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अथर्ववेद के काण्ड - 2 के सूक्त 7 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 1
    ऋषिः - अथर्वा देवता - भैषज्यम्, आयुः, वनस्पतिः छन्दः - भुरिगनुष्टुप् सूक्तम् - शापमोचन सूक्त
    2

    अ॒घद्वि॑ष्टा दे॒वजा॑ता वी॒रुच्छ॑पथ॒योप॑नी। आपो॒ मल॑मिव॒ प्राणै॑क्षी॒त्सर्वा॒न्मच्छ॒पथाँ॒ अधि॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒घऽद्वि॑ष्टा । दे॒वऽजा॑ता । वी॒रुत् । श॒प॒थ॒ऽयोप॑नी । आप॑: । मल॑म्ऽइव । प्र । अ॒नै॒क्षी॒त् । सर्वा॑न् । मत् । श॒पथा॑न् । अधि॑ ॥७.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अघद्विष्टा देवजाता वीरुच्छपथयोपनी। आपो मलमिव प्राणैक्षीत्सर्वान्मच्छपथाँ अधि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अघऽद्विष्टा । देवऽजाता । वीरुत् । शपथऽयोपनी । आप: । मलम्ऽइव । प्र । अनैक्षीत् । सर्वान् । मत् । शपथान् । अधि ॥७.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 7; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा के धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    (अघद्विष्टा) पाप में द्वेष [अप्रीति] करनेवाली (देवजाता) विद्वानों में प्रसिद्ध (वीरुत्) ओषधि [ओषधि के समान फैली हुयी ईश्वरशक्ति] (शपथयोपनी) शाप [क्रोधवचन को] हटानेवाली है। उसने (मत् अधि) मुझसे (सर्वान्) सब (शपथान्) शापों [कुवचनों] को (प्र+अनैक्षीत्) धो डाला है, (इव) जैसे (आपः) जल (मलम्) मल को ॥१॥

    भावार्थ

    जैसे उत्तम ओषधि से शरीर के रोग मिट जाते और जल से मलीन वस्त्र आदि शुद्ध होते हैं, वैसे ही पापी कुक्रोधी मनुष्य भी ब्रह्मज्ञान द्वारा पापों से छूटकर शुद्धात्मा हो जाते और ईश्वर के उपकारों को विचारकर उपकारी बनते और सदा आनन्द भोगते हैं ॥१॥

    टिप्पणी

    १–अघद्विष्टा। अघ+द्विष अप्रीतौ–क्त। अघं पापं द्विष्टं तिरस्कृतं यया सा। पापद्वेषिणी। देवजाता। देवेषु विद्वत्सु प्रसिद्धा वीरुत्। अ० १।३२।१। वीरुध ओषधयो भवन्ति विरोहणात्–निरु० ६।३। विरोहणशीला। ओषधिः। लता। शपथयोपनी। शीङ्शपिरुगमि०। उ० ३।१३। इति शप आक्रोशे–अथ। युप विमोहने–करणे ल्युट्। शापस्य क्रोधवचनस्य फलस्य विमोहनी निवारयित्री। आपः। जलानि। मलम्। मृज्यते शोध्यते यत्। मृजेष्टिलोपश्च। उ० १।११०। इति मृज शोधने–अलच् टिलोपश्च। ङीप्। किट्टम्। स्वेदपङ्कादिकम्। पापम्। प्र+अनैक्षीत्। णिजिर् शौचपोषणयोः–छान्दसे लुङि रूपम्। प्रकर्षेण अक्षालीत्। मत्। मत्तः ॥

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    विषय

    'शपथयोपनी' वीरुत्

    पदार्थ

    १. सामान्यत: वानस्पतिक भोजन सौम्यता को उत्पन्न करनेवाला व मांस-भोजन करवृत्ति को उत्पन्न करनेवाला है। वानस्पतिक भोजन में भी सात्त्विक, राजस् व तामस् भेद से भिन्नता है ही। इनमें वनस्पतियों के फल-मूल का संकेत करने के लिए यहाँ 'वीरुत्' शब्द का प्रयोग किया गया है। यह एक लता विशेष है जो काटने पर और अधिक फैलती है [A plant which grows after being cut]। यह (अघद्विष्टा) = पाप से अनीति करनेवाली है। इसके प्रयोग से अन्त:करण शुद्ध वृत्तिवाला बनता है। उसमें पाप की रुचि नहीं होती, (देवजाता) = [देवानां जातं यस्याः] दिव्य गुणों का यह विकास करनेवाली है। (वीरुत्) = यह लता (शपथयोपनी) = आक्रोशों को दूर करनेवाली है। २. यह (मत्) = मुझसे (सर्वान् शपथान्) = सब आक्रोशों को (अधि) = अधिक्येन (प्र अनैक्षीत) = ऐसे धो डालती है (इव) = जैसेकि (आप:) = जल (मलम्) = मलों को धो डालता है।

