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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 101 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 101/ मन्त्र 1
    ऋषिः - मेध्यातिथिः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-१०१
    2

    अ॒ग्निं दू॒तं वृ॑णीमहे॒ होता॑रं वि॒श्ववे॑दसम्। अ॒स्य य॒ज्ञस्य॑ सु॒क्रतु॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्निम् । दू॒तम् । वृणी॒म॒हे॒ । होता॑रम् । वि॒श्वऽवे॑दसम् ॥ अ॒स्य । य॒ज्ञस्य॑ । सु॒क्रतु॑म् ॥१०१.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निं दूतं वृणीमहे होतारं विश्ववेदसम्। अस्य यज्ञस्य सुक्रतुम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्निम् । दूतम् । वृणीमहे । होतारम् । विश्वऽवेदसम् ॥ अस्य । यज्ञस्य । सुक्रतुम् ॥१०१.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 101; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    भौतिक अग्नि के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (दूतम्) पदार्थों के पहुँचानेवाले वा तपानेवाले, (होतारम्) वेग आदि देनेवाले, (विश्ववेदसम्) सब धनों के प्राप्त करानेवाले, (अस्य) इस [प्रसिद्ध] (यज्ञस्य) यज्ञ [संयोग-वियोग व्यवहार] के (सुक्रतुम्) सुधारनेवाले (अग्निम्) अग्नि [आग, बिजुली, सूर्य] को (वृणीमहे) हम स्वीकार करते हैं ॥१॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को चाहिये कि कला यन्त्र, यान, विमान आदि में वेग से चलाने के लिये और शरीरों में भोजन आदि द्वारा बल बढ़ाने लिये बिजुली आदि अग्नि को काम में लावें ॥१॥

    टिप्पणी

    यह तृच ऋग्वेद में है-१।१२।१-३, सामवेद उ० २।१। तृच ६ तथा म० १ साम० पू० १।१।३ ॥ १−(अग्निम्) विद्युत्सूर्यपार्थिवाग्निरूपम् (दूतम्) पदार्थानां प्रापकं तापकं वा (वृणीमहे) स्वीकुर्मः (होतारम्) वेगादिदातारम् (विश्ववेदसम्) सर्वधनप्रापकम् (अस्य) प्रसिद्धस्य (यज्ञस्य) संयोगवियोगव्यवहारस्य (सुक्रतुम्) शोभनकर्तारम् ॥

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    विषय

    'दूत होता व विश्ववेदस्' अग्नि का वरण

    पदार्थ

    १. उपासक कहता है कि हम तो (अग्निम्) = उस सब उन्नतियों के साधक प्रभु का ही (वृणीमहे) = वरण करते हैं। वे प्रभु (दूतम्) [दु उपतापे] = हम भक्तों को तपस्या की अग्नि में तपाकर परिपक्व जीवनवाला करते हैं। वह तपस्या की अग्नि ही हमारे जीवनों को शुद्ध बनाती है। २. (होतारम्) = वे प्रभु हमारे लिए उन्नति के साधनभूत सब पदार्थों को प्राप्त कराते हैं। वे प्रभुही तो (विश्ववेदसम्) = सम्पूर्ण धनों के स्वामी हैं। इन धनों के द्वारा (अस्य यज्ञस्य) = हमारे इस जीवन यज्ञ के (सुक्रतुम्) = उत्तम कर्ता हैं। प्रभु-कृपा से ही हमारा जीवन-यज्ञ चलता है। प्रभु-कृपा के अभाव में यह जीवन यज्ञमय नहीं रहता।

    भावार्थ

    प्रभु 'अग्नि-दूत-होता व विश्ववेदस्' हैं। वे हमारे जीवन-यज्ञ के सुक्रतु हैं। हम प्रभु का ही वरण करते हैं। प्रभु-बरण से आवश्यक प्राकृतिक भोग तो प्राप्त हो ही जाते हैं साथ ही हम प्रकृति में फँसने से होनेवाली दुर्गति से बच जाते हैं।

