अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 1
ऋषिः - मातृनामा
देवता - गन्धर्वाप्सरसः
छन्दः - विराड्जगती
सूक्तम् - भुवनपति सूक्त
27
दि॒व्यो ग॑न्ध॒र्वो भुव॑नस्य॒ यस्पति॒रेक॑ ए॒व न॑म॒स्यो॑ वि॒क्ष्वीड्यः॑। तं त्वा॑ यौमि॒ ब्रह्म॑णा दिव्य देव॒ नम॑स्ते अस्तु दि॒वि ते॑ स॒धस्थ॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठदि॒व्य: । ग॒न्ध॒र्व: । भुव॑नस्य । य: । पति॑: । एक॑: । ए॒व । न॒म॒स्य᳡: । वि॒क्षु । ईड्य॑: । तम् । त्वा॒ । यौ॒मि॒ । ब्रह्म॑णा । दि॒व्य॒ । दे॒व॒ । नम॑: । ते॒ । अ॒स्तु॒ । दि॒वि । ते॒ । स॒धऽस्थ॑म् ॥२.१॥
स्वर रहित मन्त्र
दिव्यो गन्धर्वो भुवनस्य यस्पतिरेक एव नमस्यो विक्ष्वीड्यः। तं त्वा यौमि ब्रह्मणा दिव्य देव नमस्ते अस्तु दिवि ते सधस्थम् ॥
स्वर रहित पद पाठदिव्य: । गन्धर्व: । भुवनस्य । य: । पति: । एक: । एव । नमस्य: । विक्षु । ईड्य: । तम् । त्वा । यौमि । ब्रह्मणा । दिव्य । देव । नम: । ते । अस्तु । दिवि । ते । सधऽस्थम् ॥२.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परमेश्वर सर्वशक्तिमान् है, इसका उपदेश।
पदार्थ
(यः) जो तू (दिव्यः) दिव्य [अद्भुतस्वभाव] (गन्धर्वः) गन्धर्व [भूमि, सूर्य, वेदवाणी वा गति का धारण करनेवाला] (भुवनस्य) सब ब्रह्माण्ड का (एकः) एक (एव) ही (पतिः) स्वामी, (विक्षु) सब प्रजाओं [वा मनुष्यों] में (नमस्यः) नमस्कारयोग्य और (ईड्यः) स्तुतियोग्य है। (तम्) उस (त्वा) तुझसे, (दिव्य) हे अद्भुतस्वभाव (देव) जयशील परमेश्वर ! (ब्रह्मणा) वेद द्वारा (यौमि) मैं मिलता हूँ, (ते) तेरे लिये (नमः) नमस्कार (अस्तु) हो, (दिवि) प्रत्येक व्यवहार में (ते) तेरा (सधस्थम्) सहवास है ॥१॥
भावार्थ
धीर, वीर, ऋषि, मुनि पुरुष उस परम पिता जगदीश्वर की सत्ता को अपने में और प्रत्येक पदार्थ में वैदिकज्ञान की प्राप्ति से साक्षात् करके अभिमान छोड़कर आत्मबल बढ़ाते हुए आनन्द भोगते हैं ॥१॥ १–(गन्धर्व) परमेश्वर का नाम है, देखिये–ऋग्वेद मं० ९ सू० ८३ म० ४ ग॒न्ध॒र्व इ॒त्था प॒दम॑स्य रक्षति॒ पाति॑ दे॒वानां॒ जनि॑मा॒न्यद्भु॑तः। गृ॒भ्णाति॑ रि॒पुं नि॒धया॑ नि॒धाप॑तिः सु॒कृत्त॑मा॒ मधु॑नो भ॒क्षमाशत ॥१॥ (गन्धर्वः) पृथिवी आदि का धारण करनेवाला, गन्धर्व, (इत्था) सत्यपन से (अस्य) इस जगत् की (पदम्) स्थिति की (रक्षति) रक्षा करता है और वह (अद्भुतः) आश्चर्यस्वरूप (देवानाम्) दिव्य गुणवालों के (जनिमानि) जन्मों अर्थात् कुलों की (पाति) चौकसी रखता है। (निधापतिः) पाश [बन्धन] का स्वामी (निधया) पाश से (रिपुम्) वैरी को (गृभ्णाति) पकड़ता है, (सुकृत्तमाः) बड़े-बड़े सुकृती पुण्यात्मा लोगों ने (मधुनः) मधुर रस के (भक्षम्) भोग को (आशत) भोगा है ॥
टिप्पणी
