Loading...
अथर्ववेद के काण्ड - 2 के सूक्त 19 के मन्त्र
मन्त्र चुनें
  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 19/ मन्त्र 1
    ऋषिः - अथर्वा देवता - अग्निः छन्दः - एकावसानानिचृद्विषमात्रिपाद्गायत्री सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
    2

    अग्ने॒ यत्ते॒ तप॒स्तेन॒ तं प्रति॑ तप॒ यो॑३ ऽस्मान्द्वेष्टि॒ यं व॒यं द्वि॒ष्मः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग्ने॑ । यत् । ते॒ । तप॑: । तेन॑ । तम् । प्रति॑ । त॒प॒ । य: । अ॒स्मान् । द्वेष्टि॑ । यम् । व॒यम् । द्वि॒ष्म: ॥१९.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्ने यत्ते तपस्तेन तं प्रति तप यो३ ऽस्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्ने । यत् । ते । तप: । तेन । तम् । प्रति । तप । य: । अस्मान् । द्वेष्टि । यम् । वयम् । द्विष्म: ॥१९.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 19; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    कुप्रयोग के त्याग के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (अग्ने) हे अग्नि [अग्नि पदार्थ] (यत्) जो (ते) तेरा (तपः) प्रताप [ऐश्वर्य] है, (तेन) उससे (तम् प्रति) उस [दोष] पर (तप) प्रतापी हो, (यः) जो (अस्मान्) हमसे (द्वेष्टि) अप्रिय करता है, [अथवा] (यम्) जिससे (वयम्) हम (द्विष्मः) अप्रिय करते हैं ॥१॥

    भावार्थ

    दुराचारी, कामी, क्रोधी आदि पुरुष की मति भ्रष्ट हो जाती है और कुप्रयोग से शारीरिक और बाह्य अग्नि दुःखदायी होती और वही अग्नि सुप्रयोग से विचारशील सदाचारियों को सुखप्रद होती है। ऐसा ही आगे समझना चाहिये ॥१॥ ऐसा कहा भी है– गुणा गुणज्ञेषु गुणा भवन्ति ते निर्गुणं प्राप्य भवन्ति दोषाः ॥ गुण, गुणवान् को प्राप्त करके निखर उठते हैं, परन्तु वही निर्गुणी को पाकर दोष हो जाते हैं ॥

    टिप्पणी

    १–अग्ने। अग्निनाम तेजोविशेष ! ते। त्वदीयम्। तपः। तप सन्तापैश्वर्ययोः–असुन्। प्रतापः। ऐश्वर्यम्। तेन। तपसा। तम्। दोषम्। प्रति। लक्षीकृत्य। तप। प्रतापी भव। यः अस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः। इति व्याख्यातम्–अ० २।११।३ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    अनि का तप

    पदार्थ

    १. हे (अग्ने) = [अगि गतौ] सब दोषों को गति के द्वारा भस्म करनेवाले प्रभो! (यत् ते तपः) = जो आपका तप है, (तेन)  = उसके द्वारा (तं प्रति तप) = उसे तपानेवाले होओ, (यः) = जो (अस्मान देष्टि) = हमारे प्रति द्वेष करता है और परिणामत: (यं वयं द्विष्मः) = जिससे हम भी प्रीति नहीं कर पाते। २. यहाँ मन्त्र के उत्तरार्ध में 'य:' एक वचन है और 'अस्मान्' बहुवचन है। इससे स्पष्ट है कि कोई एक व्यक्ति सारी समाज का विरोध करता है, सारी समाज की उन्नति में विघातक बनता है। यदि वह साम [शान्ति से समझाना] आदि उपायों से अपनी समाज-विरोधी गतिविधियों से नहीं रुकता, तो अन्ततः समाज भी उसे अवाञ्छनीय समझने लगती है और अग्नि से-राष्ट्र सञ्चालक से प्रार्थना करती है कि अब इसे आप ही दण्ड-सन्तप्त कीजिए। ३. समाज प्रभु से भी यही आराधना करती है कि आपमें ही सम्पूर्ण तप है-उस तप से सन्तप्त करके इसके जीवन को भी द्वेष के मल से रहित कीजिए। इसे भी कुछ ऐसी प्रेरणा प्राप्त हो कि यह अपना दोष देखे और उसके लिए उसमें पश्चात्ताप की भावना उत्पन्न हो। यह पश्चात्ताप उसे द्वेष से ऊपर उठानेवाला हो।

    भावार्थ

    अग्नि का तप समाज-विद्वेषी को तप्त करके उसे द्वेष के मल से रहित करे।

    सूचना

    'अग्नि' शरीर में वाणी है। इस वाणी का तप द्वेष की भावनाओं को दूर करनेवाला हो। प्रचारक वाणी से इसप्रकार के उपदेश करे कि उस द्वेषी का मन पश्चात्ताप की भावना से सन्तप्त हो उठे और वह द्वेष से ऊपर उठने का निश्चय कर ले।