    भावार्थ

    लताओं के फूल-फल का प्रयोग करने से हममें आक्रोश की वृत्ति उत्पन्न नहीं होती।

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    भाषार्थ

    (अघद्विष्टा) पाप से द्वेष अर्थात् अप्रीति करनेवाली, (देवजाता) दिव्य व्यक्तियों में प्रकट हुई, (शपथयोपनी) शपथों से हटानेवाली (वीरुत्) ओषधिरूपी परमेश्वर-माता, (सर्वान् शपथान् ) सब प्रकार के शपथों को (मत् अधि) मुझसे (प्राणैक्षीत) प्रक्षालित करती है, धो देती है, (इव) जैसेकि (मलम्) मल को (आपः) जल प्रक्षालित करते हैं, धो देते हैं।

    टिप्पणी

    [द्विष्टा= द्विष अप्रीतौ, कर्तरि क्तः (सायण)। योपनी=युप विमोहने, विमोहन= निवारण (सायण)। प्राणैक्षीत्= प्र+णिजिर् शौचपोषणयोः, छान्दसे लुङि (सायण)। वीरूत् =परमेश्वर माता ओषधिरुपा है। यथा "भेषजमसि भेषजम्" (यजु:० ३।५९)।]

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    विषय

    सहनशीलता का उपदेश ।

    भावार्थ

    (अघद्विष्टा) पाप से प्रेम न करने हारी, पापी लोगों का विरोध करने वाली ( देवजाता ) विद्वानों से उत्पन्न होने वाली ( शपथयोपनी ) निन्दाजनक वचनों का मूल नाश करने वाली ( वीरुत् ) विरुद्ध भावना या विपरीत भावना (मलम्) मल को जिस प्रकार (आपः इव) जलधाराएं दूर कर देती हैं उस प्रकार ( मत् ) मुझ से (सर्वान् शपथान्) सब प्रकार के निन्दावचनों को (प्राणैक्षीत्) सर्वथा नष्ट करदे । मानसिक विरुद्ध भावना, प्रतीप-भावना या विपरीत भावना योगशास्त्र के शब्दों में प्रतिपक्ष-भावना से अपने भीतर बैठी गाली देने की बुरी आदत को दूर करना चाहिये ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः । वनस्पतिर्देवता, दूर्वास्तुतिः । १ भुरिक् । २, ३,५ अनुष्टुभौ । ४ विराडुपरिष्टाद् बृहती। पञ्चर्चं सूक्तम् ।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Countering Evil

    Meaning

    Enemy of sin and disease, born of divine will with divine qualities, Virut, durva or sahasra-kanda herb, is an antidote to disease both physical and mental, and, just as waters wash off the dirt, so does it wash off all diseases and disturbances of mind from me. (Virut has been explained as a herb which is a physical as well as a mental sanative. While it relieves and cures physical ailments, it also relieves the mind from anxiety and depression and induces peace and tranquillity of mind and spirit. It is used as ointment, orally taken as juice and also used for massage with oil or ghrta. It has also been interpreted as human piety and divine grace, mental and spiritual discipline which, too, blesses a person with freedom from disease and disorders of the mind. This psychic version of Virut works through yama and niyama, pranayama and dhyana.)

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    Subject

    Vanaspatih

    Translation

    Hating sins (and also hated by sinners), born of the bounties of Nature, this creeper (plant) is remover of deep seated diseases. As waters wash away the filth, so may this clean me from all serious diseases.

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    Translation

    This plant Durva grass is enemy of the disease and is born with many wonderful qualities and is extirpator of anger (which is a mental curse). Let it drive away all our tendencies of anger just like the waters wash away dirt.

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    Translation

    God’s might, efficacious like medicine, hates sin, is adorned by the learned, averts angry utterances. It has washed from me all ignoble words, as water washes dirt.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १–अघद्विष्टा। अघ+द्विष अप्रीतौ–क्त। अघं पापं द्विष्टं तिरस्कृतं यया सा। पापद्वेषिणी। देवजाता। देवेषु विद्वत्सु प्रसिद्धा वीरुत्। अ० १।३२।१। वीरुध ओषधयो भवन्ति विरोहणात्–निरु० ६।३। विरोहणशीला। ओषधिः। लता। शपथयोपनी। शीङ्शपिरुगमि०। उ० ३।१३। इति शप आक्रोशे–अथ। युप विमोहने–करणे ल्युट्। शापस्य क्रोधवचनस्य फलस्य विमोहनी निवारयित्री। आपः। जलानि। मलम्। मृज्यते शोध्यते यत्। मृजेष्टिलोपश्च। उ० १।११०। इति मृज शोधने–अलच् टिलोपश्च। ङीप्। किट्टम्। स्वेदपङ्कादिकम्। पापम्। प्र+अनैक्षीत्। णिजिर् शौचपोषणयोः–छान्दसे लुङि रूपम्। प्रकर्षेण अक्षालीत्। मत्। मत्तः ॥

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    बंगाली (3)

    पदार्थ

    (অথ দ্বিষ্টা) পাপের প্রতি বিদ্বেষ পরায়ণা (দেবজাতা) বিদ্বানদের নিকট প্রসিদ্ধ (বীরুৎ) ওষধির ন্যায় বিস্তৃত ঈশ্বরীয় শক্তি (শপথয়োপনী) শাপ মোচনকারিণী। তাহা (সৎ অধি) আমা হইতে (সর্বান্) সব (শপথান্) শাপকে (প্র অবৈক্ষীৎ) ধৌত করে (ইব) যেমন (আপঃ) জল (মলং) মলকে।।

    भावार्थ

    পাপের প্রতি বিদ্বেষ পরায়ণ, বিদ্বানদের নিকট খ্যাতিযুক্ত, ওষধির ন্যায় প্রসারময়ী ঈশ্বরীয় শক্তি আমা হইতে কুবচন সমূহকে, জল দ্বারা ধৌত করিবার ন্যায় ধৌত করুক।।

    मन्त्र (बांग्ला)

    অঘদ্বিষ্টা দেবজাতা বীরুচ্ছপথয়োপনী ৷ আপো মলমিব প্রাণৈক্ষীৎসৰ্বান্মচ্ছপথাঁ অধি।।

    ऋषि | देवता | छन्द

    অর্থবা। বনস্পতি (দূর্বা)। ভুরিগনুষ্টুপ্

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    भाषार्थ

    (অঘদ্বিষ্টা) পাপের প্রতি দ্বেষ অর্থাৎ অপ্রীতিকারী, (দেবজাতা) দিব্য ব্যক্তিদের মধ্যে প্রকটিত, (শপথযোপনী) শপথ থেকে বিচ্ছিন্নকারী (বীরূৎ) ঔষধিরূপী পরমেশ্বর-মাতা, (সর্বান্ শপথান্) সমস্ত প্রকারের শপথ (মৎ অধি) আমার থেকে (প্রাণৈক্ষীত্) প্রক্ষালিত করেন, ধৌত করেন, (ইব) যেভাবে (মল) মলকে (আপঃ) জল প্রক্ষালিত করে, ধুয়ে দেয়।

    टिप्पणी

    [দ্বিষ্টা =দ্বিজ অপ্রীতৌ, কর্তরি ক্তঃ (সায়ণ)। যোপনী=যুপ বিমোহনে, বিমোহন=নিবারণ (সায়ণ)। প্রাণৈক্ষীৎ = প্র + ণিজির্ শৌচপোষণয়োঃ, ছান্দসে লুঙি (সায়ণ)। বীরুৎ= পরমেশ্বর মাতা ঔষধিরূপা। যথা "ভেষজমসি ভেষজম্" (যজু:০ ৩।৫৯)।]

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    मन्त्र विषय

    রাজধর্মোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (অঘদ্বিষ্টা) পাপের প্রতি বিদ্বেষী [অপ্রীতিকর] (দেবজাতা) বিদ্বানদের মধ্যে প্রসিদ্ধ (বীরুৎ) ঔষধি [ঔষধির সমান বিস্তৃত ঈশ্বরশক্তি] (শপথযোপনী) অভিশাপ [ক্রোধবচন] দূরীভূতকারী। তা (মৎ অধি) আমার থেকে (সর্বান্) সব (শপথান্) অভিশাপ [কুবচন] (প্র+অনৈক্ষীৎ) ধৌত করে দিয়েছে, (ইব) যেমন (আপঃ) জল (মলম্) মলকে ॥১॥

    भावार्थ

    যেমন উত্তম ঔষধি দ্বারা শরীরের রোগ দূর হয় এবং জল দ্বারা মলীন বস্ত্র আদি শুদ্ধ হয়, সেভাবেই পাপী কুক্রোধী মনুষ্যও ব্রহ্মজ্ঞান দ্বারা পাপ থেকে মুক্ত হয়ে শুদ্ধাত্মা হয়ে যায় এবং ঈশ্বরের উপকার বিচার করে উপকারী হয় এবং সদা আনন্দ ভোগ করে ॥১॥

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