१–दिव्यः। छन्दसि च। पा० ५।१।६७। इति दिव्–यः। दिवं प्रकाशं स्वर्गं वार्हतीति। द्योतनात्मकः। स्वर्गीयः। मनोज्ञः। गन्धर्वः। अ० २।१।२। गो+धृ–व। वाग्भूमिसूर्यस्वर्गाणां धारकः। परमेश्वरः। भुवनस्य। अ० २।१।३। जगतः। नमस्यः। तदर्हति। पा० ५।१।६३। इति नमस्–यत्। तित् स्वरितम्। पा० ६।१।१८५। इति स्वरितत्वम्। नमस्कारयोग्यः। विक्षु। विश प्रवेशने–क्विप्। विशः=मनुष्याः–निघ० २।३। प्रजासु। मनुष्येषु। ईड्यः। ऋहलोर्ण्यत्। पा० ३।१।१२४। इति ईड स्तुतौ–ण्यत्। स्तुत्यः। यौमि। उतो वृद्धिर्लुकि हलि। पा० ७।३।८९। इति यु मिश्रणे–वृद्धिः। संयोजयामि। ब्रह्मणा। अ० १।८।४। वेदज्ञाने। ते। तुभ्यम्। नमःस्वस्तिस्वाहा०। पा० २।३।१६। इति चतुर्थी। अनुदात्तं सर्वमपादादौ। पा० ८।१।१८। इत्यनुदात्तः। दिवि। दिवु क्रीडाविजिगीषाव्यवहारद्युतिस्तुति०–क्विप्। स्वर्गे। प्रकाशे। व्यवहारे। सधस्थम्। सह तिष्ठन्त्येनेति। सह+ष्ठा गतिनिवृत्तौ–अधिकरणे क प्रत्ययः। सधमाधस्थयोश्छन्दसि। पा० ६।३।९६। इति सहस्य सधादेशः। सहस्थानम्। निवासस्थानम्। अन्यत् सुगमं व्याख्यातं च ॥
विषय
ज्ञान व स्तवन द्वारा प्रभु-प्राप्ति
पदार्थ
१. वे प्रभु (दिव्य:) = [दिवि भवः] सदा अपने प्रकाशमय रूप में निवास करनेवाले हैं, (गन्धर्व:) = वेदवाणी को धारण करनेवाले हैं, इस वेदवाणी को ही वे सृष्टि के प्रारम्भ में अग्नि आदि ऋषियों के हृदयों में स्थापित करते हैं। (भुवनस्य यः पतिः) = सारे ब्रह्माण्ड के जो रक्षक हैं, वे (एक: एव) = अद्वितीय प्रभु ही (नमस्य:) = नमस्कार के योग्य हैं, (विक्षु ईड्य:) = सब प्रजाओं में स्तुति करने योग्य हैं। जहाँ भी, जो कुछ विभूति, श्री व ऊर्ज दृष्टिगोचर होता है, वह उस प्रभु का ही है। वे प्रभु ही उपासनीय है। २. हे प्रभो! (तं त्वा) = उस आपको मैं (ब्रह्मणा) = ज्ञान व स्तवन के द्वारा [ब्रहा-ज्ञान, स्तोत्र] (यौमि) = प्राप्त करता हूँ-अपने को आपके साथ जोड़ता हूँ। हे (दिव्य देव) = प्रकाशमय ज्ञानपुञ्ज प्रभो! (ते नमः) = मैं आपके प्रति नतमस्तक होता हूँ। (ते दिवि) = आपके प्रकाशमय लोक में (सधस्थम् अस्तु) = मेरा आपके साथ ठहरना हो। मैं मुक्त होकर आपके साथ विचरनेवाला बनूं।
भावार्थ
प्रकाशमय प्रभु का ही उपासन करना योग्य है। ज्ञान व स्तवन के द्वारा हम प्रभु को प्राप्त करें और उसके साथ स्थित होनेवाले बनें।
भाषार्थ
(दिव्यः) द्यूलोक में विद्यमान, (गन्धर्वः) पृथिवी का धारण करने वाला, (भुवनस्य) उत्पन्न जगत् का (यः पति) जो स्वामी है, (एकः एव) वह एक ही (विक्षु नमस्य: ) प्रजाओं में नमस्कारयोग्य और (ईड्यः) स्तुति योग्य है। (दिव्यम् देवम् ) दिव्यदेव ( तम्, त्वा) उस तुझको ( ब्रह्मणा) वेदोक्त विधि द्वारा (यौमि) मैं अपने साथ संयुक्त करता हूँ। (नमस्ते अस्तु) तुझे नमस्कार हो । (दिवि ते सधस्थम्) द्युलोक में तेरा साथ बैठने का स्थान है, सहवास है ।
टिप्पणी
