अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 1
ऋषिः - भृग्वङ्गिराः
देवता - वनस्पतिः, यक्ष्मनाशनम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - क्षेत्रियरोगनाशन
2
उद॑गातां॒ भग॑वती वि॒चृतौ॒ नाम॒ तार॑के। वि क्षे॑त्रि॒यस्य॑ मुञ्चतामध॒मं पाश॑मुत्त॒मम् ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । अ॒गा॒ता॒म् । भग॑वती॒ इति॒ भग॑ऽवती । वि॒ऽचृतौ॑ । नाम॑ । तार॑के॒ इति॑ ।वि । क्षे॒त्रि॒यस्य॑ । मु॒ञ्च॒ता॒म् । अ॒ध॒मम् । पाश॑म् । उ॒त्ऽत॒मम् ॥८.१॥
स्वर रहित मन्त्र
उदगातां भगवती विचृतौ नाम तारके। वि क्षेत्रियस्य मुञ्चतामधमं पाशमुत्तमम् ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । अगाताम् । भगवती इति भगऽवती । विऽचृतौ । नाम । तारके इति ।वि । क्षेत्रियस्य । मुञ्चताम् । अधमम् । पाशम् । उत्ऽतमम् ॥८.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
पौरुष का उपदेश किया जाता है।
पदार्थ
(भगवती=०–त्यौ) दो ऐश्वर्यवाले (विचृतौ) [अन्धकार से] छुड़ानेहारे (नाम) प्रसिद्ध (तारके) तारे [सूर्य और चन्द्रमा] (उदगाताम्) उदय हुए हैं। वे दोनों (क्षेत्रियस्य) शरीर वा वंश के दोष वा रोग के (अधमम्) नीचे और (उत्तमम्) ऊँचे (पाशम्) पाश को (वि+मुच्यताम्) छुड़ा देवें ॥१॥
भावार्थ
जैसे सूर्य और चन्द्रमा संसार में उदय होकर अपने ऊपर और नीचे के अन्धकार का नाश करके प्रकाश करते हैं, इसी प्रकार मनुष्य अपने छोटे और बड़े मानसिक, शारीरिक और वांशिक रोगों तथा दोषों को निवृत्त करके स्वस्थ और प्रतापी हों ॥१॥
टिप्पणी
१–उदगाताम्। उत्+इण् गतौ–लुङ्। इणो गा लुङि। पा० २।४।४५। इति गादेशः। उदितेऽभूताम्। भगवती। तदस्यास्त्यस्मिन्निति मतुप् पा० ५।२।९४। इति भग–मतुप् नित्ययोगे। मस्य वः। ततो ङीप्। सुपां सुलुक्पूर्वसवर्ण०। पा० ७।१।३९। इति पूर्वसवर्णदीर्घः। भगवत्यौ। ऐश्वर्यवत्यौ। पूज्ये। विचृतौ। वि+चृती हिंसाग्रन्थनयोः–क्विप्। अन्धकाराद् विमोचयित्र्यौ। नाम। प्रसिद्धे। तारके। तरति तारयति वान्धकारात् तारका। तॄ–णिच्–ण्वुल्। टाप्। तारका ज्योतिषि। वा० पा० ७।३।४५। इति न अत इत्त्वम्। द्वे नक्षत्रे। ज्योतिषी। सूर्यचन्द्रौ। क्षेत्रियस्य। क्षेत्रियच् परक्षेत्रे चिकित्स्यः। पा० ५।२।९२। इति क्षेत्रियशब्दो निपात्यते परक्षेत्रे चिकित्स्य इत्यर्थे। यद्वा। क्षेत्र–घच् प्रत्ययः। परस्मिन् पुत्रपौत्रादिकस्य शरीरे प्रतीकार्यस्य महाप्रचण्डस्य रोगस्य। यद्वा। क्षेत्रे स्वकीये देहे वंशे वा जातस्य रोगस्य दोषस्य वा। विमुञ्चताम्। मुचेर्लोटि। शे मुचादीनाम्। पा० ७।१।५९। इति नुम्। विमोचयताम्। अधमम्। अधरशरीरस्थितम्। उत्तमम्। ऊर्ध्वभागे स्थितम्। पाशम्। पश बन्धे ग्रन्थे वा–घञ्। बन्धनम्। ग्रन्थिम् ॥
विषय
सूर्य व चन्द्र
पदार्थ
१. (भगवती) = प्रकाश व ज्योत्स्नारूप ऐश्वर्यवाले; (विचूतौ) = रोगों का हिंसन करनेवाले (नाम) = प्रसिद्ध (तारके) = सूर्य और चन्द्र जो रोगों को तारनेवाले हैं, वे (उद् आगाताम्) = उदित हुए हैं। ये सूर्य और चन्द्र (क्षेत्रियस्य) = सामान्यतः परक्षेत्र में चिकित्स्य-[पुत्र-पौत्रादि के शरीर में चिकित्स्य] रोग के (अधमम्) = अधरकाय में आश्रित और (उत्तमम् ऊर्ध्वकाय) = में आश्रित (पाशम्) = पाश को (विमुञ्चताम्) = छुड़वा दें। सूर्य-चन्द्र की किरणों में