अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 26/ मन्त्र 1
ऋषिः - सविता
देवता - पशुसमूहः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - पशुसंवर्धन सूक्त
1
ए॒ह य॑न्तु प॒शवो॒ ये प॑रे॒युर्वा॒युर्येषां॑ सहचा॒रं जु॒जोष॑। त्वष्टा॒ येषां॑ रूपधेयानि॒ वेदा॒स्मिन्तान्गो॒ष्ठे स॑वि॒ता नि य॑च्छतु ॥
स्वर सहित पद पाठआ । इ॒ह । य॒न्तु॒ । प॒शव॑: । ये । प॒रा॒ऽई॒यु: । वा॒यु: । येषा॑म् । स॒ह॒ऽचा॒रम् । जु॒जोष॑ । त्वष्टा॑ । येषा॑म् । रू॒प॒ऽधेया॑नि । वेद॑ । अ॒स्मिन् । तान् । गो॒ऽस्थे । स॒वि॒ता । नि । य॒च्छ॒तु॒ ॥२६.१॥
स्वर रहित मन्त्र
एह यन्तु पशवो ये परेयुर्वायुर्येषां सहचारं जुजोष। त्वष्टा येषां रूपधेयानि वेदास्मिन्तान्गोष्ठे सविता नि यच्छतु ॥
स्वर रहित पद पाठआ । इह । यन्तु । पशव: । ये । पराऽईयु: । वायु: । येषाम् । सहऽचारम् । जुजोष । त्वष्टा । येषाम् । रूपऽधेयानि । वेद । अस्मिन् । तान् । गोऽस्थे । सविता । नि । यच्छतु ॥२६.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
मेल करने का उपदेश।
पदार्थ
(पशवः) वे पशु [गौ आदि वा मनुष्यादि प्राणी] (इह) यहाँ (आ यन्तु) आ जावें, (ये) जो (परेयुः) भटक गये हैं। (येषाम्) जिनके (सहचारम्) साथ-साथ चलना (वायुः) पवन ने (जुजोष) अङ्गीकार किया है। (त्वष्टा) सूक्ष्म क्रियाओं का रचनेवाला [सूक्ष्मदर्शी पुरुष] (येषाम्) जिनके (रूपधेयानि) रूपों [शारीरिक रूपों और मानसिक स्वभावों] को (वेद) पहिचानता है, (सविता) वह सबका चलानेवाला [गोपाल वा सभाप्रधान पुरुष] (तान्) उन [पशुओं] को (अस्मिन्) इस (गोष्ठे) [गोट, अर्थात् गोशाला वा सभा] में (नियच्छतु) बाँधकर रक्खे ॥१॥
भावार्थ
इस सूक्त में (पशु) शब्द का अर्थ गौ आदि और सब प्राणी मात्र है। “पशु व्यक्त वाणीवाले और अव्यक्त वाणीवाले हैं–” निरु० ११।२९। अर्थात् मनुष्य आदि और गौ आदि। जैसे विचारशील गोपाल, गोरक्षक वायु लगने से इधर-उधर भटकते हुए गौ आदि पशुओं को प्रेम के साथ बाड़े में लाकर बाँधता है, वैसे ही सूक्ष्मदर्शी प्रधान पुरुष अपने आश्रितों और सम्बन्धियों को, जो वायु लगने अर्थात् कुसंस्कार पाने से भटक गये हों, उपकार और प्रीति की दृष्टि से एकत्र करके सभा में नियमबद्ध करे ॥१॥ पशु शब्द प्राणी मात्र के अर्थ में प्रायः वेद में आया है, जैसे–त्वमी॑शिषे पशू॒नां पार्थि॑वानां॒ ये जा॒ता उ॒त वा॒ ये ज॒नित्राः॑ ॥ अथर्ववेद २।२८।३ ॥ तू पृथिवी के पशुओं [प्राणियों] का राजा है, जो उत्पन्न हुए हैं अथवा जो उत्पन्न होंगे। य ईशे॑ पशु॒पतिः॑ पशू॒नां चतु॑ष्पदामु॒त यो द्वि॒पदा॑म् ॥अथर्ववेद २।३४।१। जो पशुपति चौपाये और जो दोपाये पशुओं का स्वामी है ॥
टिप्पणी
