अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 109/ मन्त्र 1
स्वा॒दोरि॒त्था वि॑षू॒वतो॒ मध्वः॑ पिबन्ति गौ॒र्य:। या इन्द्रे॑ण स॒याव॑री॒र्वृष्णा॒ मद॑न्ति शो॒भसे॒ वस्वी॒रनु॑ स्व॒राज्य॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठस्वा॒दो: । इ॒त्था । वि॒षु॒ऽवत॑: । मध्व॑: । पि॒ब॒न्ति॒ । गौ॒र्य: ॥ या: । इन्द्रे॑ण । स॒ऽयाव॑री: । वृष्णा॑ । मद॑न्ति । शो॒भसे॑ । वस्वी॑: । अनु॑ । स्व॒ऽराज्य॑म् ॥१०९.१॥
स्वर रहित मन्त्र
स्वादोरित्था विषूवतो मध्वः पिबन्ति गौर्य:। या इन्द्रेण सयावरीर्वृष्णा मदन्ति शोभसे वस्वीरनु स्वराज्यम् ॥
स्वर रहित पद पाठस्वादो: । इत्था । विषुऽवत: । मध्व: । पिबन्ति । गौर्य: ॥ या: । इन्द्रेण । सऽयावरी: । वृष्णा । मदन्ति । शोभसे । वस्वी: । अनु । स्वऽराज्यम् ॥१०९.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
सभापति और सभासदों के लक्षणों का उपदेश।
पदार्थ
(इत्था) इस प्रकार (स्वादोः) स्वादु (विषुवतः) बहुत फैलाववाले (मध्वः) ज्ञान का (गौर्यः) वे उद्योग करनेवाली प्रजाएँ (पिबन्ति) पान करती हैं, (याः) जो [प्रजाएँ] (वृष्णा) बलवान् (इन्द्रेण) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले सभापति] के साथ (सयावरीः) मिलकर चलनेवाली, (वस्वीः) बसनेवाली [प्रजाएँ] (स्वराज्यम् अनु) स्वराज्य [अपने राज्य] के पीछे (शोभसे) शोभा पाने के लिये (मदन्ति) प्रसन्न होती हैं ॥१॥
भावार्थ
जिस राज्य में सभापति और सभासद् लोग आपस में मिलकर उत्तम ज्ञान के साथ प्रजा के उपकार का प्रयत्न करते हैं, वहाँ आनन्द बढ़ता है ॥१॥
टिप्पणी
यह तृच ऋग्वेद में है-१।८४।१०-१२, सामवेद-उ० ३।२। तृच १; म० १ साम-पू० ।३।१ ॥ १−(स्वादोः) स्वादयुक्तस्य (इत्था) अनेन प्रकारेण (विषुवतः) व्याप्तियुक्तस्य (मध्वः) मधुनः। ज्ञानस्य (पिबन्ति) पानं कुर्वन्ति (गौर्यः) गुरी उद्यमे-घञ्। षिद्गौरादिभ्यश्च। पा० ४।१।४१। इति ङीष्। गौरी रोचतेर्ज्वलतिकर्मणोऽयमपीतरो गौरो वर्ण एतस्मादेव प्रशस्यो भवति-निरु० ११।३९। उद्यमयुक्ताः प्रजाः (याः) (इन्द्रेण) परमैश्वर्यवता सभापतिना (सयावरीः) आतो मनिन्०। पा० ३।२।७४। या प्रापणे-वनिप्। वनो र च। पा० ४।१।७। ङीब्रेफौ। सहगच्छन्त्यः (वृष्णा) बलवता (मदन्ति) हृष्यन्ति (शोभसे) शोभार्थम् (वस्वीः) शॄस्वृस्निहित्रप्यसिवसि०। उ० १।१०। वस निवासे-उ प्रत्ययः। वोतो गुणवचनात्। पा० ४।१।४४। इति ङीष्। वासकारिण्यः प्रजाः (अनु) अनुलक्ष्य (स्वराज्यम्) स्वकीयराष्ट्रम् ॥
विषय
'स्वादु विषूवान्' मधु का पान
पदार्थ
