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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 111 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 111/ मन्त्र 1
    ऋषिः - पर्वतः देवता - इन्द्रः छन्दः - उष्णिक् सूक्तम् - सूक्त-१११
    2

    यत्सोम॑मिन्द्र॒ विष्ण॑वि॒ यद्वा॑ घ त्रि॒त आ॒प्त्ये। यद्वा॑ म॒रुत्सु॒ मन्द॑से॒ समिन्दु॑भिः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । सोम॑म् । इ॒न्द्र॒ । विष्ण॑वि । यत् ॥ वा॒ । घ॒ । त्रि॒ते । आ॒प्त्ये ॥ यत् । वा॒ । म॒रुत्ऽसु॑ । मन्द॑से । सम् । इन्दु॑ऽभि: ॥१११.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्सोममिन्द्र विष्णवि यद्वा घ त्रित आप्त्ये। यद्वा मरुत्सु मन्दसे समिन्दुभिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । सोमम् । इन्द्र । विष्णवि । यत् ॥ वा । घ । त्रिते । आप्त्ये ॥ यत् । वा । मरुत्ऽसु । मन्दसे । सम् । इन्दुऽभि: ॥१११.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 111; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (3)

    विषय

    मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले मनुष्य] (यत्) जब (घ) निश्चय करके (यत् वा) अथवा (आप्त्ये) आप्तों [यथार्थ वक्ताओं] के हितकारी, (त्रिते) तीनों लोकों में फैले हुए (विष्णवि) विष्णु [व्यापक परमात्मा] में, (यत् वा) अथवा (मरुत्सु) शूर विद्वानों में (इन्दुभिः) ऐश्वर्य व्यवहारों के साथ (सोमम्) सोम [तत्त्वरस] को (सम्) ठीक-ठीक (मन्दसे) तू प्राप्त होता है ॥१॥

    भावार्थ

    मनुष्य तत्त्वरस की प्राप्ति से परमात्मा की आज्ञा पालता हुआ, तथा समष्टिरूप से सब मनुष्यों का और व्यष्टिरूप से प्रत्येक मनुष्य का ऐश्वर्य बढ़ाता हुआ उन्नति करके सदा धर्म का उपदेश करें ॥१-३॥

    टिप्पणी

    यह तृच ऋग्वेद में है-८।१२।१६-१८; म० १ सामवेद-पू० ७।१०।४ ॥ १−(यत्) यदा (सोमम्) तत्त्वरसम् (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् मनुष्य (विष्णवि) विष्णौ। व्यापके परमात्मनि (यत् वा) अथवा (घ) निश्चयेन (त्रिते) अथ० ।१।१। त्रि+तनु विस्तारे-डप्रत्ययः। त्रिषु लोकेषु विस्तृते (आप्त्ये) आप्तानां यथार्थवक्तॄणां हिते (यत् वा) अथवा (मरुत्सु) शूरविद्वत्सु (मन्दसे) मदि स्तुतिमोदमदस्वप्नकान्तिगतिषु। गच्छसि। प्राप्नोषि (सम्) सम्यक् (इन्दुभिः) ऐश्वर्यव्यवहारैः ॥

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    विषय

    विष्णु-त्रित आप्त्य

    पदार्थ

    १. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो । (यत्) = जब आप (विष्णवि) = [विष् व्यासौ] व्यापक-उदार हृदयवाले पुरुष में (सोमम्) = सोम को (संमन्दसे) = प्रशंसित करते हैं। (यत् वा) = अथवा (घ) = निश्चय से (त्रिते) = [त्रीन् तनोति] 'ज्ञान, कर्म व उपासना' इन तीनों का विस्तार करनेवालों में आप सोम को प्रशंसित करते हैं (आप्त्ये:) = आतों में उत्तम पुरुषों में आप इस सोम को प्रशंसित करते हैं, अर्थात् यह सोम-रक्षण ही उन्हें 'विष्णु, त्रित व आप्त्य' बनाता है। एक पुरुष में उदारता 'विष्णु'"ज्ञान, कर्म व उपासना' तीनों के विस्तार [त्रित] व आप्तता [Aptness आप्त्य] को देखकर और इन बातों को सोममूलक जानकर लोग सोम का प्रशंसन तो करेंगे ही। इस प्रशंसन को करते हुए वे सोम-रक्षण के लिए प्रेरणा प्राप्त करेंगे। २. (यत् वा) = अथवा हे इन्द्र! आप (मरुत्सु) = इन प्राणसाधक पुरुषों में (इन्दुभिः) = इन सुरक्षित सोमकणों से (संमन्दसे) = [to shine] चमकते हैं। सोमकणों का रक्षण ज्ञानाग्नि को दीस करता है और बुद्धि को तीव्र बनाता है। इस तीव्र बुद्धि से प्रभु का दर्शन होता है। ('दृश्यते त्वय्या बुद्धया सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः')

    भावार्थ

    सोम-रक्षण से हम उदार-हृदय, ज्ञान, कर्म व उपासना का विस्तार करनेवाले व आप्त बनते हैं। प्राणसाधना होने पर सुरक्षित हुआ-हुआ सोम ही हमें प्रभु-दर्शन के योग्य बनाता है।

