अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 9/ मन्त्र 1
ऋषिः - भृग्वङ्गिराः
देवता - वनस्पतिः, यक्ष्मनाशनम्
छन्दः - विराट्प्रस्तारपङ्क्तिः
सूक्तम् - दीर्घायु प्राप्ति सूक्त
2
दश॑वृक्ष मु॒ञ्चेमं रक्ष॑सो॒ ग्राह्या॒ अधि॒ यैनं॑ ज॒ग्राह॒ पर्व॑सु। अथो॑ एनं वनस्पते जी॒वानां॑ लो॒कमुन्न॑य ॥
स्वर सहित पद पाठदश॑ऽवृक्ष । मु॒ञ्च । इ॒मम् । रक्ष॑स: । ग्राह्या॑: । अधि॑ । या । ए॒न॒म्। ज॒ग्राह॑ । पर्व॑ऽसु । अथो॒ इति॑ । ए॒न॒म् । व॒न॒स्प॒ते॒ । जी॒वाना॑म् । लो॒कम् । उत् । न॒य॒ ॥९.१॥
स्वर रहित मन्त्र
दशवृक्ष मुञ्चेमं रक्षसो ग्राह्या अधि यैनं जग्राह पर्वसु। अथो एनं वनस्पते जीवानां लोकमुन्नय ॥
स्वर रहित पद पाठदशऽवृक्ष । मुञ्च । इमम् । रक्षस: । ग्राह्या: । अधि । या । एनम्। जग्राह । पर्वऽसु । अथो इति । एनम् । वनस्पते । जीवानाम् । लोकम् । उत् । नय ॥९.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
मनुष्य अपने आप को ऊँचा करे।
पदार्थ
(दशवृक्ष) हे प्रकाशवाले वा दर्शनीय विद्वानों के क्लेश काटनेवाले वा स्वीकार करनेवाले, अथवा, हे दस दिशाओं में सेवनीय परमेश्वर ! (इमम्) इस पुरुष को (रक्षसः) राक्षस [दुष्ट अज्ञान] की (ग्राह्याः) जकड़नेवाली पीड़ा [गठिया रोग] से (अधि) सर्वथा (मुञ्च=मोचय) छुड़ा दे, (या) जिस [पीड़ा] ने (एनम्) इस [पुरुष] को (पर्वसु) सब जोड़ों में (जग्राह) पकड़ लिया है। (अथो) और (वनस्पते) हे वननीय, सेवनीय सत्पुरुषों के पति [रक्षक] ! (एनम्) इस [पुरुष] को (जीवानाम्) जीवधारियों के [लोकम्] संसार में (उन्नय) ऊँचा उठा ॥१॥
भावार्थ
सब चर और अचर के सेवनीय और सत्पुरुषों के रक्षक परमेश्वर के उपकारों पर दृष्टि करके मनुष्य अपने शारीरिक और मानसिक क्लेशों और विघ्नों को हटाकर सदा अपनी उन्नति करे ॥१॥ १–सायणभाष्य में (दशवृक्ष) पद का अर्थ–“पलाश, उदुम्बर आदि दश वृक्षों के खण्डों से बनाई हुई मणि”–किया है ॥ २–ऐसा ही प्रयोग अथर्ववेद ३।११।१। में आया है। ग्राहि॑र्ज॒ग्राह यद्ये॒तदे॑नं॒ तस्या॑ इन्द्राग्नी॒ प्रमु॑मुक्तमेनम्। (यदि) जो (एतद्) इस समय (एनम्) इस पुरुष को (ग्राहिः) जकड़नेवाली पीड़ा ने (जग्राह) पकड़ लिया है, (इद्राग्नी) हे सूर्य और अग्नि [के समान तेजस्वी विद्वान्] (तस्याः) उस [पीड़ा] से (एनम्) इस पुरुष को (प्रमुमुक्तम्) तुम छुड़ाओ ॥
टिप्पणी
