अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 13/ मन्त्र 1
ऋषिः - अथर्वा
देवता - अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - दीर्घायुप्राप्ति सूक्त
4
आ॑यु॒र्दा अ॑ग्ने ज॒रसं॑ वृणा॒नो घृ॒तप्र॑तीको घृ॒तपृ॑ष्ठो अग्ने। घृ॒तं पी॒त्वा मधु॒ चारु॒ गव्यं॑ पि॒तेव॑ पु॒त्रान॒भि र॑क्षतादि॒मम् ॥
स्वर सहित पद पाठआ॒यु॒:ऽदा: । अ॒ग्ने॒ । ज॒रस॑म् । वृ॒णा॒न: । घृ॒तऽप्र॑तीक: । घृ॒तऽपृ॑ष्ठ: । अ॒ग्ने॒ । घृ॒तम् । पी॒त्वा । मधु॑ । चारु॑ । गव्य॑म् । पि॒ताऽइ॑व । पु॒त्रान् । अ॒भि । र॒क्ष॒ता॒त् । इ॒मम् ॥१३.१॥
स्वर रहित मन्त्र
आयुर्दा अग्ने जरसं वृणानो घृतप्रतीको घृतपृष्ठो अग्ने। घृतं पीत्वा मधु चारु गव्यं पितेव पुत्रानभि रक्षतादिमम् ॥
स्वर रहित पद पाठआयु:ऽदा: । अग्ने । जरसम् । वृणान: । घृतऽप्रतीक: । घृतऽपृष्ठ: । अग्ने । घृतम् । पीत्वा । मधु । चारु । गव्यम् । पिताऽइव । पुत्रान् । अभि । रक्षतात् । इमम् ॥१३.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ब्रह्मचारी के समावर्त्तन, विद्यासमाप्ति पर वस्त्र आदि के लिये उपदेश।
पदार्थ
(अग्ने) हे तेजस्विन् परमेश्वर ! तू (आयुर्दाः) जीवनदाता और (जरसम्) स्तुतियोग्य कर्म को (वृणानः) स्वीकार करनेवाला, (घृतप्रतीकः) प्रकाशस्वरूप और (घृतपृष्ठः) प्रकाश [वा सार तत्त्व] से सींचनेवाला है। (अग्ने) हे तेजस्विन् ईश्वर ! [अग्नि के समान] (मधु) मधुर, (चारु) निर्मल, (गव्यम्) गौ के (घृतम्) घृत को (पीत्वा) पीकर, (पिता इव) पिता के समान (पुत्रान्) पुत्रों को (इमम्) इस [ब्रह्मचारी] की (अभि) सब ओर से (रक्षतात्) रक्षा कर ॥१॥
भावार्थ
जैसे अग्नि गौ के घृत, काष्ठ आदि हवनसामग्री से प्रज्वलित होकर, हवन, अन्नसंस्कार, शिल्पप्रयोग आदि में उपयोगी होता है, वैसे ही परमेश्वर वेदविद्या के और बुद्धि, अन्न आदि पदार्थों के दान से मनुष्यों पर उपकार करता है, इसी प्रकार मनुष्यों को परस्पर उपकारी होना चाहिये ॥१॥
टिप्पणी
१–आयुर्दाः। आतो मनिन्क्वनिब्वनिपश्च। पा० ३।२।७४। इति आयुः+दा दाने–विच्। आयुः–अ० १।३०।३। जीवनदाता। अग्ने। हे तेजस्विन् परमेश्वर ! जरसम्। अ० १।३०।३। जरस्–अर्शआद्यच्। स्तुत्यम्। प्रशंसनीयं कर्म। वृणानः। वृङ् संभक्तौ–लटः शानच्। श्नाभ्यस्तयोरातः। पा० ६।४।१२२। इत्याकारलोपः। संभजमानः। स्वीकुर्वाणः। घृतप्रतीकः। अञ्चिघृसिभ्यः क्तः। उ० ३।८९। इति घृ भासि सेके च–क्त। अलीकादयश्च। उ० ४।२५। इति प्रति+इण् गतौ–कीकन्। घृता दीप्ताः प्रतीका अङ्गानि यस्य सः। प्रकाशस्वरूपः। घृतपृष्ठः। तिथपृष्ठगूथयूथप्रोथाः। उ० २।१२। इति पृषु सेके–थक् प्रत्ययान्तो निपातः। घृतस्य पृष्ठं सेचनं यस्मात् सः। प्रकाशेन सेचकः। घृतम्। आज्यम्। पीत्वा। पानेन स्वीकृत्य। मधु। मन–उ। मधुरम्। चारु। अ० २।५।१। मनोहरम्। गव्यम्। गोपयसोर्यत्। पा० ४।३।१६०। इति गो–यत्। वान्तो यि प्रत्यये। पा० ६।१।७९। इति अव्। गोसम्बन्धि। पिता। पाता पालकः, जनकः। इव। यथा। पुत्रान्। अ० १।११।५। पूङ् शोधे–क्त्र। शुभकर्मणा मातापित्रादिशोधकान्। तनयान्। अपत्यानि। अभि। सर्वतः। रक्षतात्। हेस्तातङ् आदेशः। पाहि। इमम्। एनमुपासकम्। ब्रह्मचारिणम् ॥