१. (गौर्यः) = गौरवर्ण गौएँ, अर्थात् व्यसनों में अलिस शुद्ध इन्द्रियाँ (मध्वः) = सोम का (पिबन्ति) = पान करती है। आहार से उत्पन्न सोम को-वीर्यशक्ति को जब शरीर में ही सुरक्षित रखा जाता है तब यही इन्द्रियों का सोमपान होता है। इन्द्रियों उस सोम का पान करके जोकि (स्वादो:) = जीवन को स्वाद व माधुर्यवाला बनाता है और (इत्था) = इसप्रकार (विषुवतः) = सारे अंगों में व्याप्त हो जाता है। सब अंगों में व्याप्त होकर उन्हें सशक्त बनाता है। २. सोम-रक्षण से शक्ति-सम्पन्न बनी हुई इन्द्रियाँ वे होती हैं (याः) = जोकि (वृषणा) = सब सुखों का वर्षण करनेवाले (इन्द्रेण) = इन्द्र के साथ (सयावरी:) = गति व प्राप्तिवाली होती हैं। सोमपान के अभाव में इन्द्रियाँ विषयोन्मुख होती हैं। सोमपान करने पर ये आत्मतत्त्व के दर्शन के लिए प्रवृत्त होती हैं। आत्मतत्त्व के दर्शन में प्रवृत्त ये इन्द्रियों (मदन्ति) = उल्लास से युक्त होती हैं। (शोभसे) = जीवन की शोभा के लिए होती हैं। (वस्वी:) = निवास को उत्तम करनेवाली होती हैं, परन्तु यह सब होता तभी है जबकि (अनु स्वराज्यम्) = मनुष्य आत्मशासन करनेवाला होता है। आत्मशासन के बाद ही सोम-रक्षण सम्भव होता है और तभी इन्द्रियों आत्मतत्त्व की ओर गति करती हैं, जीवन शोभामय होता है और हमारा इस शरीर में निवास उत्तमता को लिये हुए होता है।
भावार्थ
हम संयमी बनें। इससे सोम-रक्षण होकर इन्द्रियों सशक्त बनेगी। ये हमें आत्मतत्व की ओर ले-चलेंगी। उस समय जीवन शोभामय व उत्तम बनेगा।
भाषार्थ
(गौर्यः) शुक्ल अर्थात् सात्त्विक-चित्तवृत्तियाँ (स्वादोः) अत्यन्त स्वादु है, (विषूवतः) सांसारिक स्वादों से विलक्षण, (मध्वः) मधुर आनन्दरस का (पिबन्ति) पान करती हैं। (इत्था) यह सत्य है। (याः) जो शुक्ल अर्थात् सात्विक-चित्तवृत्तियाँ (इन्द्रेण) परमेश्वर के (सयावरीः) साथ विचरती हैं, (वृष्णा) वे आनन्दरसवर्षी परमेश्वर के साथ मिलकर (मदन्ति) सदा तृप्ति रहती हैं। (वस्वीः) ये शुक्ल अर्थात् सात्त्विक-चित्तवृत्तियाँ उपासक के लिए वसुरूप हैं, सम्पत्-रूप हैं, और (स्वराज्यम्) अपने आत्मिक-राज्य को (अनु) लक्ष्य बनाकर (शोभसे) शोभायमान होती हैं।
इंग्लिश (4)
Subject
Agni Devata
Meaning
The golden and brilliant people and forces of the land drink of the delicious, exciting and universal honey sweets of national pride and prestige, and they joyously celebrate their achievements in the company of generous and valorous Indra for the advancement of the honour and glory of the republic, in obedience to the demands and discipline of the freedom and self- government of the nation.
Translation
Like the shining rays of the grand sun which drink the water the people having their close contact with strong Almighty God and having spiritual wealth drink the pleasure of God. They for attaining grace and nicely become happy and delighted after attaining blessedness or self-freedom.
Translation
Like the shining rays of the grand sun which drink the water the people having their close contact with strong Almighty God and having spiritual wealth drink the pleasure of God. They for attaining grace and nicely become happy and delighted after attaining blessedness or self-freedom.