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    भाषार्थ

    (इन्द्र) हे परमेश्वर! (विष्णवि) विष्णु अर्थात् सूर्य में (यत्) जो (सोमम्) भक्तिरस है, उसका आप (मन्दसे) आनन्द लेते हैं। (यद् वा घ) और जो (त्रिते) तीसरे लोक द्युलोक में (सोमं मन्दसे) भक्तिरस है उसका आप आनन्द लेते हैं। (आप्त्ये) अप् अर्थात् जलवाले अन्तरिक्षलोक में (यत् सोमं मन्दसे) जो भक्तिरस है उसका आप आनन्द लेते हैं। (वा) तथा (मरुत्सु) मानसून तथा वायुओं में (यत् सोमं मन्दसे) जो भक्तिरस है उसका आप आनन्द लेते हैं। (इन्दुभिः) इन सब भक्तिरसों द्वारा आप (सम् मन्दसे) सम्यक् रूप से प्रसन्न होते हैं।

    टिप्पणी

    [इन्दुभिः=उनत्तेर्वा (निरु০ १०.४.४१)। “इन्दु” शब्द की व्युत्पत्ति में निरुक्त में “उन्द” धातु का निर्देश किया है। जिसका अर्थ है क्लेदन, अर्थात् गीला करना। मन्त्र में कवितारूप में कहा गया है कि इन भक्तिरसों द्वारा परमात्मा स्नेहार्द्रहृदय हो जाता है। मन्त्र में यह दर्शाया है कि सभी संसार मानो परमेश्वर के प्रति भक्तिरस में उमड़ा हुआ, परमेश्वर के प्रति आत्म-समर्पण कर रहा है।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Agni Devata

    Meaning

    Indra, the soma nectar which you infuse in the sun and in the three worlds of experience, i.e., earth, heaven and firmament and which you infuse in the winds and enjoy to the last drop, we pray for.

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    Translation

    O Almighty God, you, with the rays brings to the people Soma, the sun which spreads in three localities (Trite) and is stationed in space (Aptye) and that which remains in Maruts, cosmic forces.

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    Translation

    O Almighty God, you, with the rays brings to the people Soma, the sun which spreads in three localities (Trite) and is stationed in space (Aptye) and that which remains in Maruts, cosmic forces.

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    Translation

    O powerful electric power, thou revelest over the distant sea or the high up atmospheric ocean. Even in the projects, built by us, thou shouldst freely run into currents.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    यह तृच ऋग्वेद में है-८।१२।१६-१८; म० १ सामवेद-पू० ७।१०।४ ॥ १−(यत्) यदा (सोमम्) तत्त्वरसम् (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् मनुष्य (विष्णवि) विष्णौ। व्यापके परमात्मनि (यत् वा) अथवा (घ) निश्चयेन (त्रिते) अथ० ।१।१। त्रि+तनु विस्तारे-डप्रत्ययः। त्रिषु लोकेषु विस्तृते (आप्त्ये) आप्तानां यथार्थवक्तॄणां हिते (यत् वा) अथवा (मरुत्सु) शूरविद्वत्सु (मन्दसे) मदि स्तुतिमोदमदस्वप्नकान्तिगतिषु। गच्छसि। प्राप्नोषि (सम्) सम्यक् (इन्दुभिः) ऐश्वर्यव्यवहारैः ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    মনুষ্যকর্তব্যোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (ইন্দ্র) হে ইন্দ্র! [মহা ঐশ্বর্যবান্ মনুষ্য] (যৎ) যখন (ঘ) নিশ্চিতরূপে (যৎ বা) অথবা (আপ্ত্যে) আপ্তদের [সত্যবাদীদের] হিতকারী, (ত্রিতে) ত্রিলোকে বিস্তৃত (বিষ্ণবি) বিষ্ণুর [ব্যাপক পরমাত্মার] মধ্যে, (যৎ বা) অথবা (মরুৎসু) বীর বিদ্বানদের মধ্যে (ইন্দুভিঃ) ঐশ্বর্য আচরণের সহিত (সোমম্) সোমরসকে [তত্ত্বরসকে] (সম্) যথার্থভাবে (মন্দসে) তুমি প্রাপ্ত হও ॥১॥

    भावार्थ

    মনুষ্য তত্ত্বরস লাভ করে পরমাত্মার আজ্ঞা পালন করে, তথা সমষ্টিরূপে সমস্ত মানুষের এবং ব্যষ্টিরূপে প্রত্যেক মানুষের ঐশ্বর্য বৃদ্ধি করে উন্নতি করে সর্বদা ধর্মের উপদেশ করুক ॥১॥ এই তৃচ ঋগ্বেদে আছে-৮।১২।১৬-১৮; ম০ ১ সামবেদ-পূ০ ৭।১০।৪ ॥

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    भाषार्थ

    (ইন্দ্র) হে পরমেশ্বর! (বিষ্ণবি) বিষ্ণু অর্থাৎ সূর্যের মধ্যে (যৎ) যে (সোমম্) ভক্তিরস আছে, তা আপনি (মন্দসে) উপভোগ করেন। (যদ্ বা ঘ) এবং যে (ত্রিতে) তৃতীয় লোক দ্যুলোকে (সোমং মন্দসে) ভক্তিরস আছে তা আপনি উপভোগ করেন। (আপ্ত্যে) অপ্ অর্থাৎ জলবিশিষ্ট অন্তরিক্ষলোকে (যৎ সোমং মন্দসে) যে ভক্তিরস আছে তা আপনি উপভোগ করেন। (বা) তথা (মরুৎসু) মৌসুমী তথা বায়ুতে (যৎ সোমং মন্দসে) যে ভক্তিরস আছে উহার আপনি আনন্দ/উপভোগ গ্রহণ করেন/প্রাপ্ত হন। (ইন্দুভিঃ) এই সব ভক্তিরস দ্বারা আপনি (সম্ মন্দসে) সম্যক্ রূপে প্রসন্ন হন।

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