[गन्धर्वः= गाम् पृथिवीं धारयतीति (निघं० १।१)। यौमि = यु मिश्रणे (अदादिः), मिश्रित करना अर्थात् सम्बद्ध करना। द्युलोक में सूर्य, तारागण का भी वास है और परमेश्वर का भी वास है। द्युलोक परमेश्वर की ज्योति द्वारा भासमान हो रहा है। देखने पर पृथिवी से भिन्न द्युलोक ही प्रतीत होता है, जोकि पृथिवी पर छत रूप में छाया हुआ है। अत: इसे परमेश्वर का स्थान कहा है ।]
विषय
गन्धर्व, परमात्मा और उसकी शक्तियां
भावार्थ
(दिव्यः) सर्वत्र रमणशील, प्रकाश स्वरूप, विद्वानों और ध्यान योगियों के रमण करने योग्य (गन्धर्वः) समस्त गतिमान् पदार्थ, सूर्य पृथिवी आदि पिण्डों, एवं वेदवाणी को धारण करने हारा ( यः ) जो ( भुवनस्य ) समस्त जगत् का (पतिः) पालक है वह (एकः) एक ( एव ) ही (विक्षु) वह समस्त प्रजात्रों में (ईड्यः) स्तुति करने और ( नमस्यः ) नमस्कार करने योग्य है । हे ( दिव्य ) विद्वानों के एकमात्र रमणयोग्य, (देव) सर्वप्रकाशक परमेश्वर (तं त्वा) उस तुझको (ब्रह्मणा) वेदमय ज्ञान से ( यौमि ) प्राप्त होता हूं और (दिवि) ज्ञानमय मोक्षरूप परमधाम में ( ते ) तेरा ही ( सधस्थम् ) सत्संग ( अस्तु ) मुझे प्राप्त हो । भगवन् ( ते नमः ) तुझे मेरा नमस्कार है ।
टिप्पणी
(तु०) ‘देव दिव्य’ इति पैप्प० सं० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मातृनामा ऋषिः । गन्धर्वाप्सरसो देवताः । १ विराड् जगती । २, ३ त्रिष्टुभौ। ४ त्रिपदा विराड्नाम गायत्री । ५ भुरिग् अनुष्टुप् । चतुर्ऋचं सूक्तम् ॥
इंग्लिश (4)
Subject
Lord Supreme
Meaning
Self-refulgent, heavenly lord sustainer of the dynamic universe of stars, planets and satellites in space and of the divine voice of knowledge reverberating in space, sole and absolute master ruler and controller of the world of his creation with love and justice, is the only one supreme lord, Parameshvara, worthy of worship and homage of adoration for people. O lord of cosmic light and infinite kindness, I come to you by the divine voice of Veda and the yogaic path of spiritual illumination. Homage and obeisance to you with total surrender. Your presence shines and is reached in the heaven of inner consciousness and the cosmic regions of divine refulgence.
Subject
Gandharva-Apsarasa
Translation
The divine sustainer of earth, the gandharva, who is the Lord of universe, is the only one worthy of homage and praise by people. To you, being such, I approach through prayer. O divine Lord, homage be to you. In heaven is your common abode.
Translation
I, through the knowledge obtain the benefit of that cloud which is wonderful object and the only one protector of the world and possessed of the weapon of lighting is appreciable by the living subjects. I express my word of appreciation for it, Its place is in the atmospheric region.
