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अथर्ववेद के काण्ड - 2 के सूक्त 3 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 1
    ऋषिः - अङ्गिराः देवता - भैषज्यम्, आयुः, धन्वन्तरिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - आस्रावभेषज सूक्त
    5

    अ॒दो यद॑व॒धाव॑त्यव॒त्कमधि॒ पर्व॑तात्। तत्ते॑ कृणोमि भेष॒जं सुभे॑षजं॒ यथास॑सि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒द: । यत् । अ॒व॒ऽधाव॑ति । अ॒व॒त्ऽकम् । अधि॑ । पर्व॑तात् । तत् । ते॒ । कृ॒णो॒मि॒ । भे॒ष॒जम् । सुऽभे॑षजम् । यथा॑ । अस॑सि ॥३.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अदो यदवधावत्यवत्कमधि पर्वतात्। तत्ते कृणोमि भेषजं सुभेषजं यथाससि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अद: । यत् । अवऽधावति । अवत्ऽकम् । अधि । पर्वतात् । तत् । ते । कृणोमि । भेषजम् । सुऽभेषजम् । यथा । अससि ॥३.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    शारीरिक और मानसिक रोग की निवृत्ति के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (अदः) यह (यत्) जो संगतियोग्य ब्रह्म (अवत्कम्) नित्य चलनेवाला जलप्रवाह [के समान] (पर्वतात् अधि) पर्वत के ऊपर से (अवधावति) नीचे को दौड़ता आता है। [हे औषध !] (तत्) उस [ब्रह्म] को (ते) तेरे लिये (भेषजम्) औषध (कृणोमि) मैं बनाता हूँ, (यथा) जिससे कि (सुभेषजम्) उत्तम औषध (अससि) तू हो जावे ॥१॥

    भावार्थ

    हिमवाले पर्वतों से नदियाँ ग्रीष्म ऋतु में भी बहती रहती और अन्न आदि औषधों को हरा-भरा करके अनेक विधि से जगत् का पोषण करती हैं, इसी प्रकार औषध का औषध, वह ब्रह्म सबके हृदय में व्यापक हो रहा है। सब मनुष्य ब्रह्मचर्यसेवन और सुविधाग्रहण से शारीरिक और मानसिक रोगों की निवृत्ति करके सदा उपकारी बनें और आनन्द भोगें ॥१॥

    टिप्पणी

    १–अदः। न दस्यते उत्क्षिप्यतेऽङ्गुलिर्यत्र इदन्तया। न+दसु–उत्क्षेपे–क्विप्। अनुत्क्षेपणीयम्। पुरोवर्त्ति। विप्रकृष्टम्। यत्। त्यजितनियजिभ्यो डित्। उ० १।१३२। इति यज–अदिः, स च डित्। यजति सर्वैः पदार्थैः सह सङ्गतं भवतीति। यजनीयं संगन्तव्यम्। प्रसिद्धम्। ब्रह्मणो नाम–इति दयानन्दः–उणादिकोषव्याख्यायाम्। अव–धावति। पाघ्राध्मास्थाम्ना०। पा० ७।३।७८। इति सृधातोः धौ इत्यादेशः शीघ्रगमने। अवरुह्य शीघ्रं सरति गच्छति। अवत्कम्। अव–अत्कम्। इण्भीकापाशल्यतिमर्चिभ्यः कन्। उ० ३।४३। इति अव+अत सातत्यगमने–कन्। शकन्ध्वादिषु पररूपं वक्तव्यम्। वा० पा० ६।१।९४। इति पररूपम्। अवातति खन्यमानमधोगच्छति। जलप्रवाहः। अवतः कूपनाम–निघ० ३।२३। पर्वतात्। अ० १।१२।३। शैलात्। तत्। त्यजितनियजिभ्यो डित्। उ० १।१३२। इति तनु उपकृतौ विस्तृतौ च–आदः, डित्। तनोति सर्वं, यद्वा, तन्यते सर्वत्र। ब्रह्मणो नामविशेषः। विस्तीर्णम्। ब्रह्म। भेषजम्। अ० १।४।४। औषधम्। सुभेषजम्। सुः पूजायाम्। पा० १।४।९४। उत्कृष्टमौषधम्। अतिशयितवीर्ययुक्तम्। यथा। येन प्रकारेण। अससि। बहुलं छन्दसि। पा० २।४।७३। इति शपोऽलुक्। असि। भवेः ॥

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    विषय

    पर्वतीय जल

    पदार्थ

    १. (अदः) = वह (यत्) = जो (अवस्कम्) = रक्षा करनेवाला जल (अधिपर्वतात्) = पर्वत पर से (अवधावति) = नीचे की ओर दौड़ता है, (तत) = उसे (ते) = तेरे लिए (भेषजम) = औषध (कृणोमि) = करता हैं, (यथा) = जिससे (सुभेषजम्) = उत्तम औषधवाला (अससि) = तू हो। २. पर्वतों से बहनेवाला जल भिन्न-भिन्न प्रकार के खनिजद्रव्यों के सम्पर्क में आता हुआ सचमुच कई रोगों का औषध बन जाता है। इन जलों में वे खनिजद्रव्य सूक्ष्मरूप से समवेत होकर जलों के दोष-निवारक गुणों को बढ़ा देते हैं। जल भेषज हैं, तो उन द्रव्यों के सम्पर्क से वे सुभेषज हो जाते हैं।

    भावार्थ

    पर्वतों से बहकर नीचे आनेवाला जल भेषज है, भेषज ही नहीं सुभेषज है।

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    भाषार्थ

    (पर्वतात् अधि) मेघ से (अदः यत् ) वह जो (अवत्कम् ) रक्षा करने वाला [उदक] (अवधावति ) नीचे की ओर दौड़कर आता है, (तत्) उसे (ते) तेरे लिए (भेषजम् ) औषधरूप (कृणोमि) मैं करता हूँ, (यथा) जिस प्रकार कि [हे भेषज ! ] (सुभेषजम्) उत्तम औषध (अससि) तू है।

    टिप्पणी

    [पर्वतः मेघनाम (निघं० १।१०)। अवत्कम् = अवतम् अवनम् करोतीति। मन्त्र में मेघ से बरसे उदक का कथन हुआ है। मेघ से बरसा उदक शुद्ध होता है। शुद्ध जल द्वारा जलचिकित्सा अभिप्रेत है।]

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    विषय

    आस्राव रोग का उपचार ।

    भावार्थ

    (अवत्कम्) रोगों से रक्षा करने वाला ( अदः ) वह जल ( यद् ) जो कि (पर्वतात् अघि) पर्वत से ( अवधावति ) नीचे की ओर दौड़ता है (तत्) उसकी तरह शान्तिदायक जो वह ब्रह्म है उसे ( ते ) तेरे लिये ( भेषजम् ) ओषधरूप ( कृणोमि ) करता हूं । ( यथा ) चूंकि (सुभेषजम्) उत्तम औषध रूप (अससि) यह ब्रह्म है ।

    टिप्पणी

    ( प्र० ) ‘यदवधावसि’ इति क्काचित्कः पाठः। ( च० ) ‘यथासति’ इति ह्रिटनिकामितः पाठः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अंगिरा ऋषिः। भैषज्यायुर्धन्वन्तरिर्देवता। १-५ अनुष्टुभः। ६ त्रिपात् स्वराट् उपरिष्टान्महाबृहती। षडर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Health and Healing

    Meaning

    That which showers from the cloud and streams down from the mountain to the valley as a sanative, I make into a medicine for you since it is a sanative essentially in quality.

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    Subject

    Remedy for Āsrāva or Flow

    Translation

    The water, that runs downward there from the top of the mountain, that I make a remedy for you, so that you may be good medicine.

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    Translation

    [N.B. Here in this Hymn term Brahma is nowhere found, but the commentators take the term used to express the Brahama the Supreme Spirit. Here the context shows that Brahama is a kind of medicine. Brahma here seems to mean the various waters, the lightning known as the weapon of Indra, the wind Water and electrical treatment is a sound medication.] I use as medicine that water which flows down from the mountain or from the cloud and which is a good medicine.

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    Translation

    Just as that healing water runs downward from the hill, so do I make God the Pacifier like water, a medicine for thee, as He is the best medicine. [1]

    Footnote

    [1] I refer to a boy sage. Just as water heals physical ailments, so meditation and contemplation of God, remove mental ills. God is the best Healer for all spiritual weaknesses.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १–अदः। न दस्यते उत्क्षिप्यतेऽङ्गुलिर्यत्र इदन्तया। न+दसु–उत्क्षेपे–क्विप्। अनुत्क्षेपणीयम्। पुरोवर्त्ति। विप्रकृष्टम्। यत्। त्यजितनियजिभ्यो डित्। उ० १।१३२। इति यज–अदिः, स च डित्। यजति सर्वैः पदार्थैः सह सङ्गतं भवतीति। यजनीयं संगन्तव्यम्। प्रसिद्धम्। ब्रह्मणो नाम–इति दयानन्दः–उणादिकोषव्याख्यायाम्। अव–धावति। पाघ्राध्मास्थाम्ना०। पा० ७।३।७८। इति सृधातोः धौ इत्यादेशः शीघ्रगमने। अवरुह्य शीघ्रं सरति गच्छति। अवत्कम्। अव–अत्कम्। इण्भीकापाशल्यतिमर्चिभ्यः कन्। उ० ३।४३। इति अव+अत सातत्यगमने–कन्। शकन्ध्वादिषु पररूपं वक्तव्यम्। वा० पा० ६।१।९४। इति पररूपम्। अवातति खन्यमानमधोगच्छति। जलप्रवाहः। अवतः कूपनाम–निघ० ३।२३। पर्वतात्। अ० १।१२।३। शैलात्। तत्। त्यजितनियजिभ्यो डित्। उ० १।१३२। इति तनु उपकृतौ विस्तृतौ च–आदः, डित्। तनोति सर्वं, यद्वा, तन्यते सर्वत्र। ब्रह्मणो नामविशेषः। विस्तीर्णम्। ब्रह्म। भेषजम्। अ० १।४।४। औषधम्। सुभेषजम्। सुः पूजायाम्। पा० १।४।९४। उत्कृष्टमौषधम्। अतिशयितवीर्ययुक्तम्। यथा। येन प्रकारेण। अससि। बहुलं छन्दसि। पा० २।४।७३। इति शपोऽलुक्। असि। भवेः ॥

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    बंगाली (3)

    पदार्थ

    (অদঃ) সেই (য়ৎ) যাহা (অবৎ কং) নিত্য প্রবহমান জলস্রোতের ন্যায় (পর্বতাৎ অধি) পর্বতের উপর হইতে (অবধাবতি) নিম্ন দিকে ধাবিত হয় (তৎ) তাহাকে (তে) তোমার জন্য (ভেষজং) ঔষধ (কৃণোমি) করিতেছি (য়থা) যাহাতে (সুভেষজম্) উৎকৃষ্ট ঔষধ (অসসি) তুমি হইতে পার।।

    भावार्थ

    পর্বতের উপর হইতে নিত্য স্রোত-সরস্বতী নদী যেমন নিম্নন্দিকে ধাবিত হয় ও উভয় তীরে নানা ঔষধকে সৃষ্টি করে সেই রূপ উৎকৃষ্ট ঔষধরূপে ব্রহ্ম তোমার মধ্যে রহিয়াছেন, ব্রহ্মচর্য সেবন করিলে রোগ রহিত হইতে পারিবে।।

    मन्त्र (बांग्ला)

    অদো য়দবধাবত্যবৎকমধি পর্বতাৎ।তত্তে কৃণোমি ভেষজং সুভেষজং য়থাসসি।।

    ऋषि | देवता | छन्द

    অঙ্গিরাঃ। (আস্রাব) ভেষজম্। অনুষ্টুপ্

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    भाषार्थ

    (পর্বতাৎ অধি) মেঘ থেকে (অদঃ যৎ) সেই যে (অবত্কম্) রক্ষাকারী [জল] (অবধাবতি) নীচের দিকে দৌড়ে আসে/ধাবমান হয়, (তত্) তা (তে) আপনাদের জন্য (ভেষজম্) ঔষধরূপ (কৃণোমি) আমি প্রস্তুত করি, (যথা) যেভাবে [হে ভেষজ !] (সুভেষজম্) উত্তম ঔষধ (অসসি) তুমি হও।

    टिप्पणी

    [পর্বতঃ মেঘনাম (নিঘং০ ১।১০)। অবত্কম্ = অবতম্ অবনম্ করোতীতি। মন্ত্রে মেঘ থেকে বর্ষিত জলের কথন হয়েছে। মেঘ থেকে বর্ষিত জল শুদ্ধ হয়। শুদ্ধ জল দ্বারা জল চিকিৎসা অভিপ্রেত হয়েছে।]

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    मन्त्र विषय

    শারীরিকমানসিকরোগনাশোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (অদঃ) এই (যৎ) যে সংগতিযোগ্য ব্রহ্ম (অবৎকম্) নিত্য প্রবাহিত জলপ্রবাহ [এর সমান] (পর্বতাৎ অধি) পর্বতের উপর থেকে (অবধাবতি) নীচের দিকে দৌড়ে আসে/ধাবিত হয়। [হে ঔষধ !] (তৎ) সেই [ব্রহ্মকে] (তে) তোমার জন্য (ভেষজম্) ঔষধ (কৃণোমি) আমি করি, (যথা) যাতে (সুভেষজম্) উত্তম ঔষধ (অসসি) তুমি হও ॥১॥

    भावार्थ

    হিমবান পর্বত থেকে নদী-সমূহ গ্রীষ্ম ঋতুতেও প্রবাহিত হয় এবং অন্ন আদি ঔষধিকে সবুজ করে বিবিধ প্রকারে জগতের পোষণ করে, এইভাবে ঔষধির ঔষধ, সেই ব্রহ্ম সকলের হৃদয়ে ব্যাপক হচ্ছেন। সব মনুষ্য ব্রহ্মচর্যসেবন ও সুবিধাগ্রহণ দ্বারা শারীরিক ও মানসিক রোগের নিবৃত্তি করে সদা উপকারী হোক এবং আনন্দ ভোগ করুক ॥১॥

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