१–इह। अत्र गोष्ठे सभायां वा। आ+यन्तु। इण् गतौ। आगच्छन्तु। पशवः। अ० १।१५।२। दृशिर् प्रेक्षणे–कु, पश्यादेशः। पशवः=व्यक्तवाचश्चाव्यक्तवाचश्च–निरु० ११।२९। मनुष्यगवादिप्राणिनः। जीवाः। परा–ईयुः। इण् गतौ–लिट्। विमुखा जग्मुः। वायुः। अ० २।२०।१। पवनः। येषाम्। पशूनाम्। सहचारम्। सह+चर गतौ–घञ्। सङ्गमनम्। जुजोष। जुषी प्रीतिसेवनयोः–लिट्, छन्दसि परस्मैपदम्। जुजुषे। सेवते स्म। त्वष्टा। अ० २।५।६। त्वक्ष तनूकरणे–तृन्। व्यवहारतनूकर्ता। सूक्ष्मदर्शी पुरुषः। रूपधेयानि। भागरूपनामभ्यो धेयः। वार्त्तिकम्। पा० ५।४।२५। नानारूपाणि। विविधस्वभावान्। वेद। विद ज्ञाने–लट्। वेत्ति। जानाति। अस्मिन्। निकटस्थे। गोष्ठे। अ० २।१४।२। गोशालायां सभायाम्। सविता। अ० १।१८।२। पशुप्रेरकः। सभाप्रधानः। नि+यच्छतु। इषुगमियमां छः। पा० ७।३।७७। इति निपूर्वाद् यमेः शपि छत्वम्। नियमयतु नियमे स्थापयतु ॥
विषय
गौओं का घर से बाहर जाना
पदार्थ
१. (इह) = यहाँ-हमारे घरों में (पशवः) = पशु (आयन्तु) = लौटकर आनेवाले हों, (ये) = जो (परेयुः) = चरने के लिए दूर निकल गये हैं, (येषाम्) = जिन पशुओं के (सहचारम्) = सहचरण को (वायुः जुजोष) = वायु ने सेवन किया, अर्थात् जो पशु खूब खुली वायु में घूमनेवाले बने, वे दिनभर वायुसेवन के पश्चात् अब घरों में लौटें। २. (त्वष्टा) = [इन्द्रो वै त्वष्टा-ऐ०६.१०] दीसिमान् सूर्य (येषाम्) = जिनके (रूपधेयानि वेद) = रूपों में धारण को जानता है, अर्थात् जिनमें उत्तम रूप स्थापित है। ये गौ आदि पशु जितना सूर्य-किरणों के सम्पर्क में समय बिता पाएंगे, उतना ही सुरूप होते हुए उत्तम दूधवाले भी होंगे। (तान्) = उन पशुओं को (सविता) = दूध का अभिषव व दोहन करनेवाला व्यक्ति (अस्मिन् गोष्ठे) = इस गोष्ठ स्थान में (नियच्छतु) = बाँधकर रक्खे।
भावार्थ
प्रात: दुग्धदोहने के बाद गौएँ चरने के लिए चारागाहों में जाएँ। इस समय वायु व सूर्य के सम्पर्क में रहती हुई वे स्वस्थ होंगी व पौष्टिक दूध देनेवाली होंगी।
भाषार्थ
(इह) यहां (आ यन्तु) आ जाय (पशवः) पशु (ये) जोकि (पराऽईयुः) परे गये हैं [चरने के लिये ], (येषाम् सहचारम् वायुः जुजोष) जिनका, साथ-विचरना, वायु ने किया है। (त्वष्टा) सूर्य (येषाम्) जिनके (रुपधेयानि) रूपों अर्थात् स्वरूपों को (वेद) जानता है, ( तान्) उनको ( अस्मिन् गोष्ठे) इस गोशाला में (सविता) प्रात:काल का उदित हुआ सूर्य (नि यच्छतु) नियमित करे [स्थित रहने दे]। जुजोष= जुषी प्रीतिसेवनयोः (तुदादिः)।
टिप्पणी
[मन्त्र वर्णन कवितामय है। पशु चरने के लिये गोशाला से बाहर खुले वायुमण्डल में जाते हैं, मानो वहां उनका साथी होता है वहां का वायु, उनकी रक्षा के लिये। त्वष्टा है१ रश्मियों से आकीर्ण सूर्य जोकि पशुओं के स्वरूपों का भेदज्ञापक होता है सविता२ का काल है उदीयमान सूर्य; इस काल तक पशु गोशाला में ही नियमित रहते हैं।] [१. त्विषेर्वा स्याद् दीप्तिकर्मणः (निरुक्त ८।२।१३)।] [२. तस्य कालो यदा दौरपहततमस्काकीर्णरश्मिर्भवति, अधस्तात् तद्वेलायां तमोभवति (निकक्त १२।२।१३)।]
विषय
इन्द्रियों का दमन और पशुओं का पालन ।
भावार्थ
(सविता) गोपालक जिस प्रकार पशुओं को हांकता है और गोशाला में पुनः लाकर उनको नियम से खूंटे में बांध देता है उसी प्रकार सब का प्रेरक और नियन्ता परमेश्वर (अस्मिन् गोष्ठे) इस गोष्ठ रूप इन्द्रियों के निवासस्थान देह में (तान्) उन पशु इन्द्रियों को लाकर नियम में रखता है । (त्वष्टा) समस्त संसार को अपनी शक्ति से रचने हारा ईश्वर जिनके (रूपधेयानि) रूप (वेद) जानता है और (ये पशवः) जो पशु=दर्शन या विषय का ग्रहण और दर्शन करने वाले इन्द्रियगण (परेयुः) बाहर विषयों के ज्ञान के लिये चले जाते हैं (वायुः) वायुरूप सूत्रात्मा प्राण भी (येषां) जिनके (सहचारं) साथ २ गति किया करता है। वे पशुरूप इन्द्रियां (इह) इस देह में (आ यन्तु) पुनः आ जावें ।