Translation
The Divine God, Who is the Lord of the World, should alone be honored and worshipped by the people. I realize Thee, O Divine God, through the knowledge of the vedas. May I enjoy Thy company in the highest stage of salvation. Homage to Thee![1]
Footnote
[1] Gandharva means God, See. Rigveda, 9-83-4.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१–दिव्यः। छन्दसि च। पा० ५।१।६७। इति दिव्–यः। दिवं प्रकाशं स्वर्गं वार्हतीति। द्योतनात्मकः। स्वर्गीयः। मनोज्ञः। गन्धर्वः। अ० २।१।२। गो+धृ–व। वाग्भूमिसूर्यस्वर्गाणां धारकः। परमेश्वरः। भुवनस्य। अ० २।१।३। जगतः। नमस्यः। तदर्हति। पा० ५।१।६३। इति नमस्–यत्। तित् स्वरितम्। पा० ६।१।१८५। इति स्वरितत्वम्। नमस्कारयोग्यः। विक्षु। विश प्रवेशने–क्विप्। विशः=मनुष्याः–निघ० २।३। प्रजासु। मनुष्येषु। ईड्यः। ऋहलोर्ण्यत्। पा० ३।१।१२४। इति ईड स्तुतौ–ण्यत्। स्तुत्यः। यौमि। उतो वृद्धिर्लुकि हलि। पा० ७।३।८९। इति यु मिश्रणे–वृद्धिः। संयोजयामि। ब्रह्मणा। अ० १।८।४। वेदज्ञाने। ते। तुभ्यम्। नमःस्वस्तिस्वाहा०। पा० २।३।१६। इति चतुर्थी। अनुदात्तं सर्वमपादादौ। पा० ८।१।१८। इत्यनुदात्तः। दिवि। दिवु क्रीडाविजिगीषाव्यवहारद्युतिस्तुति०–क्विप्। स्वर्गे। प्रकाशे। व्यवहारे। सधस्थम्। सह तिष्ठन्त्येनेति। सह+ष्ठा गतिनिवृत्तौ–अधिकरणे क प्रत्ययः। सधमाधस्थयोश्छन्दसि। पा० ६।३।९६। इति सहस्य सधादेशः। सहस्थानम्। निवासस्थानम्। अन्यत् सुगमं व्याख्यातं च ॥
बंगाली (3)
पदार्थ
(য়ঃ) যিনি (দিব্যঃ) দিব্য স্বভাব (গন্ধর্ব) ভূমি, সূর্য, বেদবাণী বা গতির ধারণকর্তা, (ভূবনস্য) সব ব্রহ্মাণ্ডের (একঃ) এক (এব) ই (পতিঃ) স্বামী (বিক্ষু) সব প্রজার নিকট (নমস্যঃ) নমস্কার যোগ্য ও (ঈড্যঃ) স্তুতি যোগ্য (তম্) সেই (ত্বা) তোমার সহিত (দিব্য) জয়শীল (দেব) পরমাত্মন! (ব্রহ্মণা) বেদ দ্বারা (য়ৌমি) আমি মিলিত হইতেছি। (তে) তোমার জন্য (নমঃ) নমস্কার (অঞ্জু) হউক (দিবি) প্রত্যেক ব্যবহারে (তে) তোমার (সধস্থানম্) সহবাস।।
भावार्थ
যিনি দিব্য স্বভাব, ভূমি-সূর্য-বেদবাণী বা গতির ধারণকর্তা, সব ব্রহ্মণ্ডের একই স্বামী, সব প্রজার সিকট নমস্কার যোগ্য ও স্তুতি যোগ্য,সেই তোমার সহিত হে অদ্ভূত স্বভাব জয়শীল পরমেশ্বর! বৈদিক জ্ঞানের সাহার্যে মিলিত হই। তোমাকে নমস্কার! প্রত্যেক কার্যের মধ্যেই তুমি অধিষ্ঠিত রহিয়াছ।।
मन्त्र (बांग्ला)
দিব্যো গন্ধর্বো ভবনস্য য়স্পতিরেক এব নমস্যো বিক্ষ্বীড্যঃ ৷ তং ত্বা য়ৌমি ব্ৰহ্মণা দিব্য দেব নমস্তে অস্ত্র দিবি তে সধস্থম্।।