सचमुच इसप्रकार की शक्ति है कि वे क्षेत्रिय रोगों को दूर कर दें। इनकी किरणों को जितना भी शरीर पर लिया जा सके लेना चाहिए। शरीर पर पड़नेवाली सूर्य-किरणें स्वर्ण के इजैक्शन्स कर रही होती हैं। चन्द्र-किरणों में अमृत भरा है एवं इनसे रोगों का दूर करना सम्भव ही है। सूर्य-चन्द्र किरणों के सम्पर्क में रहने का भाव यथासम्भव घर के बाहर खुले में रहने से है। जितना खुले में रहेंगे, जितना बाह्य जीवन [out door life] होगा, उतना ही इन क्षेत्रिय रोगों से बचे रहेंगे। घर में बैठे रहनेवालों को ही ये रोग पीड़ित करते हैं।
भावार्थ
सूर्य व चन्द्र की किरणों को शरीर पर लेने से क्षेत्रिय रोगों के पाश से मुक्ति मिल सकती है।
भाषार्थ
(भगवती१) यशस्वी, (विचृतौ) बन्ध को काटनेवाले, (नाम) प्रसिद्ध (तारके) दो तारा (उदगाताम्) उदित हुए हैं, वे (क्षेत्रियस्य) शरीर-क्षेत्र के (अधमम्) अधोभाग के, ( उत्तमम् ) तथा ऊर्ध्वभाग के (पाशम्) फन्दे को (वि मुञ्चताम्) विमुक्त करें।
टिप्पणी
[क्षेत्र= शरीर । यथा "इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते" (गीता १३।१)। "क्षेत्रियच् परक्षेत्रे चिकित्स्यः " (अष्टा० ५।२।९२) का वर्णन प्रतीत नहीं होता। ये दो तारा हैं मूला-नक्षत्र में, अर्थात् वृश्चिक राशि के पुच्छ के अन्त में। सम्भवतः इन दो तारों का उदयकाल विशिष्ट शारीरिक रोग के उन्मूलन के लिए उपयोगी हो। इसलिये इन दो ताराओं को भगवती कहा है, ये रोगोन्मूलन के यशवाले हैं। रोग और रोगोपचार का सम्बन्धकाल के साथ भी होता है।] [१. भग=यश। यथा– "ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसः श्रियः। ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णां भग इतीरणा।"]
विषय
आत्मज्ञान ।
भावार्थ
शक्तिसम्पन्न (विचृतौ) विविध रोगों के विनाशक (तारके) तराने वाले प्राण और अपान जब ( उद् अगातां ) ऊर्ध्व गति करते हैं तब ( क्षेत्रियस्य ) क्षेत्र = वर्तमान देह में रहने हारे आत्मा के ( अधमं ) मनुष्य-योनि की अपेक्षा नीच तिर्यक् आदि योनि में लेजाने वाले (पाशं ) कर्मजाल पाप कर्म्मबन्धन को और ( उत्तमं पाशं ) पुण्यकर्मों के फलरूप देव लोकादि शुभ कर्म-बन्धन को (विमुचतां) तोड़ डालते है । अथवा देवयान और पितृयान नामक दुःखनाशक ‘तारक विचृत्’ दो सृति, सरणि या दो पन्था हैं, वे दोनों मार्ग अधम तिर्यग्-योनि और उत्तम देवयोनियों के पाश से मुक्त करावें। अथवा अविद्या और विद्या दो तारका हैं जिनसे आत्मा अधमपाश अर्थात् अधर्म, दुष्ट कर्मजाल, मृत्यु और उत्तम पाश अर्थात् परोपकार आदि से भी कुछ काल के लिये मुक्त हो जाता है ।
टिप्पणी
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते । ईशोपनिषद् ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृग्वंगिरा ऋषिः। यक्ष्मनाशनो वनस्पतिर्देवता। मन्त्रोक्तदेवतास्तुतिः। १, २, ५ अनुष्टुभौ। ३ पथ्यापंक्तिः। ४ विराट्। पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
इंग्लिश (4)
Subject
Hereditary Diseases
Meaning
Grown are two highly efficacious Vaishnavi herbs. Arisen are two stars in the sting of the zodiac Scorpio. May they slacken and remove the highest and lowest shackles of hereditary consumption and release the patient.
Subject
Ksettriya Diseases - Hereditary
Translation
Two shining stars have risen up; releasers vicrtau is their name. May both of them unfasten the noose of the hereditary disease (ksetriya),pertaining to the lower part of the body, as well as to the upper one.
Translation
Let there two effulgent planes, the Sun and the moon which rise up, remove away the upper and lower strings of the disease of the body.
Translation
When Prana and Apana, two auspicious elevators of mankind, begin to work with full force, they release the soul, the dwellers in the body, from its lowest and uppermost bond. [1]
Footnote
[1] ‘Lowest bond’ means acts of sin, that lower, the soul ‘Uppermost bond’ means virtuous acts. When the soul through yoga attains to salvation, it is freed from its good and bad acts.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१–उदगाताम्। उत्+इण् गतौ–लुङ्। इणो गा लुङि। पा० २।४।४५। इति गादेशः। उदितेऽभूताम्। भगवती। तदस्यास्त्यस्मिन्निति मतुप् पा० ५।२।९४। इति भग–मतुप् नित्ययोगे। मस्य वः। ततो ङीप्। सुपां सुलुक्पूर्वसवर्ण०। पा० ७।१।३९। इति पूर्वसवर्णदीर्घः। भगवत्यौ। ऐश्वर्यवत्यौ। पूज्ये। विचृतौ। वि+चृती हिंसाग्रन्थनयोः–क्विप्। अन्धकाराद् विमोचयित्र्यौ। नाम। प्रसिद्धे। तारके। तरति तारयति वान्धकारात् तारका। तॄ–णिच्–ण्वुल्। टाप्। तारका ज्योतिषि। वा० पा० ७।३।४५। इति न अत इत्त्वम्। द्वे नक्षत्रे। ज्योतिषी। सूर्यचन्द्रौ। क्षेत्रियस्य। क्षेत्रियच् परक्षेत्रे चिकित्स्यः। पा० ५।२।९२। इति क्षेत्रियशब्दो निपात्यते परक्षेत्रे चिकित्स्य इत्यर्थे। यद्वा। क्षेत्र–घच् प्रत्ययः। परस्मिन् पुत्रपौत्रादिकस्य शरीरे प्रतीकार्यस्य महाप्रचण्डस्य रोगस्य। यद्वा। क्षेत्रे स्वकीये देहे वंशे वा जातस्य रोगस्य दोषस्य वा। विमुञ्चताम्। मुचेर्लोटि। शे मुचादीनाम्। पा० ७।१।५९। इति नुम्। विमोचयताम्। अधमम्। अधरशरीरस्थितम्। उत्तमम्। ऊर्ध्वभागे स्थितम्। पाशम्। पश बन्धे ग्रन्थे वा–घञ्। बन्धनम्। ग्रन्थिम् ॥
बंगाली (3)
पदार्थ
(ভগবতী=০-তৌ) দুই ঐশ্বর্যযুক্ত (বিচূতৌ) [অন্ধকার হইতে] মুক্তকারী (নাম) প্রসিদ্ধ (তারকে) তারা [সূর্য এবং চন্দ্রমা] (উদগাতাম্) উদয় হয় তাহারা উভয় (ক্ষেত্রিয়স্য) শরীর বা বংশের দোষ বা রোগকে (অধমম্) নীচে এবং (উত্তমম্) উপরে (পাশম্) পাশে (বি+মুচ্যতাম্) নিক্ষেপ করেন।।
भावार्थ
দুই ঐশ্বর্যযুক্ত অন্ধকার হইতে মুক্তকারী প্রসিদ্ধ তারা, সূর্য এবং চন্দ্রমা উদয় হয়। তাহারা উভয় শরীর বা বংশের দোষ বা রোগকে নীচে এবং উপরে পাশে নিক্ষেপ করেন।।
যেরূপ সূর্য এবং চন্দ্রমা সংসারে উদয় হইয়া নিজের উপর এবং নীচের অন্ধকারের নাশ করিয়া প্রকাশ করেন, এই প্রকার মনুষ্য নিজের ছোট এবং বড় মানসিক, শারিরীক এবং বংশীয় রোগ তথা দোষের নিবৃত করিয়া সুস্থ এবং প্রতাপী হউক।।
मन्त्र (बांग्ला)
উদগাতাং ভগবতী বিচূতৌ নাম তারকে। বি ক্ষৈত্রিয়স্য মুঞ্চতামধমং পাশমুত্তমম্।।
ऋषि | देवता | छन्द
ভৃগ্বঙ্গিরাঃ। ক্ষেত্রিয় (য়ক্ষ্মকুণ্ঠাদি) নাশনম্। অনুষ্টুপ্
भाषार्थ
(ভগবতী ১) যশস্বী, (বিবৃতৌ) বন্ধন ছেদনকারী/ছিন্নকারী, (নাম) প্রসিদ্ধ (তারকে) দুটি তারা (উদগাতাম্) উদিত হয়েছে, তা (ক্ষেত্রিয়স্য) শরীর-ক্ষেত্রের (অধমম্) অধোভাগের, (উত্তমম্) এবং ঊর্ধ্বভাগের (পাশম্) ফাঁদ/বন্ধন (বি মুঞ্চতাম্) বিমুক্ত করুক।
टिप्पणी
[ক্ষেত্র=শরীর। যথা "ইদং শরীরং কৌন্তেয় ক্ষেত্রমিত্যভিধীয়তে" (গীতা ১৩।১) "ক্ষেত্রীয়চ্ পরক্ষেত্রে চিকিৎসঃ" (অষ্টা০ ৫।২।৯২) এর বর্ণনা প্রতীত হয় না। এই দুটি তারা হল মূলা-নক্ষত্রে, অর্থাৎ বৃশ্চিক রাশির পুচ্ছের অন্তে/শেষে। সম্ভবতঃ এই দুটি তারার উদয়কাল বিশিষ্ট শারীরিক রোগের নিরাময়ের জন্য উপযোগী। এইজন্য এই দুটি তারাকে ভগবতী বলা হয়েছে, এগুলো রোগের নিরাময় সম্বন্ধে যশস্বী। রোগ ও রোগোপচারের সম্পর্ক সময়ের সাথেও হয়।] [১. ভগ=যশ। যথা— "ঐশ্বর্যস্য সমগ্রস্য ধর্মস্য যশসঃ শ্রিয়ঃ। জ্ঞানবৈরাগ্যযোশ্চৈব ষণ্ণাং ভগ ইতীরণা॥"]
मन्त्र विषय
পৌরুষমুপদিশ্যতে
भाषार्थ
(ভগবতী=০–ত্যৌ) দুই ঐশ্বর্য-বিশিষ্ট (বিচৃতৌ) [অন্ধকার] মোচনকারী (নাম) প্রসিদ্ধ (তারকে) তারা [সূর্য ও চন্দ্র] (উদগাতাম্) উদয় হয়েছে। সেই দুটি (ক্ষেত্রিয়স্য) শরীর বা বংশের দোষ বা রোগের (অধমম্) নীচু ও (উত্তমম্) উঁচু (পাশম্) ফাঁদকে/বন্ধনকে (বি+মুচ্যতাম্) বিমুক্ত করে/করুক ॥১॥
भावार्थ
যেমন সূর্য ও চন্দ্র সংসারে উদয় হয়ে নিজের উপর ও নীচের অন্ধকারের নাশ করে প্রকাশ করে, এইভাবে মনুষ্য নিজের ছোটো ও বড়ো মানসিক, শারীরিক ও বংশগত রোগ এবং দোষকে নিবৃত্ত করে সুস্থ ও প্রতাপশালী হোক ॥১॥
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