विषय
गोघृत द्वारा अग्निहोत्र
पदार्थ
२. हे (अग्ने) = अग्निकुण्ड में स्थापित होनेवाले अग्ने! तू (आयुर्दाः) = हमें दीर्घायुष्य देनेवाला है। हमारे लिए (जरसम्) = पूर्ण जरा-अवस्था का (वृणान:) = वरण करनेवाला है। अग्निहोत्र करते हुए हम युवावस्था में ही समास जीवनवाले नहीं हो जाते, अपितु हम जरावस्थापर्यन्त आयुष्य को प्राप्त करते हैं। २. हे अग्ने! तू (घृतप्रतीकः) = घृत के मुखवाला है और (पतपृष्ठः) = घृत की पृष्ठवाला है। अग्निहोत्र में आरम्भिक आहुतियाँ घृत की दी जाती हैं, अन्तिम आहुतियाँ भी घृत की ही होती हैं, बीच में अन्य हविर्द्रव्यों की आहुतियाँ होती हैं। ३. हे अग्ने! तू (मधु) = अत्यन्त मधुर (चारु) = सुन्दर (गव्यं घृतम्) = गौ के घृत को (पीत्वा) = पीकर (इमम्) = इस अग्निहोत्र करनेवाले को इसप्रकार (अभिरक्षतात्) = शरीर व मानस व्याधियों व आधियों से सुरक्षित कर (इव) = जैसे पिता (पुत्रान्) = पिता पुत्रों का रक्षण करता है। गोघृत प्रबल कृमिनाशक है। इसके अग्निहोत्र से घर में रोग-कृमियों का रहना सम्भव नहीं रहता एवं यह गोघृत मनुष्य को नौरोग बनाता है।
भावार्थ
अग्निहोत्र में गोघृत का प्रयोग करें तो यह हमें सब रोगों से सुरक्षित करता है। रोगकृमियों का नाश करके यह हमें नौरोग बनाता है। अग्निहोत्र में आरम्भ में भी प्रत की आहुतियाँ होती है और समाप्ति पर भी। बीच में अन्य हव्य पदार्थ डाले जाते हैं।
सूचना
टिप्पणी-(घृतं पीत्वा मधु चारु गव्यम्)-शब्द इस बात को भी स्पष्ट कर रहे हैं कि दीर्घायुष्य के लिए गोघृत का प्रयोग अत्यावश्यक है।
भाषार्थ
(अग्ने) हे यज्ञियाग्नि ! (आयुर्दा:) आयु का तू दान करती है, (जरसम् वृणानः) जरावस्था का तू संभजन करती है [अतः जरावस्था का तू प्रदान कर], (घृतप्रतीकः) घृत द्वारा अभिव्यक्त अवयवोंवाली तथा (घृतपृष्ठः) घृत द्वारा स्पृष्ट हुई (अग्ने) हे अग्नि ! (मधुचारू, गव्यम् घृतम् पीत्वा) मधुर, रुचिकर या निर्मल गोघृत पीकर ( इमम् ) इस ब्रह्मचारी को (रक्षतात्) तू रक्षा कर, (इव ) जैसेकि (पिता पुत्रान्) पिता पुत्रों की रक्षा करता है।
टिप्पणी
[सूक्त में ब्रह्मचारी का वर्णन है, जोकि गुरुकुल में प्रवेश पा रहा है। यज्ञियाग्नि, आयु को दीर्घ करती है। यज्ञियाग्नि में गोघृत की पर्याप्त आहुतियां देनी चाहिएँ। यह अग्नि रोगों से रक्षा करती है। स्वरक्षार्थ प्रतिदिन ब्रह्मचारी अग्निहोत्र किया करे, यह अभिप्राय है। वृणान:=वृङ् संभवतो (क्र्यादिः)।]
विषय
ब्रह्मचर्य व्रत में आयु, बल बल और दृढ़ता की प्रार्थना
भावार्थ
