अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 123/ मन्त्र 1
तत्सूर्य॑स्य देव॒त्वं तन्म॑हि॒त्वं म॒ध्या कर्तो॒र्वित॑तं॒ सं ज॑भार। य॒देदयु॑क्त ह॒रितः॑ स॒धस्था॒दाद्रात्री॒ वास॑स्तनुते सि॒मस्मै॑ ॥
स्वर सहित पद पाठतत् । सूर्य॑स्य । दे॒व॒ऽत्वम् । तत् । म॒हि॒ऽत्वम् । म॒ध्या । कर्तो॑: । विऽत॑तम् । सम् । ज॒भा॒र॒ ॥ य॒दा । इत् । अयु॑क्त । ह॒रित॑: । स॒धऽस्था॑त् । आत् । रात्री॑ । वास॑: । त॒नु॒ते॒ । सि॒मस्मै॑ ॥१२३.१॥
स्वर रहित मन्त्र
तत्सूर्यस्य देवत्वं तन्महित्वं मध्या कर्तोर्विततं सं जभार। यदेदयुक्त हरितः सधस्थादाद्रात्री वासस्तनुते सिमस्मै ॥
स्वर रहित पद पाठतत् । सूर्यस्य । देवऽत्वम् । तत् । महिऽत्वम् । मध्या । कर्तो: । विऽततम् । सम् । जभार ॥ यदा । इत् । अयुक्त । हरित: । सधऽस्थात् । आत् । रात्री । वास: । तनुते । सिमस्मै ॥१२३.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
सूर्य के काम का उपदेश।
पदार्थ
(तत्) उस [ब्रह्म] ने (सूर्यस्य) सूर्य के (मध्यः) बीच में (तत्) उस (विततम्) फैले हुए (देवत्वम्) प्रकाशपन को, (महित्वम्) बड़प्पन को और (कर्तोः) [आकर्षण आदि] कर्म को (सम् जभार) बटोरकर रख दिया है−कि (यदा इत्) जब ही वह [सूर्य] (हरितः) रस पहुँचानेवाली किरणों को (सधस्थात्) एक से स्थान से (अयुक्त) जोड़ता है, [आगे बढ़ाता है], (आत्) तभी (रात्री) रात्री (सिमस्मै) सबके लिये (वासः) वस्त्र [अन्धकार] (तनुते) फैलाती है ॥१॥
भावार्थ
जिस परमात्मा ने बहुत बड़े तेजस्वी, आकर्षक सूर्यलोक को बनाया है, और जो उस सूर्य और पृथिवी की गति से प्रकाश और रात्रि करके प्राणियों को कार्यकुशलता और विश्राम देता है, सब मनुष्य उस जगदीश्वर की उपासना करें ॥१॥
टिप्पणी
यह सूक्त ऋग्वेद में है-१।११।४, ॥ १−(तत्) प्रसिद्धं ब्रह्म (सूर्यस्य) रविमण्डलस्य (देवत्वम्) प्रकाशत्वम् (तत्) प्रसिद्धम् (महित्वम्) महत्त्वम् (मध्या) विभक्तेराकारः। मध्ये (कर्तोः) करोतेः-तोसुन्प्रत्ययः। कर्म (विततम्) विस्तृतम् (सम्) संचित्य (जभार) जहार। गृहीतवान् (यदा) (इत्) एव (अयुक्त) युनक्ति (हरितः) रसप्रापकान् रश्मीन् (सधस्थात्) समानस्थानात् (आत्) अनन्तरम् (रात्री) (वासः) वस्त्रम्। अन्धकारम् (तनुते) विस्तारयति (सिमस्मै) सर्वस्मै संसाराय ॥
विषय
उपसंहार
पदार्थ
१. (तत्) = तभी (सूर्यस्य) = सुर्य का-सूर्य के समान ज्ञानदीप्त मेधावी पुरुष का (देवत्वम्) = देवपन है, (तत्) = तभी (महित्वम्) = बड़प्पन व माहिमा होती है (यदा) = जबकि (मध्यःकर्तो:) = कामों के बीच में (विततम्) = फैले हुए क्रियाजाल को (संजभार) = संगृहीत करता है। संसार में मनुष्य ने आजीविका के लिए कोई-न-कोई काम तो करना ही होता है। प्रारम्भ में कार्य छोटा-सा होता है। धीरे धीरे कई बार वह बड़ा फैल जाता है। मनुष्य उसमें उलझ जाता है। कई बार इतना उलझ जाता है कि उसे खान-पान की सुध भी नहीं रहती। इस उलझन से उसके आयुष्य में भी कमी आ जाती है और ज्ञान-मार्ग के आक्रमण का तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता। इसी सम्पूर्ण विचार से वैदिक संस्कृति में गृहस्थ को समाप्त करके वानप्रस्थ होने का