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अथर्ववेद के काण्ड - 2 के सूक्त 23 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 23/ मन्त्र 1
    ऋषिः - अथर्वा देवता - आपः छन्दः - एकावसानासमविषमात्रिपाद्गायत्री सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
    1

    आपो॒ यद्व॒स्तप॒स्तेन॒ तं प्र॑ति तपत॒ यो॑३ ऽस्मान्द्वेष्टि॒ यं व॒यं द्वि॒ष्मः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आप॑: । यत् । व॒: । तप॑: । तेन॑ । तम् । प्रति॑ । त॒प॒त॒ । य: । अ॒स्मान् । द्वेष्टि॑ । यम् । व॒यम् । द्वि॒ष्म: ॥२३.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आपो यद्वस्तपस्तेन तं प्रति तपत यो३ ऽस्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आप: । यत् । व: । तप: । तेन । तम् । प्रति । तपत । य: । अस्मान् । द्वेष्टि । यम् । वयम् । द्विष्म: ॥२३.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 23; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    कुप्रयोग त्याग के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (आपः) हे जल [जल पदार्थ !] (यत्) जो (वः) तुम्हारा (तपः) प्रताप है, (तेन) उससे (तम् प्रति) उस [दोष] पर (तपत) प्रतापी हो, (यः) जो (अस्मान्) हमसे (द्वेष्टि) अप्रिय करे, (यम्) जिससे (वयम्) हम (द्विष्मः) अप्रिय करें ॥१॥

    भावार्थ

    वृष्टि, नदी, कूप आदि का जल अनावृष्टि दोषों को मिटाकर अन्न आदि पदार्थों को उत्पन्न करके प्राणियों को बल और सुख देता है और वही कुप्रबन्ध से दुःख का कारण होता है, ऐसे ही राजा सामाजिक नियमों के विरोधी दुष्टों का नाश करके प्रजा को समृद्ध करता और सुख देता है ॥१॥

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    विषय

    ५ स्वराविषमात्रिपाद्गायत्री॥

    पदार्थ

    १,  २,  ३,  ४,  ५  एवं  मन्त्र संख्या के  केवल भावार्थ ही है |

    भावार्थ

    सर्वव्यापक प्रभु अपने तप आदि के द्वारा द्वेषियों के द्वेष को दूर करे। राजा भी राष्ट्र में गुप्तचरों व अध्यक्षों के द्वारा व्यापक-सा होकर जहाँ भी द्वेष को देखे उसे दूर करने के लिए यत्नशील हो। ज्ञान-प्रचारक भी अपने हृदय को विशाल व उदार बनाता हुआ ज्ञान प्रसार व अपने क्रियात्मक उदाहरण से लोगों को द्वेष की भावना से ऊपर उठने की प्ररेणा दे।

     

    उन्नीस से तेईस तक पाँच सूक्तों का उपदेश

     

    १. इन सूक्तों का भाव ऊपर दिया ही है। मूल भावना द्वेष से ऊपर उठने की है। इस द्वेष से ऊपर उठने के लिए 'अनि, वायु, सूर्य, चन्द्र व आप:' बनना चाहिए। अग्नि की भाँति गतिशील [अगि गतौ], वायु की भाँति गति के द्वारा बुराइयों को दूर करनेवाला[वा गतिगन्धनयो:], सूर्य की भाँति सरणशील व कर्मप्रेरणा देनेवाला, चन्द्रमा की भाँति आहादमय तथा आपः की भौति व्यापकतावाला बनने से द्वेष का प्रसङ्ग रहता ही नहीं। २. इसीप्रकार द्वेष को दूर करने के लिए 'तपस, हरस, अर्चिस्, शोचिस् व तेजस्' का साधन आवश्यक है। तप सब मलों का

    अथ द्वितीयं काण्डम् हरण करता है। ज्ञानज्वाला जीवन को शुचि व दीस बनाती है। तेजस्विता के सामने द्वेषादि भाव स्वयं अभिभूत व निस्तेज हो जाते है, तेजस्विता के साथ द्वेष का निवास नहीं। ३. अग्नि शरीर में 'वाणी' है, वायु 'प्राण', सूर्य'चक्षु', चन्द्र 'मन' और आपः 'रेतस्' है। 'वाणी का संयम, प्राणसाधना[प्राणायाम], तत्त्वदर्शन, मनो-निग्रह, ऊर्ध्व-रेतस्कता' द्वेष आदि सब अशुभ भावनाओं को समास कर देते हैं। एवं ये पाँच साधन मनुष्य के जीवन को अत्यन्त उन्नत व सुन्दर बनानेवाले हैं। अगले सूक्त में सब अशुभ वासनाओं के विनाश का ही निर्देश है। इस सूक्त का ऋषि ब्रह्मा है-वृद्धिवाला। देवता 'आयुः' है-उत्तम जीवन । ब्रह्मा चाहता है कि -