टिप्पणी
इन्द्रियों के वर्णन के साथ २ गोशाला से पशुओं को बाहर लें जाना उनको शुद्ध वायु का सेवन कराना और उनको ठीक २ पहचान २ कर नियत २ स्थान पर उचित रूप से बांधने का भी उपदेश वेद ने किया है । (दि०) ‘सहतारंजुजोष’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सविता ऋषिः। पशवो देवता। १, २ त्रिष्टुभौ। ३ उपरिष्टाद् विराड् बृहती। ४ भुरिगनुष्टुप्। ५ अनुष्टुप्। पञ्चर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Animal Life
Meaning
Let the animals come back to the stalls, all those that had gone out over the forest meadows. The air, the breeze, the winds refresh them as friends. Tvashta, the development expert, knows their breeds and qualities. Let Savita, the inspirer, keeper, keep them properly in the stalls for good health.
Subject
Paśus-Anismals
Translation
May those cattle, that have wandered away and whose company the wind enjoys, come back here. The supreme moulder (tvastr) knows their forms and figures (descriptions) . May the creator God guide them to this cow stall.
Translation
Let these animals which flee away and of which the air (gas) has close contact, come to this stable. Let Savitar, the productive energy of the nature drive within the stable those animals the forms of which are created by the Tvasta, the natural energy creating forms and colors.
Translation
Let the cattle that have wandered come back home, upon whom soft breeze has attended and delighted and refreshed them. Whose forms and figures are well known to a prudent cowherd. Let the cowherd drive these cattle within this stable. [1]
Footnote
[1] The cattle go out for grazing in the morning. They enjoy the pure, fresh, open air and are brought back to their stable at the time of sunset by the cowherd who knows the forms and figures of the cattle and recognizes them fully well.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१–इह। अत्र गोष्ठे सभायां वा। आ+यन्तु। इण् गतौ। आगच्छन्तु। पशवः। अ० १।१५।२। दृशिर् प्रेक्षणे–कु, पश्यादेशः। पशवः=व्यक्तवाचश्चाव्यक्तवाचश्च–निरु० ११।२९। मनुष्यगवादिप्राणिनः। जीवाः। परा–ईयुः। इण् गतौ–लिट्। विमुखा जग्मुः। वायुः। अ० २।२०।१। पवनः। येषाम्। पशूनाम्। सहचारम्। सह+चर गतौ–घञ्। सङ्गमनम्। जुजोष। जुषी प्रीतिसेवनयोः–लिट्, छन्दसि परस्मैपदम्। जुजुषे। सेवते स्म। त्वष्टा। अ० २।५।६। त्वक्ष तनूकरणे–तृन्। व्यवहारतनूकर्ता। सूक्ष्मदर्शी पुरुषः। रूपधेयानि। भागरूपनामभ्यो धेयः। वार्त्तिकम्। पा० ५।४।२५। नानारूपाणि। विविधस्वभावान्। वेद। विद ज्ञाने–लट्। वेत्ति। जानाति। अस्मिन्। निकटस्थे। गोष्ठे। अ० २।१४।२। गोशालायां सभायाम्। सविता। अ० १।१८।२। पशुप्रेरकः। सभाप्रधानः। नि+यच्छतु। इषुगमियमां छः। पा० ७।३।७७। इति निपूर्वाद् यमेः शपि छत्वम्। नियमयतु नियमे स्थापयतु ॥
