अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 110/ मन्त्र 1
ऋषिः - श्रुतकक्षः सुकक्षो वा
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
सूक्तम् - सूक्त-११०
2
इन्द्रा॑य॒ मद्व॑ने सु॒तं परि॑ ष्टोभन्तु नो॒ गिरः॑। अ॒र्कम॑र्चन्तु का॒रवः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्रा॑य॒ । मद्व॑ने । सु॒तम् । परि॑ । स्तो॒भ॒न्तु॒ । न॒: । गिर॑: ॥ अ॒र्कम् । अ॒र्च॒न्तु॒ । का॒रव॑: ॥११०.१॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्राय मद्वने सुतं परि ष्टोभन्तु नो गिरः। अर्कमर्चन्तु कारवः ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्राय । मद्वने । सुतम् । परि । स्तोभन्तु । न: । गिर: ॥ अर्कम् । अर्चन्तु । कारव: ॥११०.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
विद्वानों के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(मद्वने) आनन्दकारी (इन्द्राय) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले मनुष्य] के लिये (नः) हमारी (गिरः) वाणियाँ (सुतम्) निचोड़े हुए तत्त्व रस का (परि) सब प्रकार (स्तोभन्तु) आदर करें और (कारवः) काम करनेवाले लोग (अर्कम्) उस पूजनीय का (अर्चन्तु) आदर करें ॥१॥
भावार्थ
जो मनुष्य विद्वानों के उत्तम सिद्धान्तों को माने, लोग सदा उसका आदर करें ॥१॥
टिप्पणी
यह तृच ऋग्वेद में है-८।९२ [सायणभाष्य ८१]।१९-२१, सामवेद-उ० १।२। तृच ४; म० १ साम०-पू० २।७।४ ॥ १−(इन्द्राय) परमैश्वर्यवते मनुष्याय (मद्वने) माद्यतेः-क्वनिप्। आनन्दकाय (सुतम्) संस्कृतं तत्त्वरसम् (परि) सर्वतः (स्तोभन्तु) स्तोभतिरर्चतिकर्मा-निघ० ३।१४। सत्कुर्वन्तु (नः) अस्माकम् (गिरः) वाण्यः (अर्कम्) अर्चनीयम् (अर्चन्तु) पूजयन्तु (कारवः) कर्मकर्तारः ॥
विषय
'स्वाध्याय व स्तवन' के द्वारा सोम का शरीर में स्तोभन
पदार्थ
१. उस (मद्वने) = [मद्+वन] हर्ष का संभजन करनेवाले आनन्दस्वरूप (इन्द्राय) = परमैश्वर्यशाली प्रभु की प्राप्ति के लिए (न: गिर:) = हमारी ज्ञान की वाणियाँ (सुतं परिष्टोभन्तु) = उत्पन्न हुए-हुए सोम को शरीर में ही चारों ओर रोकनेवाली हों [स्तोभते-Stops] | शरीर में सोम के सुरक्षित होने पर ही प्रभु की प्राप्ति होती है। २. (कारव:) = क्रियाओं को कुशलता से करने के द्वारा प्रभु का अर्चन करनेवाले स्तोता (अर्कम्) = उस उपासनीय प्रभु का (अर्चन्तु) = पूजन करें। कर्तव्यकर्मों को करके उन्हें प्रभु के लिए अर्पित करना ही प्रभु का अर्चन है।
भावार्थ
आनन्दमय प्रभु की प्राप्ति के लिए सोम का रक्षण आवश्यक है। सोम-रक्षण के लिए स्वाध्याय व प्रभु-स्तवन साधन बनते हैं।
भाषार्थ
(मद्वने) आनन्दस्वरूप (इन्द्राय) परमेश्वर के लिए (सुतम्) भक्तिरस उत्पन्न हो चुका है। अब (नः) हमारी (गिरः) स्तुति-वाणियाँ (परि ष्टोभन्तु) परमेश्वर की खूब स्तुतियाँ करें, (कारवः) स्तोता लोग (अर्कम्) अर्चनीय परमेश्वर की (अर्चन्तु) अर्चनाएँ करें।
टिप्पणी
[परि ष्टोभन्तु=स्तुभ् To praise, worship (आप्टे)। कारुः=स्तोता (निघं০ ३.१६)। मद् (मोद)+ वने।]
विषय
परमात्मा, आत्मा।
भावार्थ
(मद्वने) हर्ष और आनन्दस्वरूप का सेवन करने वाले (इन्द्राय) साक्षात् द्रष्टा, आत्मा के (सुतम्) ऐश्वर्य को लक्ष्य करके (नः गिरः) हमारी वाणियां (परि स्तोभन्तु) स्तुतियां करती हैं। (अर्कम्) उसी अर्चना योग्य, सूर्य के समान तेजस्वी परमेश्वर की (कारवः) उत्तम विद्वान् पुरुष (अर्चन्तु) स्तुति करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सुतकक्षः सुकक्षो वा ऋषिः। इन्द्रो देवता। गायत्र्यः। तृचं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Agni Devata
Meaning
Let all our voices of admiration flow and intensify the soma for the joy of Indra, and let the poets sing songs of adoration for him and celebrate his achievements.