    इस भाष्य को एडिट करें

    भाषार्थ

    (अग्ने) हे अग्नि ! (यत् ते तप:) जो तेरा ताप है, ( तेन ) उस द्वारा (तम् ) उसे (प्रति तप) तपा ( यः) जो कि (अस्मान् द्वेष्टि) हमारे साथ द्वेष करता है, (यम्) और जिसके साथ (वयम्) हम (द्विष्मः) अप्रीति करते हैं ।

    टिप्पणी

    [मन्त्र में अस्मान्-और-यम् द्वारा समाज और व्यक्ति को सूचित किया है। जो व्यक्ति समाज के साथ द्वेष करता है अतः जिसके साथ समाज प्रीति नहीं करती उसे अग्नि के प्रति समर्पित किया है, उचित दण्ड देने के लिये। द्वेष्टि=द्विष अप्रीतौ (अदादिः)। व्यक्ति तो समाज के साथ भावात्मक द्वेष करता है, इसलिये समाज उसके साथ अप्रीति करता है। सूक्त १९-२३ में अग्नि, वायु, सूर्य, चन्द्र और आप: का वर्णन हुआ है। अग्नि आदि नाम परमेश्वर के भी हैं। यथा "तदेवाग्निस्तदादिस्यस्तद् वायुस्तदु चन्द्रमाः। तदेव शुक्रं तद् ब्रह्म ताऽआपः स प्रजापति:" (यजु० ३२।१)। परमेश्वर के ही नाम हैं अग्नि, आदित्य अर्थात् सूर्य, वायु, चन्द्रमा, आपः, शुक्र, ब्रह्म और प्रजापति। अतः इन ५ सूक्तों में परमेश्वर का भी वर्णन है। इन ५ सूक्तों में "योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः" द्वारा मनसापरिक्रमा मन्त्रों को सुचित किया है, जिनमें कि द्वेष्टा और अप्रीति करनेवालों को परमेश्वर के जम्भ के प्रति समर्पित किया है और समाज स्वयं उसे दण्ड नहीं देता। परमेश्वर के प्रति समर्पण इसलिये कि वह ही सच्चा न्यायकारी है, दण्डव्यवस्था के लिये अग्नि के सम्बन्ध में "तप:" है संतापन शक्ति, "हरः" है संहार शक्ति, "अग्नि:" है ज्वाला, "शोचिः" है शोकजननशव्ति, शुच शोके (भ्वादिः), "तेज:" है प्रसिद्ध तेज। परमेश्वर के सम्बन्ध में "तप:" है "यस्य ज्ञानमयं तपः" (मुण्डक उप मण्डक १, खण्ड १), "हर:" है संहारशक्तिः "अर्चिः" है सौरार्चिः सौरज्वाला (यथा१ गीता ११।१२), तेजः है परमेश्वर का तेज, तेजस्वी प्रकाश।] [१. अथवा "न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः। तमेव भान्तमनु भाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति" (मुण्डक उप० २२)]

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    द्वेष करने वालों के सम्बन्ध में प्रार्थना ।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) अग्नि के समान तपाने हारे परमात्मन् ! (यः) जो (अस्मान्) हमें (द्वेष्टि) द्वेष करता है (यं) और जिस पापी पुरुष को (वयं) हम भी (द्विष्मः) प्रेम नहीं करते (तं) उसको (यत्) जो तेरा (तपः) संतापकारी पापनिवारक बल है (तेन) उससे (प्रति तप) संतापित कर, जिससे वह पश्चात्ताप करके पाप कार्य को छोड़ दे ।

    टिप्पणी

    ‘यो अस्मान्’, ‘य वयं च’ इति पाठभेदः प्रायः सर्वासु, ऋक्षु, मै० सं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः । अग्निर्देवता । १-४ निचृत् सामगायत्री, २ भुरिग् विषमा । पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (4)

    Subject

    The Way to Purification: 19-23

    Meaning

    Agni, the fire and blaze that’s yours, let it burn up that which hates us and that which we hate to suffer.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject

    Agni

    Translation

    O fire-divine, whatever heat you have, with that may you burn hot towards him who hates us and whom we hate.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    Let the fire with that of its heat, burn against who bears malice to us and whom we bear malice to i.e. the disease.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    O God, with Thy power of reforming sinners, reform him, who hates us, or whom we do not love!

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १–अग्ने। अग्निनाम तेजोविशेष ! ते। त्वदीयम्। तपः। तप सन्तापैश्वर्ययोः–असुन्। प्रतापः। ऐश्वर्यम्। तेन। तपसा। तम्। दोषम्। प्रति। लक्षीकृत्य। तप। प्रतापी भव। यः अस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः। इति व्याख्यातम्–अ० २।११।३ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (অগ্নে) হে অগ্নি ! (যৎ তে তপঃ) যে তোমার তাপ রয়েছে, (তেন) তা দ্বারা (তম্) তাঁকে (প্রতি তপ) তপ্ত করো (যঃ) যে/যাঁরা (অস্মান্ দ্বেষ্টি) আমাদের প্রতি দ্বেষ করে, (যম্) এবং যাঁর প্রতি (বয়ম্) আমরা (দ্বিষ্মঃ) অপ্রীতি করি।