१–दशवृक्ष। कनिन् युवृषितक्षिराजि०। उ० १।१५६। इति दश दशि दीप्तौ, दर्शने, दंशने च–कनिन्, पक्षे नकारलोपः। स्नुव्रश्चिकृत्यृषिभ्यः कित्। उ० ३।६६। इति व्रश्चू छेदने स प्रत्ययः कित्। अथवा। इगुपधज्ञाप्रीकिरः कः। पा० ३।१।१३५। इति वृक्ष वरणे क। वृश्चति क्लेशम्, वृक्षते वृणोति स्वभक्तान्, व्रियते वा सर्वैः स वृक्षः। दशानां दीप्यमानानां दर्शकानां दर्शनीयानां विदुषां [अथवा दंशकानां दुष्टस्वभावानामपि] क्लेशछेदक स्वीकारक वा। अथवा दशसु दिक्षु स्वीकरणीय। मुञ्च। मोचय। इमम्। जीवम्। माम् इत्यर्थः। रक्षसः। राक्षसस्य, अज्ञानस्य। ग्राह्याः। विभाषा ग्रहः। पा० ३।१।१४३। इति ग्रह आदाने–ण। जातेरस्त्रीविषयादयोपधात् पा० ४।१।६३। इति ङीप्। यद्वा। वसिवपियजि०। उ० ४।१२५। इति ग्रह–इञ्। गृह्णातीति ग्राहो ग्राही ग्राहिर्वा जलजन्तुविशेषो वा। ग्रहणशीलपीडायाः सकाशात्। जग्राह। गृहीतवती। पर्वसु। स्नामदिपद्यर्तिपॄशकिभ्यो वनिप्। उ० ४।११३। इति पॄ पूर्तौ पालने च–वनिप्। शरीरग्रन्थिषु। अथो एनम्। ओत्। पा० १।१।१६। इत्योदन्तो निपातः प्रगृह्यः। वनस्पते। अ० १।१२।३। वन+पतिः सुट् च। वनस्य संभजनीयस्य शास्त्रस्य पालक–इति श्रीमद्दयानन्दभाष्ये–यजु० २७।२१। वनानां पाता वा पालयिता वा वनं वनोतेः–निरु० ८।३। हे सेवनीयगुणस्य रक्षक परमेश्वर। जीवानाम्। जीवतीति जीवः। इगुपधज्ञाप्रीकिरः कः। पा० ३।१।१३५। इति जीव प्राणे–क। प्राणिनाम्। लोकम्। लोक ईक्षे–घञ्। भुवनं स्थानम्। उन्नय। ऊर्ध्वं प्रापय। द्विकर्मको धातुः ॥
विषय
सन्धिवात-चिकित्सा
पदार्थ
१. हे (दशवृक्ष) = दशवृक्षों के मेल से बनाये जानेवाले 'दशमूल' नामक औषध ! (इमम्) = इस पुरुष को (रक्षस:) = इस अत्यन्त राक्षसी-सब रमणों-आनन्दों का क्षय करनेवाली-(ग्राह्या:) = अङ्गों को जकड़ लेनेवाली ग्राही [गठिया] नामक बीमारी से (अधिमुञ्च) = मुक्त करो, (या) = जो बीमारी (एनम्) = इसे (पर्वसु जग्राह) = पों में जोड़ों में पकड़े हुए हैं। २. (अथ उ) = और अब इसे रोगमुक्त करके हे (वनस्पते) = शरीर का रक्षण करनेवाली औषध! तू (एनम्) = इसे (जीवानां लोकम्) = जीवित पुरुषों के लोक में (उन्नय) = उत्कर्षेण प्राप्त करा। रोगग्रस्त होकर यह इधर-उधर जाने में असमर्थ हो गया था। इसे रोगमुक्त करके समाज में फिर से ठीक विचरण करनेवाला बना दो।
भावार्थ
दशवृक्षों के मूल से उत्पन्न 'दशमूल' औषध संधिवात को दूर करके हमें समाज में आने-जाने के योग्य बना दे।
भाषार्थ
(दशवृक्ष) हे दशवृक्ष ! अथवा दसवृक्षों के मेल से निर्मित औषध ! (इमम्) इसे (रक्षसः ग्राह्या: अधि) राक्षसरूप रोग की जकड़ से ( मुञ्च) मुक्त कर, छुड़ा, (या) जिस जकड़ ने कि (एनम् ) इसे ( पर्वसु) जोड़ों में (जग्राह) जकड़ा हुआ है। (अथो) तथा (वनस्पते) हे वनस्पति ! या वनस्पतियों द्वारा निर्मित ! (एनम् ) इसे (जीवानाम् लोकम् ) जीवितों के लोक के प्रति उठा।
विषय
आत्मज्ञान का उपदेश ।
भावार्थ