ऋषि | देवता | छन्द
মাতৃনামা। গন্ধর্বাপ্সরসঃ। বিরাড্ জগতী
भाषार्थ
(দিব্যঃ) দ্যুলোকে বিদ্যমান, (গন্ধর্বঃ) পৃথিবীর ধারণকারী, (ভুবনস্য) উৎপন্ন জগতের (যঃ পতি) যিনি স্বামী, (একঃ এব) তিনি এক (বিক্ষু নমস্যঃ) প্রজাদের নমস্কারযোগ্য এবং (ইড্য) স্তুতি-যোগ্য। (দিব্য দেব) দিব্যদেব (তম্, ত্বা) সেই তোমাকে (ব্রহ্মণা) বেদোক্ত বিধি দ্বারা (যৌমি) আমি নিজের সাথে সংযুক্ত করি। (নমস্তে অস্তু) তোমাকে নমস্কার হোক। (দিবি তে সধস্থম্) দ্যুলোকে তোমার সাথে বসার স্থান।
टिप्पणी
[গন্ধর্বঃ=গাম্ পৃথিবীং ধারয়তীতি (নিঘং০ ১।১)। যৌমি = যু মিশ্রণে (অদাদিঃ), মিশ্রিত করা অর্থাৎ সংবদ্ধ করা। দ্যুলোকে সূর্য, তারারও বাস এবং পরমেশ্বরেরও বাস। দ্যুলোক পরমেশ্বরের জ্যোতি দ্বারা ভাসমান হচ্ছে। দেখলে পৃথিবী থেকে ভিন্ন দ্যুলোক প্রতীত হয়, যা পৃথিবীর উপর ছাদ রূপে বিস্তৃত রয়েছে। অতএব ইহাকে পরমেশ্বরের স্থান বলা হয়েছে।]
मन्त्र विषय
পরমেশ্বরঃ সর্বশক্তিমান্নিত্যুপদিশ্যতে
भाषार्थ
(যঃ) যে তুমি (দিব্যঃ) দিব্য [অদ্ভুতস্বভাব] (গন্ধর্বঃ) গন্ধর্ব [ভূমি, সূর্য, বেদবাণী বা গতির ধারণকারী] (ভুবনস্য) সব ব্রহ্মাণ্ডের (একঃ) এক (এব) ই (পতিঃ) স্বামী, (বিক্ষু) সব প্রজাদের [বা মনুষ্যদের] মধ্যে (নমস্যঃ) নমস্কারযোগ্য এবং (ঈড্যঃ) স্তুতিযোগ্য। (তম্) সেই (ত্বা) তোমার সাথে, (দিব্য) হে অদ্ভুতস্বভাব (দেব) জয়শীল পরমেশ্বর ! (ব্রহ্মণা) বেদ দ্বারা (যৌমি) আমি প্রাপ্ত হই, (তে) তোমার জন্য (নমঃ) নমস্কার (অস্তু) হোক, (দিবি) প্রত্যেক ব্যবহারে (তে) তোমার (সধস্থম্) সহবাস আছে ॥১॥
भावार्थ
ধীর, বীর, ঋষি, মুনি পুরুষ সেই পরম পিতা জগদীশ্বরের সত্তাকে নিজের মধ্যে এবং প্রত্যেক পদার্থে বৈদিকজ্ঞানের প্রাপ্তি দ্বারা সাক্ষাৎ করে অভিমান পরিত্যাগ করে আত্মবল বৃদ্ধি করে আনন্দ ভোগ করে॥১॥ ১–(গন্ধর্ব) পরমেশ্বরের নাম, দেখো–ঋগ্বেদ মং০ ৯ সূ০ ৮৩ ম০ ৪ গন্ধর্ব ইত্থা পদমস্য রক্ষতি পাতি দেবানাং জনিমান্যদ্ভুতঃ । গৃভ্ণাতি রিপুং নিধয়া নিধাপতিঃ সুকৃত্তমা মধুনো ভক্ষমাশত ॥১॥ (গন্ধর্বঃ) পৃথিবী আদির ধারণকারী, গন্ধর্ব, (ইত্থা) সত্যতা দ্বারা (অস্য) এই জগতের (পদম্) স্থিতির (রক্ষতি) রক্ষা করে এবং তিনি (অদ্ভুতঃ) আশ্চর্যস্বরূপ (দেবানাম্) দিব্য গুণান্বিতের (জনিমানি) জন্ম অর্থাৎ কুলের (পাতি) সতর্ক রাখেন। (নিধাপতিঃ) ফাঁদ [বন্ধনের] স্বামী (নিধয়া) ফাঁদ দ্বারা (রিপুম্) শত্রুকে (গৃভ্ণাতি) ধরে/বন্দী করে, (সুকৃত্তমাঃ) বড়ো-বড়ো সুকৃতী পুণ্যাত্মাগণ (মধুনঃ) মধুর রসের (ভক্ষম্) ভোগ (আশত) ভোগ করেছে॥
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