणवायुना गोप्यमानं धार्यमाणं यत्तद् अन्तरिक्षं हृदयम्। ते। सर्वे पदार्थाः। इह। अस्मिन् जन्मनि। तप्यन्ताम्। तप उपतापे ऐश्वर्ये च। दिवादिः। आत्मनेपदी–लोट्। ऐश्वर्यवन्तो भवन्तु। पश्यत–“तप्यते धनी, ईश्वरः स्यादित्यर्थः।” मयि। उपासके। तप्यमाने। तप उपतापे–कर्मणि शानच्। ब्रह्मचर्यादि–तपश्चर्यां कुर्वन्ति क्लिश्यमाने वा ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (ইহ) এই পৃথিবীতে (ময়ি তপ্যমানে) আমার তপশ্চর্যারত, (দ্যাবাপৃথিবী) দ্যুলোক এবং পৃথিবীলোক, (উরু অন্তরিক্ষম্) বিস্তৃত অন্তরিক্ষ, (ক্ষেত্রস্য পত্নী) সংসারক্ষেত্রের রক্ষিকা শক্তি [অগ্নি, বায়ু, এবং সূর্য আদি] (উরুগায়ঃ) মহাগীয়মান (অদ্ভুতঃ) অদ্ভুত পরমেশ্বর, (উত) এবং (বাতগোপম্) বায়ু দ্বারা সুরক্ষিত বা বায়ুর রক্ষক (অন্তরিক্ষম্) অন্তরিক্ষ (বে) সেই সব (তপ্যন্তাম্) তপশ্চর্যারত প্রতীত হোক।

    टिप्पणी

    [যেমন সুখীর সব সংসার সুখময় এবং দুঃখীর দুঃখময় প্রতীত হয়, তেমনিই তপস্বীর সংসার তপশ্চর্যারত প্রতীত হয়। পরমেশ্বরও তাঁর কাছে তপস্বী প্রতীত হয়, যিনি বিশ্রাম না করে সংসারের রচনা এবং পালন করতে থাকেন। অন্তরিক্ষপদ দুই বার পঠিত হয়েছে। প্রথম পঠিত অন্তরিক্ষ হল সংসারব্যাপী মহা অন্তরিক্ষ, এবং দ্বিতীয় অন্তরিক্ষ সীমিত রয়েছে সেখান পর্যন্ত, যতটা সীমায় বায়ুর নিবাস রয়েছে, একে “বাতগোপম্" বলা হয়েছে।]

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    मन्त्र विषय

    সর্বরক্ষোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (দ্যাবাপৃথিবী=০–ব্যৌ) সূর্য ও পৃথিবী (উরু) বিস্তীর্ণ (অন্তরিক্ষম্) মাঝে দর্শনীয় আকাশ, (ক্ষেত্রস্য) নিবাসস্থান, সংসারের (পত্নী) রক্ষাকারী [দিশা বা বৃষ্টি], (অদ্ভুতঃ) আশ্চর্যস্বরূপ (উরুগায়ঃ) বিস্তৃত স্তুতি-যোগ্য পরমেশ্বর, (উত) এবং (উরু) বিস্তীর্ণ (বাতগোপম্) প্রাণবায়ু দ্বারা রক্ষাকৃত (অন্তরিক্ষম্) মধ্যবর্তী অন্তঃকরণ [যে সব দেবতা আছে] (তে) সেই সব (ইহ) এখানে [এই জন্মে] (ময়ি) আমার (তপ্যমানে) তপশ্চর্যাকারীর প্রতি (তপ্যন্তাম্) ঐশ্বর্যবান হোক ॥১॥

    भावार्थ

    যখন মনুষ্য ব্রহ্মচর্য আদি নিয়মের পালন দ্বারা বিদ্যা গ্রহণ করে বিচার করে, পরমেশ্বর এবং সম্পূর্ণ সৃষ্টির পদার্থ সেই পুরুষার্থী পুরুষকে ঐশ্বর্য প্রাপ্ত করায় ॥১॥

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