हे ( दशवृक्ष ) दश प्राणों के बन्धनों के काटने हारे परमात्मन् ! ( इमं ) इस जीव को ( रक्षसः ) विनाशकारी अज्ञान के ( ग्राह्याः ) ग्रहण करने वाली, पकड़ने वाली, ग्राही, भोगतृष्णा से ( मुञ्च ) मुक्त कर । ( या ) जो ग्राही, बांधने वाली रस्सी ( एनं ) इस जीव को ( पर्वसु ) पोरू २ पर ( जग्राह ) जकड़े बैठी है। हे वनस्पते ! समस्त वनों आत्माओं के पते स्वामिन् परमेश्वर ! ( एनं ) इस ( जीवानां ) समस्त जीवों के ( लोकं ) लोक को ( उन्नय ) आप उठाओ और इस देह के दुःखबन्धन या जन्म मरण के पाश से मुक्त करो।
टिप्पणी
“ऊर्ध्वमूलोऽवाक्शाख एषोश्वत्थः सनातनः।” अथवा “वृक्ष इवस्तब्धो दिवि तिष्ठत्येकः तेनेदं पूर्णं पूरुषेण सर्वम्” । “वनमित्युपासीत” इत्यादि उपनिषद् और वेदवाक्यों में ईश्वर को वृक्ष और जीव को वन शब्द से कहा है । रक्षसो ग्राही=तमः पाश । दशवृक्ष= वृक्षो व्रश्चनात् [ निरु० ] । काटने से ‘वृक्ष’ कहाता है, दशों प्राण-बन्धनों को काटने से ईश्वर ‘दश वृक्ष’ कहाता है ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृग्वङ्गिरा ऋषिः। वनस्पतिर्यक्ष्मनाशनो देवता । मन्त्रोक्तदेवतास्तुतिः। १ विराट् प्रस्तारपंक्तिः। २-५ अनुष्टुभः। पञ्चर्चं सूक्तम् ।
इंग्लिश (4)
Subject
Rheumatism
Meaning
O physician, with dashavrksha herbal medicament, release this patient whom demonic rheumatic seizure has caught up in every joint of the body. O perfect best of the herbs and trees of the forest, bring him back to the world of healthy living people. (‘Dashavrksha’, is a term like another well known term ‘dashamula’, ten roots. Sayana in his commentary describes Dashavrksha as ten trees such as ‘palasha’ and ‘udumbara’ from a combination of which a medicine was prepared for the treatment of rheumatism. Satavalekara, from the word ‘muncha’ in the mantra thinks that the ‘mocha’ tree, also called ‘munchaka’ or ‘sohinchana’ is also very efficacious in the treatment of rheumatism, and this he says on the basis of his own experience.)
Subject
Vegetation - Vanaspatih
Translation
O dasavrksa (liter.-"ten-tree") may you free this person from the grip of the evil disease, that has seized him in the joints. Thereafter, O Lord of vegetation, may you bring him up to the world of the living.
Translation
[N.B. In this hymn Dashabriksha stands for a herbaceous plant of this name. Grahi is to mean ‘Morbid affection of disease’ like fit, unconsciousness etc.] This Dashabriksha plant free the patient from the morbid effection of diseases which seize him in all the joints of the body. This brings him again in-living creatures by making him regain consciousness.
