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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 126 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 126/ मन्त्र 1
    ऋषिः - वृषाकपिरिन्द्राणी च देवता - इन्द्रः छन्दः - पङ्क्तिः सूक्तम् - सूक्त-१२६
    1

    वि हि सोतो॒रसृ॑क्षत॒ नेन्द्रं॑ दे॒वम॑मंसत। यत्राम॑दद्वृ॒षाक॑पिर॒र्यः पु॒ष्टेषु॒ मत्स॑खा॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि । हि । सोतो॑: । असृ॑क्षत । न । इन्द्र॑म् । दे॒वम् । अ॒मं॒स॒त॒ ॥ यत्र॑ । अम॑दत् । वृ॒षाक॑पि: । अ॒र्य: । पु॒ष्टेषु॑ । मत्ऽस॑खा । विश्व॑स्मात् । इन्द्र॑: । उत्ऽत॑र: ॥१२६.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वि हि सोतोरसृक्षत नेन्द्रं देवममंसत। यत्रामदद्वृषाकपिरर्यः पुष्टेषु मत्सखा विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वि । हि । सोतो: । असृक्षत । न । इन्द्रम् । देवम् । अमंसत ॥ यत्र । अमदत् । वृषाकपि: । अर्य: । पुष्टेषु । मत्ऽसखा । विश्वस्मात् । इन्द्र: । उत्ऽतर: ॥१२६.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 126; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    गृहस्थ के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (हि) क्योंकि (सोतोः) तत्त्वरस का निकालना (वि असृक्षत) उन्होंने [लोगों ने] छोड़ दिया है, [इसी से] (देवम्) विद्वान् (इन्द्रम्) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले मनुष्य आत्मा] को (न अमंसत) उन्होंने नहीं जाना, (यत्र) जहाँ [संसार में] (अर्यः) स्वामी (मत्सखा) मेरा [देहवाले का] साथी (वृषाकपिः) वृषाकपि [बलवान् कँपानेवाले अर्थात् चेष्टा करानेवाले जीवात्मा] ने (पुष्टेषु) पुष्टिकारक धनों में (अमदत्) आनन्द पाया है, (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला मनुष्य] (विश्वस्मात्) सब [प्राणी मात्र] से (उत्तरः) उत्तम है ॥१॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य, दूसरे जीवों से अधिक उत्तम और तत्त्वज्ञानी होने पर भी अपने सामर्थ्य और कर्तव्य को भूल जाते हैं, वे आत्मघाती संसार में सुख कभी नहीं पाते ॥१॥

    टिप्पणी

    यह सूक्त ऋग्वेद में है-१०।८६।१-२३ ॥ सूचना−इस सूक्त में इन्द्र, वृषाकपि, इन्द्राणी और वृषाकपायी का वर्णन है। इन्द्र शब्द से मनुष्य का शरीरधारी जीवात्मा, वृषाकपि से भीतरी जीवात्मा, इन्द्राणी से इन्द्र की विभूति वा शक्ति और वृषाकपायी से वृषाकपि की विभूति वा शक्ति तात्पर्य है, अर्थात् एक ही मनुष्य के जीवात्मा का वर्णन भिन्न-भिन्न प्रकार से है। इन्द्र अर्थात् शरीरधारी मनुष्य सब प्राणियों से श्रेष्ठ है, वह अपने को बुराई से बचाकर भलाई में सदा लगावे−सूक्त का यही सारांश है ॥ १−(वि) वियोगे (हि) यस्मात् कारणात् (सोतोः) ईश्वरे तोसुन्कसुनौ। पा० ३।४।१३। षुञ् अभिषवे-तोसुन्। अभिषोतुम्। तत्त्वरसं निष्पादयितुम् (असृक्षत) विसृष्टवन्तः। त्यक्तवन्तः (नि) निषेधे (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तं मनुष्यम् (देवम्) विद्वांसम् (अमंसत) मन ज्ञाने-लुङ्। ज्ञातवन्तः (यत्र) यस्मिन् संसारे (अमदत्) हृष्टोऽभूत् (वृषाकपिः) कनिन् युवृषितक्षि०। उ० १।१६। वृष सेचने पराक्रमे च-कनिन्, यद्वा, इगुपधज्ञाप्रीकिरः कः। पा० ३।१।१३। इति कप्रत्ययः। कुण्ठिकम्प्योर्नलोपश्च। उ० ४।१४४। कपि चलने-इप्रत्ययः। अन्येषामपि दृश्यते। पा० ।६। अथ यद् रश्मिभिरभिप्रकम्पयन्नेति तद् वृषाकपिर्भवति वृषाकम्पनः-निरु० १२।२७। हरविष्णू वृषाकपिः-अमरः, २३।१३०। वृषाकपि=विष्णुः, शिवः, अग्निः, इन्द्रः, सूर्यः-इति शब्दकल्पद्रमः। वृषा बलवान्, कपिः कम्पयिता चेष्टयिता इन्द्रो जीवात्मा (अर्यः) स्वामी (पुष्टेषु) पोषकेषु धनेषु (मत्सखा) मम शरीरधारिणः सखा (विश्वस्मात्) सर्वस्मात् प्राणिमात्रात् (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् शरीरधारी मनुष्यः (उत्तरः) श्रेष्ठतरः ॥

