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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 113 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 113/ मन्त्र 1
    ऋषिः - भर्गः देवता - इन्द्रः छन्दः - प्रगाथः सूक्तम् - सूक्त-११३
    2

    उ॒भयं॑ शृ॒णव॑च्च न॒ इन्द्रो॑ अ॒र्वागि॒दं वचः॑। स॒त्राच्या॑ म॒घवा॒ सोम॑पीतये धि॒या शवि॑ष्ठ॒ आ ग॑मत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒भय॑म् । शृ॒ण्व॑त् । च॒ । न॒: । इन्द्र॑: । अ॒र्वाक् । इ॒दम् । वच॑: ॥ स॒त्राच्या॑ । म॒घऽवा॑ । सोम॑ऽपीतये । धि॒या । शवि॑ष्ठ: । आ । ग॒म॒त् ॥११३.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उभयं शृणवच्च न इन्द्रो अर्वागिदं वचः। सत्राच्या मघवा सोमपीतये धिया शविष्ठ आ गमत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उभयम् । शृण्वत् । च । न: । इन्द्र: । अर्वाक् । इदम् । वच: ॥ सत्राच्या । मघऽवा । सोमऽपीतये । धिया । शविष्ठ: । आ । गमत् ॥११३.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 113; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा के धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला राजा] (उभयम्) दो प्रकार से [शत्रुओं पर दण्ड और भक्तों पर अनुग्रह करने से] (नः) हमारे (इदम्) इस (अर्वाक्) वर्त्तमान (वचः) वचन को (च) निश्चय करके (शृणवत्) सुने, (मघवा) महाधनी और (शविष्ठः) महाबली [राजा] (सोमपीतये) सोम [तत्त्व रस] पीने के लिये (सत्राच्या) सत्य गतिवाली (धिया) बुद्धि के साथ (आ गमत्) आवे ॥१॥

    भावार्थ

    राजा धन की पूर्णता और पराक्रम की उपयोगिता से शत्रुओं को मिटाकर और राजभक्तों को बढ़ाकर श्रेष्ठ कर्म करता रहे ॥१॥

    टिप्पणी

    यह सूक्त ऋग्वेद में है-८।६१ [सायणभाष्य ०]।१-२; सामवेद-उ० ।१।१४; म० १ साम० पू० ३।१०।८ ॥ १−(उभयम्) द्विप्रकारं शत्रुनिग्रहं भक्तानुग्रहं च (शृणवत्) शृणुयात् (च) अवधारणे (नः) अस्माकम् (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् राजा (अर्वाक्) अभिमुखम् (इदम्) (वचः) वचनम् (सत्राच्या) सत्यगतिवत्या (मघवा) महाधनी (सोमपीतये) तत्त्वरसस्य पानाय (धिया) प्रज्ञया (शविष्ठः) अतिशयेन बलवान् (आ गमत्) आगच्छतु ॥

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    विषय

    सूक्ष्मार्थग्राहिणी बुद्धि

    पदार्थ

    १. (इन्द्रः) = वह परमैश्वर्यशाली प्रभु (न:) = हमारे लिए (उभयम् इदं वचः) = प्रकृति व आत्मा दोनों का ज्ञान देनेवाले इस वेदवचन को (अर्वाक्) = अन्तर्हृदय में [हमारे अभिमुख] शृणवत् [अन्तर्भावितण्यर्थ] सुनाएँ। हृदयस्थ प्रभु से हम उन ज्ञान की बाणियों को सुन पाएँ जोकि प्रकृति व आत्मा का ज्ञान देनेवाली हैं। २. वह (शविष्ठः) = अतिशयेन शक्तिशाली (मघवा) = ज्ञानरूप ऐश्वर्यवाले प्रभु (सत्राच्या) = सत्य-ज्ञान के साथ गतिवाली-सत्यज्ञान को प्राप्त करानेवाली (धिया) = बुद्धि के साथ (आगमत्) = हमें प्राप्त हों। ये प्रभु (सोमपीतये) = सोम के रक्षण के लिए हों। सोम-रक्षण द्वारा ही वे हमें उस सूक्ष्मार्थग्राहिणी बुद्धि को प्राप्त कराएँगे जो हमें प्रकृति व आत्मा के तत्त्व को समझने के योग्य बनाएगी।

    भावार्थ

    प्रभु हमें प्रकृति व आत्मा का ज्ञान देनेवाले वेदवचनों को सुनाएँ। सोम-रक्षण के द्वारा उस बुद्धि को प्राप्त कराएँ जोकि सूक्ष्म अर्थों के सत्यतत्त्व को जानने में समर्थ हो।

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    भाषार्थ

    (इन्द्रः) परमेश्वर (नः) हमारे (अर्वाक्) अभिमुख होकर, (इदम्) इन (उभयम्) दोनों प्रकार के (वचः) स्तुति-वचनों अर्थात् केवल ऋचाओं द्वारा की गई स्तुतियों तथा सामगानों द्वारा किये गये स्तुति-वचनों को (शृणवत्) सुनता है। (च) और वह (मघवा) ऐश्वर्यशाली (शविष्ठः) और अतिबलशाली परमेश्वर, (सत्राच्या) सदा सत्य की ओर झुकी हुई (धिया) निज करूणामयी धारण द्वारा, (सोमपीतये) भक्तिरस के पान के लिए (आ गमत्) प्रकट हो जाता है।