Translation
Free this soul, O God, from the tempting snare of the demon of destructive ignorance, that has completely taken hold of it. O God, the Lord of souls, elevate this world of sentient beings. [1]
Footnote
[1] दशवृक्ष (Dashvriksha) means God, that cuts asunder the ten pranas [breaths] that bind the soul. Vriksha is spoken of as God, and [vans] as soul in the Vedas and Upanishads. Here vana does not refer to a tree as some commentators interpret it.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१–दशवृक्ष। कनिन् युवृषितक्षिराजि०। उ० १।१५६। इति दश दशि दीप्तौ, दर्शने, दंशने च–कनिन्, पक्षे नकारलोपः। स्नुव्रश्चिकृत्यृषिभ्यः कित्। उ० ३।६६। इति व्रश्चू छेदने स प्रत्ययः कित्। अथवा। इगुपधज्ञाप्रीकिरः कः। पा० ३।१।१३५। इति वृक्ष वरणे क। वृश्चति क्लेशम्, वृक्षते वृणोति स्वभक्तान्, व्रियते वा सर्वैः स वृक्षः। दशानां दीप्यमानानां दर्शकानां दर्शनीयानां विदुषां [अथवा दंशकानां दुष्टस्वभावानामपि] क्लेशछेदक स्वीकारक वा। अथवा दशसु दिक्षु स्वीकरणीय। मुञ्च। मोचय। इमम्। जीवम्। माम् इत्यर्थः। रक्षसः। राक्षसस्य, अज्ञानस्य। ग्राह्याः। विभाषा ग्रहः। पा० ३।१।१४३। इति ग्रह आदाने–ण। जातेरस्त्रीविषयादयोपधात् पा० ४।१।६३। इति ङीप्। यद्वा। वसिवपियजि०। उ० ४।१२५। इति ग्रह–इञ्। गृह्णातीति ग्राहो ग्राही ग्राहिर्वा जलजन्तुविशेषो वा। ग्रहणशीलपीडायाः सकाशात्। जग्राह। गृहीतवती। पर्वसु। स्नामदिपद्यर्तिपॄशकिभ्यो वनिप्। उ० ४।११३। इति पॄ पूर्तौ पालने च–वनिप्। शरीरग्रन्थिषु। अथो एनम्। ओत्। पा० १।१।१६। इत्योदन्तो निपातः प्रगृह्यः। वनस्पते। अ० १।१२।३। वन+पतिः सुट् च। वनस्य संभजनीयस्य शास्त्रस्य पालक–इति श्रीमद्दयानन्दभाष्ये–यजु० २७।२१। वनानां पाता वा पालयिता वा वनं वनोतेः–निरु० ८।३। हे सेवनीयगुणस्य रक्षक परमेश्वर। जीवानाम्। जीवतीति जीवः। इगुपधज्ञाप्रीकिरः कः। पा० ३।१।१३५। इति जीव प्राणे–क। प्राणिनाम्। लोकम्। लोक ईक्षे–घञ्। भुवनं स्थानम्। उन्नय। ऊर्ध्वं प्रापय। द्विकर्मको धातुः ॥
बंगाली (3)
पदार्थ
(দশবৃক্ষ) হে দশবৃক্ষ! অথবা দশবৃক্ষের মিলন হইতে নির্মিত ঔষধি! (ইমম্) এই (রক্ষসঃ গ্রাহ্যাঃ অধি) রাক্ষসরূপ রোগের বন্ধন হইতে (মুঞ্চ) মুক্ত কর, (য়া) যে বন্ধনে (এনম্) এই (পর্বসু) যোগে (জগ্রাহ) বন্ধন হইয়াছে। (অথো) তথা (বনস্পতে) হে বনস্পতি! অথবা বনস্পতি দ্বারা নির্মিত! (এনম্) এই (জীবানাম্ লোকম্) জীবিত লোকের প্রতি (উন্নয়) উঠে।।
भावार्थ