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    विषय

    प्रभु-मित्रता में आनन्द

    पदार्थ

    १. (हि) = निश्चय से (सोतो:) = ज्ञान को उत्पन्न करने के हेतु से (वि असृक्षत) = विशेषरूप से इन इन्द्रियों का निर्माण हुआ है, परन्तु सामान्यत: ये तत्त्वज्ञान की ओर न झुककर विषयों की ओर भागती हैं। (देवम् इन्द्रम्) = उस प्रकाशमय प्रभु का (न अमंसत) = मनन नहीं करतीं। २. ये इन्द्रदेव प्रभु वे हैं, (यत्र) = जिनमें स्थित हुआ-हुआ (वृषाकपि:) = वासनाओं को कम्पित करके दूर करनेवाला [कपि] शक्तिशाली [वृषा] पुरुष (अमदत्) = आनन्द का अनुभव करता है। यह वृषाकृषि (अर्य:) = स्वामी बनता है, इन्द्रियों का दास नहीं होता। (पुष्टेषु) = अंग-प्रत्यंग की शक्तियों का पोषण करने पर (मत्सखा) = [माद्यति इति मत्] इस आनन्दमय प्रभुरूप मित्रवाला होता है। ३. यह (इन्द्रः) = परमैश्वर्यशाली प्रभु ही (विश्वस्मात् उत्तर:) = सबसे उत्कृष्ट हैं। प्रभु-प्राप्ति में सम्पूर्ण प्राप्ति संसार की प्राप्ति स्वयं ही हो जाती है।

    भावार्थ

    इन्द्रियों तत्त्वज्ञान की प्राप्ति के लिए दी गई हैं। इनके द्वारा तत्त्वज्ञान प्राप्त करते हुए हम 'वृषाकपि' बनकर प्रभु-प्रासि में आनन्द का अनुभव करें।

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    भाषार्थ

    जो लोग अर्थात् नास्तिक (इन्द्रं देवम्) परमेश्वर-देव को (न अमंसत) नहीं मानते, वे (हि) निश्चय से, (सोतोः) भक्तिरस के निष्पादन का (वि असृक्षत) विसर्जन कर देते हैं, अर्थात् परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना, उपासना तथा समर्पण नहीं करते। वस्तुतः परमेश्वर-देव वह है (यत्र) जिसके आश्रय में रहकर, (वृषाकपिः) परमेश्वर पर भक्तिरस की वर्षा करनेवाला, तथा कामादि को मानो कम्पा देनेवाला, (अर्यः) तथा इन्द्रियों और मन का स्वामी जीवात्मा (अमदत्) हर्षित तथा प्रसन्न होता है। (इन्द्रः) परमेश्वर (विश्वस्मात्) संसार की समग्र शक्तियों से (उत्तरः) उत्कृष्ट है। वह परमेश्वर (पुष्टेषु) संसार की परिपुष्ट शक्तियों में (उत्तरः) सर्वातिशायी परिपुष्ट शक्तियोंवाला है। (मत्सखा) और मुझ जीवात्मा का सखा है।