बंगाली (2)
भाषार्थ
(ইহ) এখানে (আ যন্তু) আসুক (পশবঃ) পশু (যে) যা (পরাঽঈয়ুঃ) দূরে চলে গেছে [বিচরণ করার জন্য], (যেষাম্ সহচারম্ বায়ুঃ জুজোষ) যার, সাথে-বিচরণ/সহচার, বায়ু করেছে। (ত্বষ্টা) সূর্য (যেষাম্) যার (রূপ ধেয়ানি) রূপ অর্থাৎ স্বরূপকে (বেদ) জানে, (তান্) তাদের (অস্মিন্ গোষ্ঠে) এই গো-শালায় (সবিতা) প্রাতঃকালে উদিত সূর্য (নি যচ্ছতু) নিয়মিত করুক [স্থিত রাখুক]। জুজোষ= জুষী প্রীতিসেবনয়োঃ (তুদাদি)।
टिप्पणी
[মন্ত্র বর্ণনা কবিতাময়। পশু বিচরণের জন্য গো-শালা থেকে বাইরে উন্মুক্ত বায়ুমণ্ডলে/গোচারণভূমিতে যায়, সেখানে তাদের সাথী হয় সেখানকার বায়ু, তাদের রক্ষার জন্য। ত্বষ্টা১ হল রশ্মিসমূহ দ্বারা আকীর্ণ/ব্যাপ্ত সূর্য, যা পশুদের স্বরূপের ভেদজ্ঞাপক হয়। সবিতা২ এর কাল হল উদীয়মান সূর্য; এই সময় পর্যন্ত পশু গো-শালা তে নিয়মিত থাকে।] [১. ত্বিষের্বা স্যাদ্ দীপ্তিকর্মণঃ (নিরুক্ত ৮।২।১৩)। ২. তস্য কালো যদা দ্যৌরপহততমস্কাকীর্ণরশ্মির্ভবতি, অধস্তাত্ তদ্বেলায়াং তমো ভবতি (নিরুক্ত ১২/২/১৩)।]
मन्त्र विषय
সঙ্গতিকরণোপদেশঃ
भाषार्थ
(পশবঃ) সেই পশু [গাভী আদি বা মনুষ্যাদি প্রাণী] (ইহ) এখানে (আ যন্তু) আসুক/আগমন করুক, (যে) যে (পরেয়ুঃ) লক্ষ্যভ্রষ্ট হয়েছে। (যেষাম্) যার (সহচারম্) সাথে-সাথে গমন (বায়ুঃ) পবন (জুজোষ) অঙ্গীকার/স্বীকার করেছে। (ত্বষ্টা) সূক্ষ্ম ক্রিয়াসমূহের রচনাকারী/রচয়িতা [সূক্ষ্মদর্শী পুরুষ] (যেষাম্) যার (রূপধেয়ানি) রূপ [শারীরিক রূপ ও মানসিক স্বভাবকে] (বেদ) জানে, (সবিতা) সেই সকলকে চালনাকারী [গোপাল বা সভাপ্রধান পুরুষ] (তান্) সেই [পশুদের] (অস্মিন্) এই (গোষ্ঠে) [গোট, অর্থাৎ গোশালা বা সভায়] (নিয়চ্ছতু) নিয়মে স্থাপিত করুক ॥১॥
भावार्थ
এই সূক্তে (পশু) শব্দের অর্থ গাভী আদি ও সব প্রাণী মাত্রই। “পশু ব্যক্ত বাণী বিশিষ্ট ও অব্যক্ত বাণী বিশিষ্ট–” নিরু০ ১১।২৯। অর্থাৎ মনুষ্য আদি ও গাভী আদি। যেমন বিচারশীল গোপাল, গোরক্ষক বাতাসের কারণে এদিক-ওদিক বিচরণকারী গাভী আদি পশুদের প্রেমপূর্বক একসাথে গো-শালায় নিয়ে এসে বাঁধে, সেভাবেই সূক্ষ্মদর্শী প্রধান পুরুষ নিজের আশ্রিত ও আত্মীয়স্বজনকে, যে/যারা বায়ু অর্থাৎ কুসংস্কার প্রাপ্ত করায় বিচলিত হয়েছে, উপকার ও প্রীতির দৃষ্টিতে একত্র করে সভায় নিয়মবদ্ধ করুক ॥১॥ পশু শব্দ প্রাণীমাত্রের অর্থে প্রায়ঃ বেদে আছে, যেমন–ত্বমী॑শিষে পশূ॒নাং পার্থি॑বানাং॒ যে জা॒তা উ॒ত বা॒ যে জ॒নিত্রাঃ॑ ॥ অথর্ববেদ ২।২৮।৩ ॥ তুমি পৃথিবীর পশু [প্রাণীদের] রাজা, যে উৎপন্ন হয়েছে অথবা যে উৎপন্ন হবে। য ঈশে॑ পশু॒পতিঃ॑ পশূ॒নাং চতু॑ষ্পদামু॒ত যো দ্বি॒পদা॑ম্ ॥অথর্ববেদ ২।৩৪।১। যে পশুপতি চতুষ্পদী এবং দ্বিপদী পশুদের স্বামী ॥
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