आदेश है। मनुष्य अपने कार्यों को समाप्त [wind up] करे और स्वाध्याय में समय का यापन करे। समाप्ति का यह भी प्रकार है कि अपने इन सब कार्यों को पुत्रों के कन्धों पर डाल दे। २. इसप्रकार निपटकर (यदा) = जब यह (इत्) = निश्चय से (सधस्थात्) = सदा साथ रहनेवाले प्रभु से (हरित:) = ज्ञान की रश्मियों को (अयुक्त) = अपने साथ जोड़ता है, तब इस ज्ञान की रश्मियों से द्योतित होकर यह 'देव' बनता है। इस ज्ञानदीप्ति से ही यह महिमावाला होता है। ३. (आत्) = अन्यथा, अर्थात् कर्मों का उपसंहार करके प्रभु की गोद में न बैठने पर (रात्री) = अज्ञानान्धकार (सिमस्मै) = सबके लिए (वास:) = अज्ञानान्धकार के वस्त्रों को (तनुते) = तान देती है। धन में उलझा हुआ मनुष्य चिन्तामय जीवनवाला होता है। उसे मैं कौन हूँ, यहाँ क्यों आया हूँ' इन प्रश्नों के सोचने का समय ही नहीं मिलता। इसप्रकार अपने स्वरूप के विषय में ही वह अज्ञानन्धकार में रहता है।
भावार्थ
हम जीविका के कार्यों का उपसंहार करके सधस्थ प्रभु से ज्ञान प्राप्त करें, जिससे हमपर सदा अज्ञान का पर्दा ही न पड़ा रहे।
भाषार्थ
(सूर्यस्य) सूर्य की (तत् देवत्वम्) वह दिव्यता, तथा (तत्) वह (महित्वम्) महिमा है, (यत्) जो कि वह (कर्तोः) किये जाते हुए कर्मों के (मध्या) मध्य में ही, (विततम्) फैले हुए रश्मिसमूह का (सं जभार) संहार कर लेता है। (यदा इत्) जब ही (सधस्थात्) नक्षत्र तारागणों के सहस्थान द्युलोक से सूर्य, (हरितः) ओषधि-वनस्पतियों को हरा-भरा करने वाली रश्मियों को (अयुक्त) मानो अपने साथ सम्बद्ध कर लेता है, (आत् इत्) तदनन्तर ही (रात्री) रात (सिमस्मै) समग्र पृथिवी पर (वासः) मानो अपना आवरण (तनुते) फैला देती है।
टिप्पणी
[मन्त्र में सूर्य द्वारा सूर्यों के सूर्य परमेश्वर का भी वर्णन अभिप्रेत है। परमेश्वर जब संसार से अपनी शक्तियाँ हर लेता है, तब प्रलय-रात्री समग्र-जगत् पर आवरण डाल देती है।]
इंग्लिश (4)
Subject
Indra Devata
Meaning
That Lord of the universe, Omnipotent Light of creation, is the Sun, Savita, who holds and sustains the light and grandeur of the sun pervading in the world of action. And it is He who withdraws and folds up the same divinity and grandeur of the sun. And when the Lord withdraws the light of the sun, then the Night of Pralaya absorbs everything of existence into her fold of darkness. (This is the story of the eternal round of evolution and involution of the universe.) When the sun, in the daily round of day-light and darkness at night, collects the rays of light from down below then the night spreads her cover of darkness over all. (This is the story of the daily round of the day- night cycle.)
Translation
This is the mystry and grandeur and the vast operative force which the Supreme spirit has blinded together in the centre of the sun. When this sun unites its rays with one place (and separates from the other) the night spreads its garment of darkness for all.
Translation
This is the mystry and grandeur and the vast operative force which the Supreme spirit has blinded together in the centre of the sun. When this sun unites its rays with one place (and separates from the other) the night spreads its garment of darkness for all.
Translation
That is the shape or form that the Sun gives to Mitra i.e., lit-up Prana-light (day time) and Varuna—Water (night time) in the vicinity of the heavens. His rays well maintain his limitless might, bright at one time, (during the day) and dark at another (i.e., during the night).
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
यह सूक्त ऋग्वेद में है-१।११।४, ॥ १−(तत्) प्रसिद्धं ब्रह्म (सूर्यस्य) रविमण्डलस्य (देवत्वम्) प्रकाशत्वम् (तत्) प्रसिद्धम् (महित्वम्) महत्त्वम् (मध्या) विभक्तेराकारः। मध्ये (कर्तोः) करोतेः-तोसुन्प्रत्ययः। कर्म (विततम्) विस्तृतम् (सम्) संचित्य (जभार) जहार। गृहीतवान् (यदा) (इत्) एव (अयुक्त) युनक्ति (हरितः) रसप्रापकान् रश्मीन् (सधस्थात्) समानस्थानात् (आत्) अनन्तरम् (रात्री) (वासः) वस्त्रम्। अन्धकारम् (तनुते) विस्तारयति (सिमस्मै) सर्वस्मै संसाराय ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
সূর্যকৃত্যোপদেশঃ
भाषार्थ
(তৎ) তিনি [ব্রহ্ম] (সূর্যস্য) সূর্যের (মধ্যঃ) মধ্যে (তৎ) প্রসিদ্ধ (বিততম্) বিস্তৃত/প্রশস্ত (দেবত্বম্) প্রকাশত্বকে, (মহিত্বম্) মহত্ত্বকে এবং (কর্তোঃ) [আকর্ষণ আদি] কর্মকে (সম্ জভার) বন্টন করে রেখেছেন−যাতে (যদা ইৎ) যখনই সেই [সূর্য] (হরিতঃ) রস প্রেরক কিরণসমূহ (সধস্থাৎ) একই/সমান স্থানে (অয়ুক্ত) যুক্ত করে, [সামনে অগ্রসর হয়], (আৎ) তখনই (রাত্রী) রাত্রী (সিমস্মৈ) সকলের জন্য (বাসঃ) বস্ত্র [অন্ধকার] (তনুতে) বিস্তার করে॥১॥
भावार्थ
পরমাত্মা যিনি অনেক তেজস্বী, আকর্ষক সূর্যলোক সৃষ্টি করেছেন, এবং যিনি সেই সূর্য এবং পৃথিবীর গতি দ্বারা প্রকাশ এবং রাত্রি নির্মাণ করে প্রাণীদের কার্যকুশলতা এবং বিশ্রাম প্রদান করেন, সমস্ত মনুষ্য সেই জগদীশ্বরের উপাসনা করুক ॥১॥ এই সূক্ত ঋগ্বেদে আছে-১।১১।৪,৫ ॥
भाषार्थ
(সূর্যস্য) সূর্যের (তৎ দেবত্বম্) সেই দিব্যতা, তথা (তৎ) সেই (মহিত্বম্) মহিমা আছে, (যৎ) যা (কর্তোঃ) ক্রিয়মান কর্ম-সমূহের (মধ্যা) মধ্যেই, (বিততম্) বিস্তৃত রশ্মিসমূহের (সং জভার) সংহার কর নেয়। (যদা ইৎ) যখনই (সধস্থাৎ) নক্ষত্র তারাগণের সহস্থান দ্যুলোক থেকে সূর্য, (হরিতঃ) ঔষধি-বনস্পতিকে পরিপূর্ণকারী রশ্মি-সমূহকে (অযুক্ত) মানো নিজের সাথে যুক্ত করে নেয়, (আৎ ইৎ) তদনন্তরই (রাত্রী) রাত (সিমস্মৈ) সমগ্র পৃথিবীতে (বাসঃ) মানো নিজ আবরণ (তনুতে) বিস্তার করে।
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