    टिप्पणी

    [सोतोः=सु+तोसुन्, तुमुन्नर्थें। मत्सखा=मुझ वृषाकपि का सखा। जीवात्मा का असली सखा परमेश्वर है, नकि प्रकृति। इसी प्रकार परमेश्वर का असली सखा है जीवात्मा। इसी जीवात्मा के भोगों तथा मोक्ष के लिए परमेश्वर जगद्रचना कर रहा है। योग (२.२१) में कहा है कि “तदर्थः एव दृश्यस्यात्मा”। अर्थात् यह समग्र दृश्य-जगत् जीवात्मा के भोग और अन्त में मोक्ष के लिए है। जीवात्मा और परमात्मा परस्पर सखा हैं, इस सम्बन्ध में मन्त्र निम्नलिखित हैं। यथा “द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया০” (अथर्ववेद ९.९.२०)।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indra Devata

    Meaning

    The creatures having been created flowed forth, streamed too far and strayed from acknowledgement of the creator Indra, where Vrshapkapi, the human soul, jivatma, top master among the created, rejoiced among them. My friend and favourite, Indra, great and generous, is supreme over the whole creation, says Prakrti, the mother consort.

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    Translation

    All the creatures are created by God Almighty, they do not know Him, He is He in whom the soul (Vrishakapih) enjoys blessedness and who is present in all the objects as their master. The Almighty God is rareast of all and superme over all.

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    Translation

    All the creatures are created by God Almighty, they do not know Him, He is He in whom the soul (Vrishakapih) enjoys blessedness and who is present in all the objects as their master. The Almighty God is rareast of all and supreme over all.

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    Translation

    O Almighty God, what has this soul, brilliant like the Sun, peace showering in Dharm-MeghSmadhi, like a raining cloud, attracted by Thy magnetic Power and keenly searching Thee, like a deer (in search of water in the desert), done for Thee that Thou goest on showering wealth and fortune to feed and nourish him, like the master showering these things on his servants etc?

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    यह सूक्त ऋग्वेद में है-१०।८६।१-२३ ॥ सूचना−इस सूक्त में इन्द्र, वृषाकपि, इन्द्राणी और वृषाकपायी का वर्णन है। इन्द्र शब्द से मनुष्य का शरीरधारी जीवात्मा, वृषाकपि से भीतरी जीवात्मा, इन्द्राणी से इन्द्र की विभूति वा शक्ति और वृषाकपायी से वृषाकपि की विभूति वा शक्ति तात्पर्य है, अर्थात् एक ही मनुष्य के जीवात्मा का वर्णन भिन्न-भिन्न प्रकार से है। इन्द्र अर्थात् शरीरधारी मनुष्य सब प्राणियों से श्रेष्ठ है, वह अपने को बुराई से बचाकर भलाई में सदा लगावे−सूक्त का यही सारांश है ॥ १−(वि) वियोगे (हि) यस्मात् कारणात् (सोतोः) ईश्वरे तोसुन्कसुनौ। पा० ३।४।१३। षुञ् अभिषवे-तोसुन्। अभिषोतुम्। तत्त्वरसं निष्पादयितुम् (असृक्षत) विसृष्टवन्तः। त्यक्तवन्तः (नि) निषेधे (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तं मनुष्यम् (देवम्) विद्वांसम् (अमंसत) मन ज्ञाने-लुङ्। ज्ञातवन्तः (यत्र) यस्मिन् संसारे (अमदत्) हृष्टोऽभूत् (वृषाकपिः) कनिन् युवृषितक्षि०। उ० १।१६। वृष सेचने पराक्रमे च-कनिन्, यद्वा, इगुपधज्ञाप्रीकिरः कः। पा० ३।१।१३। इति कप्रत्ययः। कुण्ठिकम्प्योर्नलोपश्च। उ० ४।१४४। कपि चलने-इप्रत्ययः। अन्येषामपि दृश्यते। पा० ।६। अथ यद् रश्मिभिरभिप्रकम्पयन्नेति तद् वृषाकपिर्भवति वृषाकम्पनः-निरु० १२।२७। हरविष्णू वृषाकपिः-अमरः, २३।१३०। वृषाकपि=विष्णुः, शिवः, अग्निः, इन्द्रः, सूर्यः-इति शब्दकल्पद्रमः। वृषा बलवान्, कपिः कम्पयिता चेष्टयिता इन्द्रो जीवात्मा (अर्यः) स्वामी (पुष्टेषु) पोषकेषु धनेषु (मत्सखा) मम शरीरधारिणः सखा (विश्वस्मात्) सर्वस्मात् प्राणिमात्रात् (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् शरीरधारी मनुष्यः (उत्तरः) श्रेष्ठतरः ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    গৃহস্থকর্তব্যোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (হি) কারণ (সোতোঃ) তত্ত্বরসের নিষ্পাদন (বি অসৃক্ষত) তাঁরা [লোকেরা] ছেড়ে দিয়েছে/ত্যাগ করেছে, [তাই] (দেবম্) বিদ্বান্ (ইন্দ্রম্) ইন্দ্রকে [মহান ঐশ্বর্যবান মনুষ্য আত্মাকে] (ন অমংসত) তারা জানে না/জানতে সক্ষম হয়নি, (যত্র) যেখানে [সংসারে] (অর্যঃ) স্বামী (মৎসখা) আমার [দেহধারীর] সাথী (বৃষাকপিঃ) বৃষাকপি [বলবান কম্পিতকারী অর্থাৎ প্রচেষ্টাকারী জীবাত্মা] (পুষ্টেষু) পুষ্টিকারক ধন-সম্পদে (অমদৎ) আনন্দ পায়/প্রাপ্ত করেছে (ইন্দ্রঃ) ইন্দ্র [পরম্ ঐশ্বর্যবান মনুষ্য] (বিশ্বস্মাৎ) সব [প্রাণীমাত্র] থেকে (উত্তরঃ) উত্তম ॥১॥