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    भाषार्थ

    [आपः है व्यापक परमेश्वर (यजु:० ३२।१), आप्लृ व्याप्तौ (स्वादिः) । प्राकृतिक आप: अर्थात् जल में तपाने की शक्ति गौण है।]

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    विषय

    द्वेष करने वालों के सम्बन्ध में प्रार्थना ।

    भावार्थ

    हे (आपः) सब के प्राप्तव्य ! सब के शरण्य ! इत्यादि पूर्ववत् । भौतिकपक्ष में—अग्नि, चन्द्र, सूर्य और आपः उनसे अपने शत्रु को विनाश करने का संकल्प किया है। प्रत्येक में पांच शक्तियां हैं। (१) तपः= पीड़क शक्ति, संतापकारी शक्ति, (२) हर:=संहार सामर्थ्य, विनाशकारी या विध्वंसकारी शक्ति, (३) आर्चिः=ज्वाला, भस्म कर देने या निर्मूल करने की शक्ति, (४) शोचिः= पवित्र करने और दुःखित करने की शक्ति और (५) तेजः = तेज, तीक्ष्णता और तीव्रता की शक्ति । इन शक्तियों को अपने वश करके इनका उचित साधनों से प्रयोग करके अपने शत्रु को वश करना चाहिये ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    पूर्ववत् ऋषिः। आपो देवता। १-४ समविषमा ५ स्वराड् विषमा । पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Apah Devata

    Meaning

    O waters, the heat that is in you, with that wash off that which hates us and that which we hate to suffer.

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    Subject

    Apah-Waters

    Translation

    O waters, whatever tormenting force you have, with that may you torment him, who hates us and whom we hate.

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    Translation

    Let the waters, with that of their heat, etc, like the pervious Hymn XIX.

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    Translation

    O God, the Goal and shelter of all, with Thy power of penitence, let him repent for his misdeed who hates us, or whom we do not love!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (আপঃ) হে আপঃ (যৎ বঃ) যে তোমার (তপঃ) তোমার তাপ রয়েছে (তেন) তা দ্বারা (তম্ প্রতি) তাঁকে (তপ) তুমি তপ্ত করো (যঃ অস্মান) যে আমাদের সাথে দ্বেষ করে, এবং (যম্ বয়ম্ দ্বিষ্মঃ) এইজন্য যার প্রতি আমরা প্রেম করিনা।

    टिप्पणी

    [আপঃ, ব্যাপক পরমেশ্বর (যজুঃ০ ৩২। ১), আপ্লৃ ব্যাপ্তৌ (স্বাদিঃ)। প্রাকৃতিক আপঃ অর্থাৎ জলের মধ্যে তপ্ত করার শক্তি হল গৌণ।]

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    मन्त्र विषय

    কুপ্রয়োগত্যাগায়োপদেশঃ

    भाषार्थ

    (আপঃ) হে জল [জল পদার্থ !] (যৎ) যে (বঃ) তোমার (তপঃ) প্রতাপ আছে, (তেন) তা দ্বারা (তম্ প্রতি) সেই [দোষের] ওপর (তপত) প্রতাপী হও, (যঃ) যা (অস্মান্) আমাদের প্রতি (দ্বেষ্টি) অপ্রীতি করে, [অথবা] (যম্) যার প্রতি (বয়ম্) আমরা (দ্বিষ্মঃ) অপ্রীতি করি ॥১॥

    भावार्थ

    বৃষ্টি, নদী, কূপ ইত্যাদির জল অনাবৃষ্টি দোষ দূর করে অন্ন আদি পদার্থ উৎপন্ন করে প্রাণীদের বল ও সুখ প্রদান করে এবং তা কুপ্রবন্ধ দ্বারা দুঃখের কারণ হয়, এভাবেই রাজা সামাজিক নিয়মের কবিরোধী দুষ্টের নাশ করে প্রজাদের সমৃদ্ধ করে এবং সুখ প্রদান করে ॥১॥

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