हे (अग्ने) ज्ञानवान् परमेश्वर ! ज्ञानप्रकाशक गुरो ! आप (आयुर्दाः) आयु जीवन, प्राण को देने हारे हैं अतः आप (जरसं) वृद्ध अवस्था आयु और जीव की हानि को ( वृणानः ) दूर करते हुए (घृतप्रतीकः) दीप्तिस्वरूप सूर्य के समान, (घृतपृष्ठः) देदीप्यमान ज्ञानरसों के स्पर्श अर्थात् प्रदान कराने हारे और समस्त तेजों के आश्रय भूत हैं । हे अग्ने ! परमात्मन् ! जिस प्रकार (पुत्रान्) पुत्रों को ( पिता इव ) पिता ( चारुगव्यं ) गाय के उत्तम मधुर घी के भोजनों से पुष्ट करता है और उनकी रक्षा करता है उसी प्रकार आप (घृतं) तेजोमय, स्नेहमय, आदिस्रोत से निकले हुए (चारु) आस्वादन करने योग्य, मनोहर उत्तम (मधुं) मधु के समान मधुर अमृतस्वरूप, या पुनः २ अभ्यास करने योग्य ( गव्यं ) आत्मासम्बन्धी (घृतं ) ज्ञान को ( पीत्वा ) पान करा कर ( इमम् ) इस नव ब्रह्मचारी की ( अभि रक्षतात् ) सब प्रकार से रक्षा करें ।
टिप्पणी
(च०) ‘पितेव पुत्रमभिरक्षतादिमान् स्वाहा’ यजु०। (प्र०) ‘जरसं गृणानः’ इति हि० गृ० स०। याजुषे पाठे, (प्र०) ‘हविषा वृधासंः’ (च०) ‘पितेव पुत्रमभिरक्ष’ इति शौ० ग्र० स०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। १ अग्निर्देवता। २, ३ बृहस्पतिः। ४, ५ विश्वेदेवाः। १ अग्निस्तुतिः। २, ३ चन्द्रमसे वासः प्रार्थना। ४, ५ आयुः प्रार्थना। १-३ त्रिष्टुभः। ४ अनुष्टुप्। ५ विराड् जगती। पञ्चर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Investiture
Meaning
Agni, light of life, giver of life and enlightenment, protector of life and health till full age of hundred years, over all cover of human life, inspiring as rising flames of ghrta from the vedi, strong and shining constantly by life-giving vitality of cow’s ghrta, sweet, pleasing and brilliant, pray protect this child, this graduate, as father protects his children in every way possible. Pray vest this our holy child, this brahmachari with ceremonial robes all round.
Translation
O adorable Lord, you verily are the bestower of long life. May you bless this young boy to a long old age. O fire, with bright front and bright back, having enjoyed the sweet and pleasant melted butter of cow, may you guard this boy from all sides just as a father his sons. (investiture of a young boy of 18 years, prior to his marriage-go dānam)
Translation
The fire of Yajna is the giver of life, embodiment of effulgence and driving away the untimely senileness it is moistened with ghee. Consuming the sweet nice -cow-ghee it saves the disciple so as a father protects his children.
Translation
O Wise 'God, Thou art the giver of life, averting old age, O God, Refulgent like the Sun, Thou art the asylum for all lustres. Just as a father nourishes his sons by making them drink savory, nice cow’s milk, so pray, protect this newly initiated Brahmchari by making him acquire the sweet, excellent spiritual knowledge! [1]
Footnote