    भावार्थ

    যে মনুষ্য, অন্য জীবের চেয়ে অধিক উত্তম এবং তত্ত্বজ্ঞানী হওয়ার পরেও নিজের সামর্থ্য এবং কর্তব্যকে ভুলে যায়, সেই আত্মঘাতী সংসারে কখনো সুখ পায় না ॥১॥ এই সূক্ত ঋগ্বেদে আছে-১০।৮৬।১-২৩ ॥ সূচনা−এই সূক্তে ইন্দ্র, বৃষাকপি, ইন্দ্রাণী এবং বৃষাকপায়ী-এর বর্ণনা আছে। ইন্দ্র শব্দ দ্বারা মনুষ্যের শরীরধারী জীবাত্মা, বৃষাকপি দ্বারা আভ্যন্তরীণ জীবাত্মা, ইন্দ্রাণী দ্বারা ইন্দ্রের বিভূতি বা শক্তি এবং বৃষাকপায়ী দ্বারা বৃষাকপির বিভূতি বা শক্তি তাৎপর্য হয়েছে, অর্থাৎ একই মনুষ্যের জীবাত্মার বর্ণনা ভিন্ন-ভিন্ন প্রকারে আছে। ইন্দ্র অর্থাৎ শরীরধারী মনুষ্য সকল প্রাণীদের মধ্যে শ্রেষ্ঠ, সে নিজেকে অধম থেকে দূরে রেখে উত্তমে সদা নিয়োজিত করুক−সূক্তের এটাই সারাংশ ॥

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    भाषार्थ

    যারা অর্থাৎ নাস্তিক (ইন্দ্রং দেবম্) পরমেশ্বর-দেবকে (ন অমংসত) মান্য করে না, তাঁরা (হি) নিশ্চিতরূপে, (সোতোঃ) ভক্তিরস নিষ্পাদনের (বি অসৃক্ষত) বিসর্জন করে দেয়, অর্থাৎ পরমেশ্বরের স্তুতি, প্রার্থনা, উপাসনা তথা সমর্পণ করে না। বস্তুতঃ পরমেশ্বর-দেব তিনি (যত্র) যার আশ্রয়ে থেকে, (বৃষাকপিঃ) পরমেশ্বরের প্রতি ভক্তিরসের বর্ষণকারী, তথা কামাদিকে মানো কম্পিতকারী, (অর্যঃ) তথা ইন্দ্রিয়-সমূহ এবং মনের স্বামী জীবাত্মা (অমদৎ) হর্ষিত তথা প্রসন্ন হয়। (ইন্দ্রঃ) পরমেশ্বর (বিশ্বস্মাৎ) সংসারের সমগ্র শক্তি থেকে (উত্তরঃ) উৎকৃষ্ট। সেই পরমেশ্বর (পুষ্টেষু) সংসারের পরিপুষ্ট শক্তির মধ্যে (উত্তরঃ) সর্বাতিশায়ী পরিপুষ্ট শক্তিসম্পন্ন। (মৎসখা) এবং আমার জীবাত্মার সখা।

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