Translation
Those well-knit or organized people of various colors (i.e., variegatedinterests) foster the development of this state of the mighty king, whom they love like the milch cows, and being fully settled and wealthy, according to self-rule, hurl the deadly weapon capable of destroying the enemy of their king.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
यह तृच ऋग्वेद में है-१।८४।१०-१२, सामवेद-उ० ३।२। तृच १; म० १ साम-पू० ।३।१ ॥ १−(स्वादोः) स्वादयुक्तस्य (इत्था) अनेन प्रकारेण (विषुवतः) व्याप्तियुक्तस्य (मध्वः) मधुनः। ज्ञानस्य (पिबन्ति) पानं कुर्वन्ति (गौर्यः) गुरी उद्यमे-घञ्। षिद्गौरादिभ्यश्च। पा० ४।१।४१। इति ङीष्। गौरी रोचतेर्ज्वलतिकर्मणोऽयमपीतरो गौरो वर्ण एतस्मादेव प्रशस्यो भवति-निरु० ११।३९। उद्यमयुक्ताः प्रजाः (याः) (इन्द्रेण) परमैश्वर्यवता सभापतिना (सयावरीः) आतो मनिन्०। पा० ३।२।७४। या प्रापणे-वनिप्। वनो र च। पा० ४।१।७। ङीब्रेफौ। सहगच्छन्त्यः (वृष्णा) बलवता (मदन्ति) हृष्यन्ति (शोभसे) शोभार्थम् (वस्वीः) शॄस्वृस्निहित्रप्यसिवसि०। उ० १।१०। वस निवासे-उ प्रत्ययः। वोतो गुणवचनात्। पा० ४।१।४४। इति ङीष्। वासकारिण्यः प्रजाः (अनु) अनुलक्ष्य (स्वराज्यम्) स्वकीयराष्ट्रम् ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
সভাপতিসভ্যজনলক্ষণোপদেশঃ
भाषार्थ
(ইত্থা) এইভাবে (স্বাদোঃ) সুস্বাদু (বিষুবতঃ) বহু বিস্তৃত/ব্যাপ্তিযুক্ত (মধ্বঃ) জ্ঞানের (গৌর্যঃ) উদ্যোগী প্রজাগণ (পিবন্তি) পান করে, (যাঃ) যে [প্রজাগণ] (বৃষ্ণা) বলবান (ইন্দ্রেণ) ইন্দ্রের [মহা ঐশ্বর্যবান সভাপতির] সাথে (সয়াবরীঃ) মিলেমিশে আচরণকারী, (বস্বীঃ) বসবাসকারী [প্রজাগণ] (স্বরাজ্যম্ অনু) স্বরাজ্যের [নিজেদের রাজ্যের] অনুলক্ষ্যে (শোভসে) শোভা প্রাপ্তির জন্য (মদন্তি) প্রসন্ন হয় ॥১॥
भावार्थ
যে রাজ্যে সভাপতি এবং সভাসদ লোক পরস্পরের সঙ্গে মিলেমিশে উত্তম জ্ঞানের সহিত প্রজার উপকারে প্রচেষ্টা করে, সেখানে আনন্দ/সুখ বৃদ্ধি পায়॥১॥ এই তৃচ ঋগ্বেদে আছে-১।৮৪।১০-১২, সামবেদ-উ০ ৩।২। তৃচ ১; ম০ ১ সাম-পূ০ ।৩।১ ॥
भाषार्थ
(গৌর্যঃ) শুক্ল অর্থাৎ সাত্ত্বিক-চিত্তবৃত্তি (স্বাদোঃ) অত্যন্ত স্বাদু, (বিষূবতঃ) সাংসারিক স্বাদরহিত, (মধ্বঃ) মধুর আনন্দরস (পিবন্তি) পান করে। (ইত্থা) ইহা সত্য। (যাঃ) যে শুক্ল অর্থাৎ সাত্ত্বিক-চিত্তবৃত্তি (ইন্দ্রেণ) পরমেশ্বরের (সয়াবরীঃ) সাথে বিচরণ করে, (বৃষ্ণা) তা আনন্দরসবর্ষী পরমেশ্বরের সাথে মিলিত হয়ে (মদন্তি) সদা তৃপ্তি থাকে। (বস্বীঃ) এই শুক্ল অর্থাৎ সাত্ত্বিক-চিত্তবৃত্তি উপাসকের জন্য বসুরূপ, সম্পদ-রূপ, এবং (স্বরাজ্যম্) নিজের আত্মিক-রাজ্যকে (অনু) লক্ষ্য করে (শোভসে) শোভায়মান হয়।
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal