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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 118 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 118/ मन्त्र 4
    ऋषिः - मेध्यातिथिः देवता - इन्द्रः छन्दः - प्रगाथः सूक्तम् - सूक्त-११८
    2

    इन्द्रो॑ म॒ह्ना रोद॑सी पप्रथ॒च्छव॒ इन्द्रः॒ सूर्य॑मरोचयत्। इन्द्रे॑ ह॒ विश्वा॒ भुव॑नानि येमिर॒ इन्द्रे॑ सुवा॒नास॒ इन्द॑वः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑: । म॒ह्ना । रोद॑सी॒ इति॑ । प॒प्र॒थ॒त् । शव॑: । इन्द्र॑: । सूर्य॑म् । अ॒रो॒च॒य॒त् ॥ इन्द्रे॑ । ह॒ । विश्वा॑ । भुव॑नानि । ये॒मि॒र॒ । इन्द्रे॑ । सु॒वा॒नास॑: । इन्द॑व: ॥११८.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रो मह्ना रोदसी पप्रथच्छव इन्द्रः सूर्यमरोचयत्। इन्द्रे ह विश्वा भुवनानि येमिर इन्द्रे सुवानास इन्दवः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्र: । मह्ना । रोदसी इति । पप्रथत् । शव: । इन्द्र: । सूर्यम् । अरोचयत् ॥ इन्द्रे । ह । विश्वा । भुवनानि । येमिर । इन्द्रे । सुवानास: । इन्दव: ॥११८.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 118; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परमेश्वर की उपासना का उपदेश।

    पदार्थ

    (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले परमात्मा] ने (शवः) बल की (मह्ना) महिमा से (रोदसी) आकाश और भूमि को (पप्रथत्) फैलाया है, (इन्द्रः) इन्द्र [परमात्मा] ने (सूर्यम्) सूर्य को (अरोचयत्) चमकाया है। (इन्द्रे) इन्द्र [परमात्मा] में (ह) ही (विश्वा) सब (भुवनानि) भुवन (येमिरे) ठहरे हैं, (इन्द्रे) इन्द्र [परमात्मा] में (सुवानासः) उत्पन्न होते हुए (इन्दवः) ऐश्वर्य हैं ॥४॥

    भावार्थ

    जिस परमात्मा ने ब्रह्माण्ड के भीतर सब ऐश्वर्यवान् पदार्थ रचे हैं, मनुष्य उसकी भक्ति से सब पदार्थों से उपकार लेकर उन्नति करें ॥४॥

    टिप्पणी

    ४−(इन्द्रः) परमेश्वर्यवान् परमात्मा (मह्ना) महिम्ना। महत्त्वेन (रोदसी) आकाशभूमी (पप्रथत्) विस्तारितवान् (शवः) विभक्तेः सुः। शवसः। बलस्य (इन्द्रः) (सूर्यम्) प्रसिद्धम् (अरोचयत्) अदीपयत् (इन्द्रे) परमात्मनि (ह) एव (विश्वा) व्याप्तानि। सर्वाणि (भुवनानि) लोकजातानि (येमिरे) यम उपरमे-लिट्। नियमिताः स्थापिता बभूवुः (इन्द्रे) (सुवानासः) सूयमानाः। उत्पद्यमानाः (इन्दवः) ऐश्वर्याणि ॥

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    विषय

    इन्द्र की महिमा

    पदार्थ

    १. (इन्द्रः) = वह सर्वशक्तिमान् प्रभु (महा) = अपनी महिमा से (रोदसी) = द्यावापृथिवी में (शवः) = बल को (पप्रथत्) = विस्तृत करते हैं। द्यावापृथिवी में सर्वत्र प्रभु की शक्ति ही कार्य कर रही है। (इन्द्र:) = वे परमैश्वर्यशाली प्रभु ही (सूर्यम्) = सूर्य को (अरोचयत्) = दीप्त करते हैं। सूर्य आदि सब ज्योतिर्मय पिण्ड प्रभु की दीप्ति से ही दौस हो रहे हैं 'तस्य भासा सर्वमिदं विभाति । २. (ह) = निश्चय से (इन्द्रे) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु में (विश्वा भुवनानि) = सब भुवन (येमिरे) = नियमित हो रहे हैं। प्रभु के शासन में ही वे सब लोक-लोकान्तर अपनी-अपनी मर्यादा में हैं। (इन्द्रे) = उस शक्तिशाली प्रभु में ही (इन्दवः) = शक्तिशाली (सुवानासः) = [स्वना:] शब्द हैं। प्रभु इन शब्दों से ही लोक-लोकान्तरों का निर्माण करते हैं। शब्दगुणक आकाश प्रभु से प्रादुर्भूत होता है 'तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाश: सम्भूतः'। इस शब्दगुणक आकाश से वायु आदि के क्रम से सृष्टि का विस्तार प्रभु ही करते हैं।

    भावार्थ

    द्यावापृथिवी में सर्वत्र प्रभु की शक्ति का विस्तार है। प्रभु ही सूर्य को दीस करते हैं-सब भुवन प्रभु द्वारा नियन्त्रित होते हैं। प्रभु में ही शक्तिशाली शब्दों का निवास है। इन्द्र का स्तवन करता हुआ यह स्तोता अपने कर्तव्यों में तत्पर होकर 'आयु' कहलाता है [एति]। अगले सूक्त में प्रथम मन्त्र का यही ऋषि है। द्वितीय मन्त्र का ऋषि 'श्रुष्टिगु' है खूब समृद्ध ज्ञानेन्द्रियोंवाला।

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    भाषार्थ

    (इन्द्रः) परमेश्वर ने (मह्ना) निज महिमा से (रोदसी) द्युलोक और भूलोक को (प प्रथत्) फैलाया है। (शवः) बलस्वरूप (इन्द्रः) परमेश्वर ने (सूर्यम्) सूर्य को (अरोचयत्) दीप्तिमान् किया है। (विश्वा) सब (भुवनानि) लोक-लोकान्तर (इन्द्रे ह) परमेश्वर में ही आश्रित होकर (येमिरे) परमेश्वर के नियन्त्रण में स्थित हैं। (सुवानासः) उत्पन्न हुए (इन्दवः) चान्द आदि (इन्द्रे) परमेश्वर में आश्रित होकर (येमिरे) उसके नियन्त्रण में स्थित हैं।

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    विषय

    राजा।

    भावार्थ

    (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् परमेश्वर ही (शवः मह्ना) अपने बल के महान् सामर्थ्य से (रोदसी) द्यौ और पृथिवी दोनों लोकों को (पप्रथत्) विस्तृत करता है। (इन्द्रः) वह ईश्वर ही (सूर्यम् अरोचयत्) सूर्य को प्रकाशित करता है। (विश्वा भुवनानि) समस्त लोक (इन्द्रे) इस महान् परमेश्वर के आश्रय पर ही (येमिरे) नियम में व्यवस्थित है। (इन्द्रे) परमेश्वर के आश्रय पर ही (सुवानासः) समस्त जीवों को उत्पन्न करते हुए (इन्दवः) द्रव पदार्थ जल आदि, एवं प्राकृतिक तेजस्वी पदार्थ नियम से कार्य कर रहे हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १, २ भर्गो ऋषिः। ३, ४ मेधातिथिर्ऋषिः। इन्द्रो देवता। प्रगाथः चतुर्ऋचं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indra Devata

    Meaning

    Indra, by the power and abundance of his omnipotence, expands and pervades heaven and earth. Indra gives the radiance of light to the sun. All regions of the universe and her children are sustained in life and order in Indra, and in the infinite power, presence and abundance of Indra flow all liquid energies of life’s evolution to their perfection and fulfilment.

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    Translation

    Almighty God with his might has spread heaven and earth, the Almighty God has illuminated the sun All the creation are safe in the Almighty God.

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    Translation

    Almighty God with his might has spread heaven and earth, the Almighty God has illuminated the sun. All the creation are safe in the Almighty God.

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    Translation

    O learned persons, the ancient Vedic lore is praised to be worthy of meditating upon; make its thorough exposition to reveal the qualities of theAdorable Lord to the general people and sing the vast Vedic verses, full of natural laws and truths. The sharp intelligence of the praise-singer of verses is generated of itself.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−(इन्द्रः) परमेश्वर्यवान् परमात्मा (मह्ना) महिम्ना। महत्त्वेन (रोदसी) आकाशभूमी (पप्रथत्) विस्तारितवान् (शवः) विभक्तेः सुः। शवसः। बलस्य (इन्द्रः) (सूर्यम्) प्रसिद्धम् (अरोचयत्) अदीपयत् (इन्द्रे) परमात्मनि (ह) एव (विश्वा) व्याप्तानि। सर्वाणि (भुवनानि) लोकजातानि (येमिरे) यम उपरमे-लिट्। नियमिताः स्थापिता बभूवुः (इन्द्रे) (सुवानासः) सूयमानाः। उत्पद्यमानाः (इन्दवः) ऐश्वर्याणि ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    পরমেশ্বরোপাসনোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (ইন্দ্রঃ) ইন্দ্র [পরম্ ঐশ্বর্যবান্ পরমাত্মা] (শবঃ) শক্তির (মহ্না) মহিমা দ্বারা (রোদসী) আকাশ এবং ভূমিকে (পপ্রথৎ) বিস্তৃত করেছে, (ইন্দ্রঃ) ইন্দ্র [পরমাত্মা] (সূর্যম্) সূর্যকে (অরোচয়ৎ) দীপ্তিময় করেছে। (ইন্দ্রে) ইন্দ্রের মধ্যে [পরমাত্মার মধ্যে] (হ)(বিশ্বা) সমস্ত (ভুবনানি) জগৎ (যেমিরে) স্থিত, (ইন্দ্রে) ইন্দ্র [পরমাত্মা]-মধ্যে (সুবানাসঃ) উদ্ভূত (ইন্দবঃ) ঐশ্বর্য আছে॥৪॥

    भावार्थ

    যে পরমাত্মা বিশ্বব্রহ্মাণ্ডের মধ্যে সমস্ত ঐশ্বর্যবান পদার্থ রচনা করেছেন, মনুষ্য সেই পরমেশ্বরের ভক্তির মাধ্যমে পদার্থ হতে উপকার গ্রহণ করে উন্নতি করুক ॥৪॥

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    भाषार्थ

    (ইন্দ্রঃ) পরমেশ্বর (মহ্না) নিজ মহিমা দ্বারা (রোদসী) দ্যুলোক এবং ভূলোককে (প প্রথৎ) বিস্তৃত করেছেন। (শবঃ) বলস্বরূপ (ইন্দ্রঃ) পরমেশ্বর (সূর্যম্) সূর্যকে (অরোচয়ৎ) দীপ্তিমান্ করেছেন। (বিশ্বা) সকল (ভুবনানি) লোক-লোকান্তর (ইন্দ্রে হ) পরমেশ্বরের মধ্যেই আশ্রিত হয়ে (যেমিরে) পরমেশ্বরের নিয়ন্ত্রণে স্থিত। (সুবানাসঃ) উৎপন্ন (ইন্দবঃ) চন্দ্রাদি (ইন্দ্রে) পরমেশ্বরের মধ্যে আশ্রিত হয়ে (যেমিরে) উনার নিয়ন্ত্রণে স্থিত।

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