Translation
Let our voices praise the world (Sutam) of Almighty God All-bliss. May the devotees and priests praise the praiseworthy one.
Translation
Let our voices praise the world (Sutam) of Almighty God All-bliss. May the devotees and priests praise the praiseworthy one.
Translation
In this world, regime or sacrifice, we (the devotees) invoke the Adorable Lord, king or soul, under whom, all the seven kinds of fortunes and worlds, departments of administration or sense-organs, grace us.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
यह तृच ऋग्वेद में है-८।९२ [सायणभाष्य ८१]।१९-२१, सामवेद-उ० १।२। तृच ४; म० १ साम०-पू० २।७।४ ॥ १−(इन्द्राय) परमैश्वर्यवते मनुष्याय (मद्वने) माद्यतेः-क्वनिप्। आनन्दकाय (सुतम्) संस्कृतं तत्त्वरसम् (परि) सर्वतः (स्तोभन्तु) स्तोभतिरर्चतिकर्मा-निघ० ३।१४। सत्कुर्वन्तु (नः) अस्माकम् (गिरः) वाण्यः (अर्कम्) अर्चनीयम् (अर्चन्तु) पूजयन्तु (कारवः) कर्मकर्तारः ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
বিদ্বৎকর্তব্যোপদেশঃ
भाषार्थ
(মদ্বনে) আনন্দকারী (ইন্দ্রায়) ইন্দ্র [মহান ঐশ্বর্যবান মনুষ্যের] জন্য (নঃ) আমাদের (গিরঃ) বাণীসমূহ (সুতম্) নিষ্পাদিত তত্ত্ব রসের (পরি) সকল প্রকারে (স্তোভন্তু) সৎকার করুক এবং (কারবঃ) কর্মকর্তা লোক (অর্কম্) সেই পূজনীয়-এর (অর্চন্তু) আদর/শ্রদ্ধা করুক ॥১॥
भावार्थ
যে মনুষ্য বিদ্বানদের উত্তম সিদ্ধান্ত মান্য/অনুসরণ করে, অনান্য মনুষ্যগণ সর্বদা তাঁকে আদর/শ্রদ্ধা করুক ॥১॥ এই তৃচ ঋগ্বেদে আছে-৮।৯২ [সায়ণভাষ্য ৮১]।১৯-২১, সামবেদ-উ০ ১।২। তৃচ ৪; ম০ ১ সাম০-পূ০ ২।৭।৪ ॥
भाषार्थ
(মদ্বনে) আনন্দস্বরূপ (ইন্দ্রায়) পরমেশ্বরের জন্য (সুতম্) ভক্তিরস উৎপন্ন হয়েছে। এখন (নঃ) আমাদের (গিরঃ) স্তুতি-বাণীসমূহ (পরি ষ্টোভন্তু) পরমেশ্বরের অনেক স্তুতি করুক, (কারবঃ) স্তোতাগণ (অর্কম্) অর্চনীয় পরমেশ্বরের (অর্চন্তু) অর্চনা করুক।
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