अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 30/ मन्त्र 1
ऋषिः - प्रजापतिः
देवता - मनः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - कामिनीमनोऽभिमुखीकरण सूक्त
1
यथे॒दं भूम्या॒ अधि॒ तृणं॒ वातो॑ मथा॒यति॑। ए॒वा म॑थ्नामि ते॒ मनो॒ यथा॒ मां का॒मिन्यसो॒ यथा॒ मन्नाप॑गा॒ असः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयथा॑ । इ॒दम् । भूम्या॑: । अधि॑ । तृण॑म् । वात॑: । म॒था॒यति॑ । ए॒व । म॒थ्ना॒मि॒ । ते॒ । मन॑: । यथा॑ । माम् । का॒मिनी॑ । अस॑: । यथा॑ । मत् । न । अप॑ऽगा: । अस॑: ॥३०.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यथेदं भूम्या अधि तृणं वातो मथायति। एवा मथ्नामि ते मनो यथा मां कामिन्यसो यथा मन्नापगा असः ॥
स्वर रहित पद पाठयथा । इदम् । भूम्या: । अधि । तृणम् । वात: । मथायति । एव । मथ्नामि । ते । मन: । यथा । माम् । कामिनी । अस: । यथा । मत् । न । अपऽगा: । अस: ॥३०.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने के लिये उपदेश।
पदार्थ
(यथा) जिस प्रकार (वातः) वायु (भूम्याः) भूमि के (अधि) ऊपर (इदम्) इस (तृणम्) तृण को (मथायति) चलाता है। (एव) वैसे ही (ते) तेरे (मनः) मन को (मथ्नामि) मैं चलाता हूँ, (यथा) जिससे तू (माम् कामिनी) मेरी कामनावाली (असः) होवे और (यथा) जिससे तू (मत्) मुझसे (अपगाः) वियोग करनेवाली (न) न (असः) होवे ॥१॥
भावार्थ
विद्यासमाप्ति पर ब्रह्मचारी अपने अनुरूप गुणवती कन्या को ढूँढ़े और कन्या भी अपने सदृश वर ढूँढ़े। इस प्रकार विवाह होने से वियोग न होकर आपस में प्रेम बढ़ता और आनन्द मिलता है ॥१॥ (भूम्याः) पद के स्थान पर सायणभाष्य में (भूम्याम्) है। इस मन्त्र का अन्तिम भाग (यथामां–मन्नापगा असः) अ० १।३४।५ और ६।८।१–३। में भी है ॥
टिप्पणी
१–यथा। येन प्रकारेण। इदम्। परिदृश्यमानम्। भूम्याः। अ० १।११।२। पृथिव्याः। अधि। उपरि। तृणम्। तृहेः क्नो हलोपश्च। उ० ५।८। इति तृह हिंसायाम्–क्त, हलोपः। तृह्यते हन्यते भक्ष्यते। गवादिभिः। गवादिभक्ष्यम्। वातः। अ० १।११।६। वायुः। मथायति। छन्दसि शायजपि। पा० ३।१।८४। इति बाहुलकात् मथ विलोडने–शायच्। विलोडयति। भ्रामयति। एव। एवम्। तथा। मथ्नामि। मन्थ विलोडने। विलोडयामि। ते। तव। मनः। मन–असुन्। चित्तम्। यथा। यस्मात् कारणात्। माम्। कामयमानं वरम्। कामिनी। कमेर्णिजन्ताद् औणादिक इनि प्रत्ययः। ङीप्। भविष्यति गम्यादयः। पा० ३।३।३। इति भविष्यदर्थत्वम्। अकेनोर्भविष्यदाधमर्ण्ययोः। पा० २।३।७०। इति कर्मणि षष्ठी प्रतिषेधत्वात् (माम्) इति द्वितीया। काङ्क्षिष्यन्ती। असः। भवेः। मत्। मत्तः सकाशात्। न। निषेधे। अपगाः। जनसनखनक्रमगमो विट्। पा० ३।२।६७। इति गमेर्विट्। विड्वनोरनुनासिकस्यात्। पा० ६।४।४१। इति आत्त्वम्। अपसृत्य गन्त्री। वियोगं प्राप्ता ॥
विषय
पति-पत्नी का परस्पर प्रेम
पदार्थ
१. (यथा) = जैसे (भूम्या अधि) = इस भूमि पर (इदं तृणम्) = इस तृण को वातः वायु (मथायति) = आन्दोलित कर देता है, (एव) = इसप्रकार हे युवति! (ते मनः) = तेरे मन को (मनामि) = मैं आलोडित करता हूँ, (यथा) = जिससे (मां कामिनी अस:) = तू मुझे चाहनेवाली हो (यथा) = जिससे (मत्) = मुझसे (अपगा:) = दूर जानेवाली (न असः) = न हो। इन शब्दों में एक युवक एक युवति के मन को अपनी ओर आकृष्ट करता है। यदि युवति में युवक के लिए आकर्षण न होगा अथवा युवति के लिए युवक में आकर्षण न होगा तो उनका परस्पर सम्बन्ध देर तक न रह पाएगा। यह सम्बन्ध की कटुता उनके जीवन के लिए दुष्परिणाम पैदा करेगी। परस्पर का प्रेम आवश्यक है।
भावार्थ
युवक व युवति परस्पर प्रेम से एक-दूसरे के साथी बनते हैं, तो परस्पर के व्रतों को ठीक निभाते हुए एक-दूसरे की शान्ति और दीर्घजीवन का कारण बनते हैं।
भाषार्थ
(यथा) जिस प्रकार (भूम्या अधि) भूमि के ऊपर (वातः) प्रचण्ड वायु (इदम् तृणम्) इस तृण को (मथायति) मथित करती है, अनवस्थित करती है, (एव-एवम्) इसी प्रकार [हे पत्नी !] (ते मनः) तेरे मन को (मथ्नामि) मैं [पति] मथित करता हूँ, (यथा) जिस प्रकार कि ( माम्, कामिनी) मेरी कामना करनेवाली [मुझे चाहनेवाली] ( अस: ) तू हो जाय, (यथा) जिस प्रकार कि (मत् अपगा: न असः) मुझसे हटकर [मुझे छोड़कर] चले जानेवाली तू न हो।
टिप्पणी
[मन्त्र में पति से रुष्ट हुई पत्नी का वर्णन है, जोकि पति को त्याग कर चले जाने में प्रवृत्त है। अपगाः= अप + गम् = गमेर्विट्१ (अष्टा० ३।२।६७) + आत्२ (अष्टा० ६।४।४१)।] [१. जनसनखनक्रमो विट्। २. विड्वनोरनुनासिकस्यात् ]
विषय
प्रेमपूर्वक स्वयंवर-विधान ।
भावार्थ
कन्या के प्रति विवाहेच्छु युवक कुमार इस प्रकार विचार करे । (यथा) जिस प्रकार (इंदं तृणं) इस तृण को (भूम्या अधि) इस पृथ्वी पर (वातः) वायु का झंकोरा (मथायति) उड़ाये फिरता और घुमाता फिराता है (एवा) उसी प्रकार (ते मनः) तेरे मन को मैं (मथ्नामि) अपने साथ २ लिये फिरता हूँ, अर्थात् तेरे मन को मैं अपने वश करता हूं (यथा) जिस प्रकार, हे मेरी अभिलाषा की पात्र कुमारी ! तू (मां) मुझे ही (कामिनी) चाहने वाली (असः) हो। और (यथा) जिस प्रकार तू (मत्) मुझे छोड़ कर (अपगाः) अन्यत्र जाने वाली (न असः) न हो । अर्थात् कुमार विवाह के पूर्व कुमारी के चित्त को इतना अधिक खींचले कि वह उसी की अभिलाषा करे और उसको त्याग कर अन्य को वरण करने की कभी न सोचे । इतना प्रेमाकर्षण होने पर विवाह होना चाहिये ।
टिप्पणी
(प्र०)‘यथेदं भूम्याधिनत [१] स्तृणं’(प०)‘एवा ममत्वायसि’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रजापतिर्ऋषिः। अश्विनौ देवता। १ पथ्यापंक्तिः। ३ भुरिक् अनुष्टुभः। २, ४, ५ अनुष्टुभः । पञ्चर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
The Wedded Couple
Meaning
Just as the wind touches and shakes the grass on the ground, so do I move your heart, O girl, so that you may fall in love with me and never go away from me.
Subject
Manas
Translation
As the wind agitates this grass on the ground, so I inspire your heart, that you may be affectionate and loving to me and may never go away from me.
Translation
O’ Marriageable girl; as the wind shakes this stra violently on the surface of the ground so. I set your mind into commotion that you may fall in love with me, may you not depart from me.