[1] See Yajur, 35-17.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१–आयुर्दाः। आतो मनिन्क्वनिब्वनिपश्च। पा० ३।२।७४। इति आयुः+दा दाने–विच्। आयुः–अ० १।३०।३। जीवनदाता। अग्ने। हे तेजस्विन् परमेश्वर ! जरसम्। अ० १।३०।३। जरस्–अर्शआद्यच्। स्तुत्यम्। प्रशंसनीयं कर्म। वृणानः। वृङ् संभक्तौ–लटः शानच्। श्नाभ्यस्तयोरातः। पा० ६।४।१२२। इत्याकारलोपः। संभजमानः। स्वीकुर्वाणः। घृतप्रतीकः। अञ्चिघृसिभ्यः क्तः। उ० ३।८९। इति घृ भासि सेके च–क्त। अलीकादयश्च। उ० ४।२५। इति प्रति+इण् गतौ–कीकन्। घृता दीप्ताः प्रतीका अङ्गानि यस्य सः। प्रकाशस्वरूपः। घृतपृष्ठः। तिथपृष्ठगूथयूथप्रोथाः। उ० २।१२। इति पृषु सेके–थक् प्रत्ययान्तो निपातः। घृतस्य पृष्ठं सेचनं यस्मात् सः। प्रकाशेन सेचकः। घृतम्। आज्यम्। पीत्वा। पानेन स्वीकृत्य। मधु। मन–उ। मधुरम्। चारु। अ० २।५।१। मनोहरम्। गव्यम्। गोपयसोर्यत्। पा० ४।३।१६०। इति गो–यत्। वान्तो यि प्रत्यये। पा० ६।१।७९। इति अव्। गोसम्बन्धि। पिता। पाता पालकः, जनकः। इव। यथा। पुत्रान्। अ० १।११।५। पूङ् शोधे–क्त्र। शुभकर्मणा मातापित्रादिशोधकान्। तनयान्। अपत्यानि। अभि। सर्वतः। रक्षतात्। हेस्तातङ् आदेशः। पाहि। इमम्। एनमुपासकम्। ब्रह्मचारिणम् ॥
बंगाली (2)
भाषार्थ
(অগ্নে) হে যজ্ঞিয়াগ্নি ! (আয়ুর্দাঃ) আয়ু তুমি দান করো, (জরসম্ বৃণানঃ) জরাবস্থার তুমি সংভজন করো [অতঃ জরাবস্থা তুমি প্রদান করো], (ঘৃতপ্রতীকঃ) ঘৃত দ্বারা অভিব্যক্ত অবয়বযুক্ত/অবয়ববিশিষ্ট তথা (ঘৃতপৃষ্ঠঃ) ঘৃত দ্বারা স্পৃষ্ট (অগ্নে) হে অগ্নি ! (মধুচারু, গব্যম্ ঘৃতম্ পীত্বা) মধুর, রুচিকর বা নির্মল গোঘৃত পান করে (ইমম্) এই ব্রহ্মচারীকে (রক্ষতাৎ) তুমি রক্ষা করো, (ইব) যেমন (পিতা পুত্র) পিতা পুত্রের রক্ষা করে।
टिप्पणी
[সূক্তে ব্রহ্মচারীর বর্ণনা আছে, যে গুরুকুলে প্রবেশ পাচ্ছে। যজ্ঞিয়াগ্নি, আয়ুকে দীর্ঘ করে। যজ্ঞিয়াগ্নিতে গোঘৃতের পর্যাপ্ত আহুতি দেওয়া উচিত। এই অগ্নি রোগের হাত থেকে রক্ষা করা। স্বরক্ষার্থে প্রতিদিন ব্রহ্মচারী অগ্নিহোত্র করুক, এটাই অভিপ্রায়। বৃণানঃ= বৃঙ্ সংভক্তৌ (ক্র্যাদি)।]
मन्त्र विषय
ব্রহ্মচারিণঃ সমাবর্ত্তনে বস্ত্রাদিধারণোপদেশঃ
भाषार्थ
(অগ্নে) হে তেজস্বিন্ পরমেশ্বর ! তুমি (আয়ুর্দাঃ) জীবনদাতা ও (জরসম্) স্তুতিযোগ্য কর্ম (বৃণানঃ) স্বীকারকারী, (ঘৃতপ্রতীকঃ) প্রকাশস্বরূপ ও (ঘৃতপৃষ্ঠঃ) প্রকাশ [বা সার তত্ত্ব] দ্বারা সীঞ্চনকারী। (অগ্নে) হে তেজস্বিন্ ঈশ্বর ! [অগ্নির সমান] (মধু) মধুর, (চারু) নির্মল, (গব্যম্) গাভীর (ঘৃতম্) ঘৃত (পীত্বা) পান করে, (পিতা ইব) পিতার সমান (পুত্রান্) পুত্রদের (ইমম্) এই [ব্রহ্মচারীর] (অভি) সব দিক থেকে (রক্ষতাৎ) রক্ষা করো ॥১॥
भावार्थ
যেমন অগ্নি গাভীর ঘৃত, কাষ্ঠ আদি হবনসামগ্রী দ্বারা প্রজ্বলিত হয়ে, হবন, অন্নসংস্কার, শিল্পপ্রয়োগ প্রভৃতিতে উপযোগী হয়, সেভাবেই পরমেশ্বর বেদবিদ্যার এবং বুদ্ধি, অন্ন আদি পদার্থের দান দ্বারা মনুষ্যদের উপকার করে, এইভাবে মনুষ্যদের পরস্পর উপকারী হওয়া উচিত ॥১॥
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