    टिप्पणी

    [মন্ত্রে অস্মান্-এবং-যম্ দ্বারা সমাজ এবং ব্যক্তিকে সূচিত করা হয়েছে। যে ব্যক্তি সমাজের সাথে শত্রুতা করে অতঃ যাঁর প্রতি সমাজ প্রীতি করে না তাঁকে অগ্নির প্রতি সমর্পিত করা হয়েছে, যথোচিত শাস্তি দেওয়ার জন্য। দ্বেষ্টি =দ্বিষ অপ্রীতৌ (অদাদিঃ)। ব্যক্তি তো সমাজের সাথে ভাবাত্মক দ্বেষ করে, এইজন্য সমাজ তাঁর সাথে অপ্রীতি করে। সূক্ত ১৯-২৩ এ অগ্নি, বায়ু, সূর্য, চন্দ্র এবং আপঃ এর বর্ণনা হয়েছে। অগ্নি আদি নাম পরমেশ্বর ও রয়েছে। যথা "তদেবাগ্নিস্তদাদিত্যস্তদ্ বায়ুস্তদু চন্দ্রমাঃ। তদেব শুক্রং তদ্ ব্রহ্ম তাঽআপঃ স প্রজাপতিঃ” (যজু০ ৩২।১)। পরমেশ্বরের নাম হল অগ্নি, আদিত্য অর্থাৎ সূর্য, বায়ু, চন্দ্র, আপঃ, শুক্র, ব্রহ্ম এবং প্রজাপতি। অতঃ এই ৫ টি সূক্তে পরমেশ্বরেরও বর্ণনা হয়েছে। এই ৫ টি সূক্তে “যোঽস্মান্ দ্বেষ্টি যং বয়ং দ্বিষ্মঃ" দ্বারা মনসাপরিক্রমা মন্ত্রকে সূচিত করা হয়েছে, যার মধ্যে দ্বেষ্টা এবং অপ্রীতিকারীকে পরমেশ্বরের জম্ভের প্রতি সমর্পিত করা হয়েছে এবং সমাজ স্বয়ং তাঁকে দণ্ড দেয় না। পরমেশ্বরের প্রতি সমর্পণ এইজন্য কারণ তিনি ন্যায়কারী, দণ্ডব্যবস্থার জন্য। অগ্নির সম্বন্ধে "তপঃ" হল সন্তাপন শক্তি, "হরঃ" হল সংহার শক্তি, “অর্চিঃ" হল জ্বালা (flame), "শুচিঃ” হল শোকজননশক্তি, শুচ শোকে (ভ্বাদিঃ), "তেজঃ" হল প্রসিদ্ধ তেজ। পরমেশ্বরের সম্বন্ধে "তপঃ" হল "যস্য জ্ঞানময়ং তপঃ" (মুণ্ডক০ উপ০ মণ্ডক ১,খণ্ড ১), "হরঃ" হল সংহারশক্তিঃ; "অর্চিঃ" হল সৌরাচিঃ সৌরজ্বালা (flame) (যথা১ গীতা ১১ ।১২ ) তেজঃ হল পরমেশ্বরের তেজ, তেজস্বী প্রকাশ।] [১. অথবা "ন তত্র সূর্যো ভাতি ন চন্দ্রতারক নেমা বিদ্যুতো ভান্তি কুতোঽয়মগ্নিঃ। তমেব ভান্তমনু ভাতি সর্ব তস্য ভাসা সর্বমিদং বিভাতি" (মুণ্ডক উপ০ ২।২)।]

    इस भाष्य को एडिट करें

    मन्त्र विषय

    কুপ্রয়োগত্যাগায়োপদেশঃ

    भाषार्थ

    (অগ্নে) হে অগ্নি [অগ্নি পদার্থ] (যৎ) যে (তে) তোমার (তপঃ) প্রতাপ [ঐশ্বর্য] আছে, (তেন) তার দ্বারা (তম্ প্রতি) সেই [দোষের] ওপর (তপ) প্রতাপশালী হও, (যঃ) যা (অস্মান্) আমাদের প্রতি (দ্বেষ্টি) অপ্রীতি করে, [অথবা] (যম্) যার প্রতি (বয়ম্) আমরা (দ্বিষ্মঃ) অপ্রীতি করি ॥১॥

    भावार्थ

    দুরাচারী, কামী, ক্রোধী আদি পুরুষদের মতি ভ্রষ্ট হয়ে যায় এবং কুপ্রয়োগ দ্বারা শারীরিক ও বাহ্য অগ্নি দুঃখদায়ী হয় এবং সেই অগ্নি সুপ্রয়োগ দ্বারা বিচারশীল সদাচারীদের সুখপ্রদ হয়। এমনই আগে বোঝা উচিৎ ॥১॥ এমনটা বলাও হয়েছে– গুণা গুণজ্ঞেষু গুণা ভবন্তি তে নির্গুণং প্রাপ্য ভবন্তি দোষাঃ ॥ গুণ, গুণবানকে প্রাপ্ত করে জাজ্বল্যমান হয়, কিন্তু সেই নির্গুণীকে প্রাপ্ত করে দোষ হয়ে যায় ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top