Translation
Just as wind moves and revolves a blade of grass on the earth, so do I move and control thy heart, so that thou mayest love me, and never leave me after marriage. [1]
Footnote
[1] Thy: the girl, a would-be wife. A young man addresses the girl he wants to marry.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१–यथा। येन प्रकारेण। इदम्। परिदृश्यमानम्। भूम्याः। अ० १।११।२। पृथिव्याः। अधि। उपरि। तृणम्। तृहेः क्नो हलोपश्च। उ० ५।८। इति तृह हिंसायाम्–क्त, हलोपः। तृह्यते हन्यते भक्ष्यते। गवादिभिः। गवादिभक्ष्यम्। वातः। अ० १।११।६। वायुः। मथायति। छन्दसि शायजपि। पा० ३।१।८४। इति बाहुलकात् मथ विलोडने–शायच्। विलोडयति। भ्रामयति। एव। एवम्। तथा। मथ्नामि। मन्थ विलोडने। विलोडयामि। ते। तव। मनः। मन–असुन्। चित्तम्। यथा। यस्मात् कारणात्। माम्। कामयमानं वरम्। कामिनी। कमेर्णिजन्ताद् औणादिक इनि प्रत्ययः। ङीप्। भविष्यति गम्यादयः। पा० ३।३।३। इति भविष्यदर्थत्वम्। अकेनोर्भविष्यदाधमर्ण्ययोः। पा० २।३।७०। इति कर्मणि षष्ठी प्रतिषेधत्वात् (माम्) इति द्वितीया। काङ्क्षिष्यन्ती। असः। भवेः। मत्। मत्तः सकाशात्। न। निषेधे। अपगाः। जनसनखनक्रमगमो विट्। पा० ३।२।६७। इति गमेर्विट्। विड्वनोरनुनासिकस्यात्। पा० ६।४।४१। इति आत्त्वम्। अपसृत्य गन्त्री। वियोगं प्राप्ता ॥
बंगाली (2)
भाषार्थ
(যথা) যেমন (ভূম্যা অধি) ভূমির উপরে (বাতঃ) প্রচণ্ড বায়ু (ইদম্ তৃণম্) এই তৃণকে (মথায়তি) মথিত করে, অনবস্থিত করে, (এব=এবম্) এইভাবে [ হে পত্নী ! ] (তে মনঃ) তোমার মনকে (মথ্নামি) আমি [পতি] মথিত করি, (যথা) যাতে (মাম্, কামিনী) আমার কামনাকারী/অভিলাষী (অসঃ) তুমি হয়ে যাও/হও, (যথা) যাতে (মৎ অপগাঃ ন অসঃ) আমার থেকে বিছিন্ন হয়ে [আমাকে ছেড়ে] গমনকারী না হও।
टिप्पणी
[মন্ত্রে পতির প্রতি রুষ্ট পত্নীর বর্ণনা হয়েছে, যে পতিকে ত্যাগ করে চলে যাওয়ার জন্য প্রবৃত্ত। অপগাঃ= অপ+ গম্ = গমেবিট্১ (অষ্টা০ ৩।২।৬৭) + আৎ২ (অষ্টা০ ৬।৪।৪১)।] [১. জনসনখনক্রমো বিট্। ] [২. বিড্বনোরনুনাসিকস্যাৎ ।]
मन्त्र विषय
গৃহস্থাশ্রমপ্রবেশায়োপদেশঃ
भाषार्थ
(যথা) যেমন (বাতঃ) বায়ু (ভূম্যাঃ) ভূমির (অধি) ঊপর (ইদম্) এই (তৃণম্) তৃণকে (মথায়তি) আলোড়িত/আন্দোলিত করে। (এব) তেমনই (তে) তোমার (মনঃ) মনকে (মথ্নামি) আমি আলোড়িত/আন্দোলিত করি, (যথা) যাতে তুমি (মাম্ কামিনী) আমার কামনাকারী (অসঃ) হও এবং (যথা) যাতে তুমি (মৎ) আমার থেকে (অপগাঃ) অপগত/অপসৃত (ন) না (অসঃ) হও॥১॥
भावार्थ
বিদ্যাসমাপ্তিতে ব্রহ্মচারী নিজের অনুরূপ গুণবতী কন্যা খুঁজে এবং কন্যাও নিজের সদৃশ বর নির্বাচন করুক। এইভাবে বিবাহ হলে বিয়োগ না হয়ে নিজেদের মধ্যে প্রেম বৃদ্ধি পায় এবং আনন্দ প্রাপ্ত হয় ॥১॥ (ভূম্যাঃ) পদের স্থানে সায়ণভাষ্যে (ভূম্যাম্) আছে। এই মন্ত্রের অন্তিম ভাগ (যথামাং–মন্নাপগা অসঃ) অ০ ১।৩৪।৫ ও ৬।৮।১–৩। এ আছে॥
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