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    विषय

    राजा, सूर्य और परमेश्वर।

    भावार्थ

    (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् राजा, (अर्वाक्) साक्षात् (नः) हमारे (इदं) इस (उभयम्) अपने अनुकूल और अपने प्रतिकूल दोनों प्रकार के (वचः) वचन को (शृणवत्) सुने। वह (सोमपीतये) सोमपान करने, राष्ट्र के पालन करने के लिये (मघवा) ऐश्वर्यवान् होकर (सत्राच्या धिया) विवेकपूर्वक सत्य मात्र के ग्रहण करने वाली बुद्धि से (शविष्ठः) अति बलवान् होकर (आ गमत्) प्राप्त हो। ईश्वर के पक्ष में—इन्द्र परमेश्वर हमारे वैदिक और लौकिक, ऐहिक और पारमार्थिक दोनों प्रकार के वचन सुने, वह सदा विद्यमान धारणशक्ति से युक्त सर्व शक्तिमान् होकर हमें आनन्दरस प्राप्त कराने के लिये प्राप्त हो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भर्ग ऋषिः। इन्द्रो देवता। प्रगाथः। द्व्यचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indra Devata

    Meaning

    May Indra, lord omnipotent, master of the world’s wealth and power, directly listen to our joint prayer for worldly and spiritual advancement with attentive ear and sympathetic understanding, and may the lord of supreme power come to protect and promote our yajnic programme and prayer and taste the pleasure of success.

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    Translation

    Let the king directly hear this my voice of two kinds-that which is for and that which is against. The mightiest kine with discriminating intelligence come to us to drink the juice of soma-herbs.

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    Translation

    Let the king directly hear this my voice of two kinds-that which is for and that which is against. The mightiest king with discriminating intelligence come to us to drink the juice of soma-herbs.

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    Translation

    Just as the heavens and the earth clearly carve out Him alone, the Self-Luminous, the Mighty One for energy and valour, similarly do the supporting subjects and the ruling classes specially select him alone, the self-brilliant highly powerful one, as their king for glory and strength, (O Mighty Lord or king,) letest Thee (thee) stay as the Foremost one amongst all near Thee. Thy mind is really desirous of the creation or the kingdom under Thee.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    यह सूक्त ऋग्वेद में है-८।६१ [सायणभाष्य ०]।१-२; सामवेद-उ० ।१।१४; म० १ साम० पू० ३।१०।८ ॥ १−(उभयम्) द्विप्रकारं शत्रुनिग्रहं भक्तानुग्रहं च (शृणवत्) शृणुयात् (च) अवधारणे (नः) अस्माकम् (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् राजा (अर्वाक्) अभिमुखम् (इदम्) (वचः) वचनम् (सत्राच्या) सत्यगतिवत्या (मघवा) महाधनी (सोमपीतये) तत्त्वरसस्य पानाय (धिया) प्रज्ञया (शविष्ठः) अतिशयेन बलवान् (आ गमत्) आगच्छतु ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    রাজধর্মোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (ইন্দ্রঃ) ইন্দ্র [পরম্ ঐশ্বর্যবান্ রাজা] (উভয়ম্) দুই প্রকারে [শত্রুদের দণ্ড এবং ভক্তদের প্রতি অনুগ্রহ/কৃপা করে] (নঃ) আমাদের (ইদম্) এই (অর্বাক্) বর্ত্তমান (বচঃ) বচনকে/প্রতিশ্রুতিকে (চ) নিশ্চিতরূপে (শৃণবৎ) শ্রবণ করেন, (মঘবা) মহাধনী এবং (শবিষ্ঠঃ) মহাবলশালী [রাজা] (সোমপীতয়ে) সোম রস [তত্ত্বরস] পান করার জন্য (সত্রাচ্যা) সত্য গতিসম্পন্ন (ধিয়া) বুদ্ধির সহিত (আ গমৎ) আগমন করে/করুক ॥১॥

    भावार्थ

    ধন-সম্পদ ও বীরত্বের পূর্ণতা নিয়ে রাজা শত্রুদের বিনাশ করে এবং রাজার ভক্তদের বৃদ্ধি করে মহৎ কর্ম করতে থাকুক॥১॥ এই সূক্ত ঋগ্বেদে আছে-৮।৬১ [সায়ণভাষ্য ০]।১-২; সামবেদ-উ০ ।১।১৪; ম০ ১ সাম০ পূ০ ৩।১০।৮ ॥

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    भाषार्थ

    (ইন্দ্রঃ) পরমেশ্বর (নঃ) আমাদের (অর্বাক্) অভিমুখ হয়ে, (ইদম্) এই (উভয়ম্) উভয় প্রকারের (বচঃ) স্তুতি-বচন অর্থাৎ কেবল ঋচা-সমূহ দ্বারা কৃত স্তুতি তথা সামগান দ্বারা কৃত স্তুতি-বচন (শৃণবৎ) শ্রবণ করেন। (চ) এবং তিনি (মঘবা) ঐশ্বর্যশালী (শবিষ্ঠঃ) এবং অতিবলশালী পরমেশ্বর, (সত্রাচ্যা) সদা সত্যের দিকে নত (ধিয়া) নিজ করূণাময়ী ধারণ দ্বারা, (সোমপীতয়ে) ভক্তিরস পানের জন্য (আ গমৎ) প্রকট হন।

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