হে দশবৃক্ষ ! অথবা দশবৃক্ষের মিলন হইতে নির্মিত ঔষধি ! এই রাক্ষসরূপ রোগের বন্ধন হইতে মুক্ত কর, যে বন্ধনে এই যোগে বন্ধন হইয়াছে। তথা হে বনস্পতি! অথবা বনস্পতি দ্বারা নির্মিত! এই জীবিত লোকের প্রতি উঠে।।
সমস্ত চর এবং অচরের সেবনীয় এবং সৎপুরুষের রক্ষক পরমেশ্বরের উপকারের উপর দৃস্টি করিয়া মনুষ্য নিজের শারীরিক এবং মানসিক ক্লেশ এবং বিঘ্নকে সরাইয়া সদা নিজের উন্নতি করেন।।
मन्त्र (बांग्ला)
দশবৃক্ষ মুঞ্চেমং রক্ষসো গ্রাহ্যা অধি য়ৈনং জগ্রাহ পর্বসু। অথো এনং বনস্পতে জীবানাং রোকমুন্নয়।।
ऋषि | देवता | छन्द
ভৃগ্বঙ্গিরাঃ। বনস্পতিঃ। বিরাট্ প্রভারপঙ্ক্তিঃ
भाषार्थ
(দশবৃক্ষ) হে দশ বৃক্ষ ! অথবা দশটি বৃক্ষের মিশ্রণ থেকে নির্মিত ঔষধ ! (ইমম্) একে [এই রুগ্নকে] (রক্ষসঃ গ্রাহ্যাঃ অধি) রাক্ষস রূপ রোগের বন্ধন থেকে (মুঞ্চ) মুক্ত করো, (যা) যে বন্ধন (এনম্) একে [এই রোগীকে] (পর্বসু) জোড়ায়/পর্বে-পর্বে (জগ্রাহ) বন্ধন/আবদ্ধ করেছে। (অথো) এবং (বনস্পতে) হে বনস্পতি ! বা বনস্পতি দ্বারা নির্মিত ! (এনম্) একে (জীবানাম্ লোকম্) জীবিত লোকেদের প্রতি (উন্নয়) উত্থিত করো।
मन्त्र विषय
মনুষ্য আত্মানমুন্নয়েৎ
भाषार्थ
(দশবৃক্ষ) হে প্রকাশমান বা দর্শনীয় বিদ্বানদের ক্লেশ দূরীভূতকারী বা স্বীকারকারী, অথবা, হে দশ দিকে সেবনীয় পরমেশ্বর ! (ইমম্) এই পুরুষকে (রক্ষসঃ) রাক্ষস [দুষ্ট অজ্ঞান] এর (গ্রাহ্যাঃ) আবদ্ধকারী পীড়া [গ্রন্থিবাত রোগ] থেকে (অধি) সর্বদা (মুঞ্চ=মোচয়) মুক্ত করো, (যা) যে [পীড়া] (এনম্) এই [পুরুষ]কে (পর্বসু) সর্ব সন্ধিতে (জগ্রাহ) আবদ্ধ/বন্ধন করেছে। (অথো) এবং (বনস্পতে) হে বননীয়, সেবনীয় সৎপুরুষদের পতি [রক্ষক] ! (এনম্) এই [পুরুষ]কে (জীবানাম্) জীবধারীদের [লোকম্] সংসারে (উন্নয়) উঁচুতে ওঠাও/উন্নত করো॥১॥
भावार्थ
সব চর ও অচরের সেবনীয় এবং সৎপুরুষদের রক্ষক পরমেশ্বরের উপকারের ওপর দৃষ্টি করে মনুষ্য নিজের শারীরিক ও মানসিক ক্লেশ এবং বিঘ্ন দূর করে সদা নিজের উন্নতি করুক ॥১॥ ১–সায়ণভাষ্যে (দশবৃক্ষ) পদের অর্থ–“পলাশ, উদুম্বর আদি দশ বৃক্ষের খণ্ড দ্বারা নির্মিত মণি”–করেছে ॥ ২–এমনটাই প্রয়োগ অথর্ববেদ ৩।১১।১। এ এসেছে। গ্রাহি॑র্জ॒গ্রাহ যদ্যে॒তদে॑নং॒ তস্যা॑ ইন্দ্রাগ্নী॒ প্রমু॑মুক্তমেনম্। (যদি) যা (এতদ্) এই সময় (এনম্) এই পুরুষকে (গ্রাহিঃ) আবদ্ধকারী পীড়া (জগ্রাহ) আবদ্ধ করেছে, (ইদ্রাগ্নী) হে সূর্য ও অগ্নি [এর সমান তেজস্বী বিদ্বান্] (তস্যাঃ) সেই [পীড়া] থেকে (এনম্) এই পুরুষকে (প্রমুমুক্তম্) তুমি মুক্ত করো ॥
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