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    भाषार्थ

    (दूतम्) कामादि दुर्वासनाओं को भस्म कर देनेवाले, (होतारम्) दाता, (विश्ववेदसम्) विश्ववेत्ता, और (अस्य) इस (यज्ञस्य) संसारयज्ञ या उपासना-यज्ञ के (सुक्रतुम्) श्रेष्ठ विधाता, (अग्निम्) सर्वाग्रणी परमेश्वर का (वृणीमहे) हम वरण करते हैं।

    टिप्पणी

    [दूतम्=दूङ् परितापे।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    India Devata

    Meaning

    We choose Agni, the fire, as prime power of social yajna, which carries the fragrance of yajna universally across the earth, the sky and even to the heavens, and which is the chief creator of prosperity and maker of beautiful forms.

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    Translation

    We choose to accept in our use this fire which gives motion, which heats the things, which is the means of attaining wealth and which accomplishes the task of this worldly affairs.

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    Translation

    We choose to accept in our use this fire which gives motion, which heats the things, which is the means of attaining wealth and which accomplishes the: task of this worldly affairs.

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    Translation

    O people, let you ever, through praise-songs and good means invoke the Radiant God, king, leader or fire (light), the Protector of the people, the Enabler of attaining the desired object, and the Beloved of all.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    यह तृच ऋग्वेद में है-१।१२।१-३, सामवेद उ० २।१। तृच ६ तथा म० १ साम० पू० १।१।३ ॥ १−(अग्निम्) विद्युत्सूर्यपार्थिवाग्निरूपम् (दूतम्) पदार्थानां प्रापकं तापकं वा (वृणीमहे) स्वीकुर्मः (होतारम्) वेगादिदातारम् (विश्ववेदसम्) सर्वधनप्रापकम् (अस्य) प्रसिद्धस्य (यज्ञस्य) संयोगवियोगव्यवहारस्य (सुक्रतुम्) शोभनकर्तारम् ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    ভৌতিকাগ্নিগুণোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (দূতম্) পদার্থসমূহের প্রেরক বা তপ্তকারী, (হোতারম্) বেগ আদির দাতা, (বিশ্ববেদসম্) সমস্ত ধনদাতা, (অস্য) এই [প্রসিদ্ধ] (যজ্ঞস্য) যজ্ঞের [সংযোগ-বিয়োগ ব্যবহারের] (সুক্রতুম্) শোধনকারী (অগ্নিম্) অগ্নিকে [আগুন, বিদ্যুৎ, সূর্যকে] (বৃণীমহে) আমরা গ্রহণ করি/স্বীকার করি ॥১॥

    भावार्थ

    মানুষের উচিৎ কলা যন্ত্র, যান, বিমান প্রভৃতিকে গতিবেগে চালানোর জন্য এবং শরীরের মধ্যে ভোজন আদি দ্বারা বল বৃদ্ধির জন্য বিদ্যুৎ আদি অগ্নির প্রয়োগ করা ॥১॥ এই তৃচ ঋগ্বেদে আছে-১।১২।১-৩, সামবেদ উ০ ২।১। তৃচ ৬ তথা ম০ ১ সাম০ পূ০ ১।১।৩ ॥

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    भाषार्थ

    (দূতম্) কামাদি দুর্বাসনা-সমূহ ভস্মকারী, (হোতারম্) দাতা, (বিশ্ববেদসম্) বিশ্ববেত্তা, এবং (অস্য) এই (যজ্ঞস্য) সংসারযজ্ঞ বা উপাসনা-যজ্ঞের (সুক্রতুম্) শ্রেষ্ঠ বিধাতা, (অগ্নিম্) সর্বাগ্রণী পরমেশ্বরের (বৃণীমহে) আমরা বরণ করি।

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