अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 127/ मन्त्र 1
ऋषिः -
देवता - प्रजापतिरिन्द्रो वा
छन्दः - पथ्या बृहती
सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
3
इ॒दं जना॒ उप॑ श्रुत॒ नरा॒शंस॒ स्तवि॑ष्यते। ष॒ष्टिं स॒हस्रा॑ नव॒तिं च॑ कौरम॒ आ रु॒शमे॑षु दद्महे ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒दम् । जना॒: । उप॑ । श्रुत॒ । नरा॒शंस॒: । स्तवि॑ष्यते ॥ ष॒ष्टिम् । स॒हस्रा॑ । नव॒तिम् । च॑ । कौरम॒ । आ । रु॒शमे॑षु । दद्महे ॥१२७.१॥
स्वर रहित मन्त्र
इदं जना उप श्रुत नराशंस स्तविष्यते। षष्टिं सहस्रा नवतिं च कौरम आ रुशमेषु दद्महे ॥
स्वर रहित पद पाठइदम् । जना: । उप । श्रुत । नराशंस: । स्तविष्यते ॥ षष्टिम् । सहस्रा । नवतिम् । च । कौरम । आ । रुशमेषु । दद्महे ॥१२७.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
राजा के धर्म का उपदेश।
पदार्थ
(जनाः) हे मनुष्यो ! (इदम्) यह (उप) आदर से (श्रुत) सुनो, [कि] (नराशंसः) मनुष्यों में प्रशंसावाला पुरुष (स्तविष्यते) बड़ाई किया जावेगा। (कौरम) हे पृथिवी पर रमण करनेवाले राजन् ! (षष्टिम् सहस्रा) साठ सहस्र (च) और (नवतिम्) नब्बे [अर्थात् अनेक दानों] को (रुशमेषु) हिंसकों के फैंकनेवाले वीरों के बीच (आ दद्महे) हम पाते हैं ॥१॥
भावार्थ
उत्तम कर्म करनेवाला मनुष्य संसार में सदा बड़ाई पाता है, यह विचारकर राजा कर्मकुशल वीरों के बीच आदर करके सुपात्रों को अनेक दान देवे ॥१॥
टिप्पणी
[सूचना−सूक्त १३६ के मन्त्र १ तथा ४ को छोड़कर, यह कुन्तापसूक्त १२७-१३६ ऋग्वेद आदि अन्य वेदों में नहीं है। हम स्वामी विश्वेश्वरानन्द नित्यानन्द कृत पदसूची से पदपाठ को संग्रह करके और कुछ शोधकर लिखते हैं। आगे सूचना अथर्व० २०।३४।१२, १६, १७; ४८।१-३; ४९।१-३ भी देखो ॥](कुन्तापसूक्तानि) का अर्थ पाप वा दुःख के भस्म करनेवाले सूक्त अर्थात् वेदमन्त्रों के समुदाय हैं ॥ [कुन्तापसूक्तानि−कुङ् आर्तस्वरे-डुप्रत्ययः+तप दाहे-घञ्, अलुक्-समासः+सु+वच कथने-क्त। कोः पापस्य दुःखस्य तापकानि दाहकानि सूक्तानि सुन्दरकथनानि वेदमन्त्रसमुदायाः-इत्यर्थः]॥ १−(इदम्) वक्ष्यमाणम् (जनाः) हे मनुष्याः (उप) आदरे (श्रुत) शृणुत (नराशंसः) अथ० ।२७।३। नरेषु आशंसा यस्य सः। मनुष्येषु प्रशंसनीयः (स्तविष्यते) स्तुत्यो भविष्यति (षष्टिं सहस्रा नवतिं च) बहुसंख्याकानि दानानि-इत्यर्थः (कौरम) कौ+रमु क्रीडायाम्-अच्, अलुक्समासः। हे कौ पृथिव्यां रमणशील राजन् (रुशमेषु) अथ० २०।२०।२। रुशमाणां हिंसकानां प्रक्षेपकेषु वीरेषु (आ दद्महे) वयं गृह्णीमः ॥
विषय
षष्टि-सहस्त्रा-नवर्ति [च]
पदार्थ
१. (जना:) = हे लोगो! (इदम् उपभुत) = इस बात को ध्यान से सुनो। (नराशंस:) = उन्नति-पथ पर चलनेवालों से शंसनीय वह प्रभु (स्तविष्यते) = हमसे स्तुत होगा। हम प्रभु का स्तवन करेंगे, आप सब प्रभु-स्तवन को सुनने का अनुग्रह करो। २. प्रभु-स्तवनपूर्वक (कौरमे) = [कु+रम्] इस पृथ्विी पर क्रीड़ा करनेवाले में-क्रीड़क की मनोवृत्ति से सब कार्यों को करनेवाले में तथा (रुशमेषु) = काम, क्रोध, लोभ आदि आसुरवृत्तियों का संहार करनेवाले में हम (षष्टिं) = [ष-wise] अतिशयित बुद्धिमत्ता को (सहस्त्रा) = [स हस्]-आनन्दमयी मनोवृत्तियों को तथा (नवतिम्) = [नवते to go] क्रियाशीलता को (आदद्महे) = सब प्रकार से ग्रहण करते हैं। ३. वस्तुत: प्रभु-स्तवन की वृत्तिवाला व्यक्ति 'कौरम व रुशम' बनता है। यह सब स्थितियों को क्रीडक की मनोवृत्ति से करता है तथा वासनाओं का संहार करता है। परिणामत: यह बुद्धिमत्ता [पष्टि] मनःप्रसाद [स-हला] तथा क्रियाशीलता को [नवति] प्राप्त करता है।
भावार्थ
प्रभु-स्तवन करते हुए हम क्रीडक की मनोवृत्तिवाले व वासनाओं का संहार करनेवाले बनें। ऐसी स्थिति में हम 'बुद्धि-प्रसाद व क्रियाशीलता' के द्वारा मस्तिष्क, हृदय व शरीर-तीनों का स्वास्थ्य प्राप्त करेंगे।
भाषार्थ
[१२७ सूक्त से १३६ सूक्त तक “कुन्ताप-सूक्त” हैं, ये सूक्त “खिल” अर्थात् परिशिष्ट हैं। महर्षि दयानन्द ने इन्हें “प्रक्षिप्त” माना है, अर्थात् मिलावट माना है। “चतुर्वेद-विषय-सूची” (वैदिक यन्त्रालय अजमेर) में उनका कथन निम्नलिखित हैः— (१) “य एष स्वप्ननंशन इत्यादि पदार्थविद्या”। “अथर्ववेदे विंशम् काण्डम्”॥ २०॥ “इति अथर्ववेदस्य सूचीपत्रम् समाप्तम्”॥ अर्थात् “य एष स्वप्ननंशनः” (सूक्त १२६, मन्त्र २१ से) पदार्थविद्या का वर्णन है। “अथर्ववेद में २० वां काण्ड समाप्त”। “यह अथर्ववेद का सूचीपत्र समाप्त हुआ”। (२) “भद्रेण वचसा वयम्” (अथर्व০ १२७.१४) इत्यादि; “गोमयाद् (गोमीद्या) गोगतिरिव (गोगतिरिति)” (अथर्व০ १२९.१३) इत्यादि; “आदलाबुकमेककम्, अलाबुकं निखातकम्” (अथर्व০ १३२.१, २)॥ १॥ इत्यादि; “उद्भिर्यथालाबुनि” (अथर्व০ १३५.२ ; १३५.३) इत्यादि; “इदं राधो विभु प्रभु” (अथर्व০ १३५.९) इत्यादि;—इति कुन्तपा-सूक्तानि समाप्तानि। परिशिष्टानि प्रक्षिप्तानीति विज्ञेयम्॥ अभिप्राय यह है कि सूक्त १२७, मन्त्र १४ से सूक्त १३६ की समाप्ति तक ‘कुन्ताप-सूक्त’ समाप्त हैं। ये परिशिष्ट हैं, प्रक्षिप्त हैं—यह जानना चाहिए। (३) तथा “अथर्ववेदीय बृहदनुक्रमणी” में भी “इदं जना” (सूक्त १२७ से लेकर “यद्ध प्राचीः” (सूक्त १३७) से पूर्व तक अर्थात् २०.१२७ से १३६ सूक्तों को “खिलानि” कहा है। “खिल” का अर्थ परिशिष्ट या प्रक्षिप्त है। इन सूक्तों के मन्त्रों में, स्थान-स्थान पर पद अत्यन्त अस्पष्टार्थक हैं, तथा मन्त्रों के अभिप्राय अतिगूढ़ हैं। टिप्पणी—(१) “भद्रेण वचसा वयम्” से पूर्व “इदं जना उप श्रुत” (अथर्व০ १२७.१) यह पाठ भी चाहिए था जो किसी कारण छूट गया है, या कम्पोजिंग में रह गया है। क्योंकि कुन्ताप-सूक्तों का प्रारम्भ “इदं जना उप श्रुत” से होता है, न कि “भद्रेण वचसा वयम्” से। (२) “य एष स्वप्ननंशनः” (सूक्त १३६, मन्त्र २१) इत्यादि पदार्थविद्या,”—द्वारा महर्षि ने २० वें मण्डल की समाप्ति तक, अर्थात् सूक्त १४३, मन्त्र ९ तक का विषय निर्देश कर दिया है। परन्तु इन सूक्तों के मध्य में १२७ वें सूक्त से लेकर १३६ वें सूक्त तक “कुन्ताप-सूक्त” पठित हैं, जिन्हें कि महर्षि ने परिशिष्ट अर्थात् प्रक्षिप्त कहा है। (३) परन्तु वह सन्दर्भ जिसमें कि “कुन्ताप सूक्तों” को परिशिष्ट अर्थात् प्रक्षिप्त कहा है, उसके अन्त में निम्नलिखित वाक्य “चतुर्वेद-विषय-सूची” में और मिलता है। यथा—“यद्वा वाणीत्यादि (सूक्त १४२, मन्त्र ४); ऋतस्येत्यादि (सूक्त १४३, मन्त्र ३); मधुमानित्यादि (सूक्त १४३, मन्त्र ८) पदार्थविद्या।” इस वाक्य द्वारा यह प्रतीत होता है कि कुन्ताप-सूक्तों के पश्चात् के सूक्त भी, अर्थात् २० वें काण्ड की समाप्ति तक २० वें काण्ड के ही भाग हैं।] (जनाः) हे प्रजाजनो! (इदम्) यह (उप श्रुत) ध्यानपूर्वक सुनो—(नराशंसः) नरों के सम्बन्ध में कथन (स्तविष्यते) प्रारम्भ किया जाता है। (कौरमे) पृथिवी में सदा प्रसन्नचित्त रहनेवालों में, तथा (रुशमेषु) जिनके हिंसा आदि व्यवहार प्रशान्त हो गये हैं ऐसे योगियों में वर्तमान, (षष्टिं सहस्रा) हजारों (नवतिम्) स्तुत्य और प्रशंसनीय सद्गुणों का (आ दद्महे) हम आदान करते है, ग्रहण करते हैं।
टिप्पणी
[षष्टिं सहस्रा—सम्भवतः द्युलोक के प्रत्यक्ष दृष्ट सितारे संख्या में लगभग ६० हजार हों। इस महासंख्या के द्वारा महात्माओं के महासद्गुणों का कथन अभिप्रेत हो। अथवा “षष्टिं” और “सहस्रा” शब्दों को यौगिकार्थ मान लिया जाए। षष्टिम्=सांसारिक भोगों की दृष्टि से मानो सोए हुए रहना; और “सहस्रा” अर्थात् योगाभ्यास में बलोपार्जन करते हुए साहसपूर्वक आगे-आगे बढ़ते जाना। ये सद्गुण महात्माओं के हैं। षष्टिम्=षस् स्वप्ने। सहस्रा=सहस् बलम् (निघं০ २.९), तथा साहस। कौरमे=कौ पृथिव्यां रमते; अलुक् समास। रुशमेषु=रु (रुङ् रेषणे)+शम (प्रशान्त)। नवतिम्=नु स्तुतौ। नु+अतिः, बाहुलकात् ‘अतिः’ प्रत्ययः (उणादि कोष ४.६०)।]
इंग्लिश (4)
Subject
Indra
Meaning
Listen ye all carefully this: The man of virtue worthy of praise and adoration is going to be celebrated. O man of power and joy on earth, from among those who have given up hate and violence and ward off anger and fear, we select and accept sixty thousand and ninety (virtues). (The mantra is highly mystical: ‘Sixty thousand and ninety is interpreted as virtues and as divine gifts, and also as defenders of peace.)
Translation
O people, you hear this. The man whom people praise is here described. We find employed six thousand and ninety persons in the battles of armies slaying foemen O Kauram (he takes delight all over the globe).
Translation
O people, you hear this. The man whom people praise is here described. We find employed six thousand and ninety persons in the battles of armies slaying foemen O Kauram (he takes delight all over the globe).
Translation
To set all the above-mentioned mechanism of destruction, this leader employs the hundred units of energy, ten wreaths of coil, 300 horse-power and ten thousand rays of light.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
[सूचना−सूक्त १३६ के मन्त्र १ तथा ४ को छोड़कर, यह कुन्तापसूक्त १२७-१३६ ऋग्वेद आदि अन्य वेदों में नहीं है। हम स्वामी विश्वेश्वरानन्द नित्यानन्द कृत पदसूची से पदपाठ को संग्रह करके और कुछ शोधकर लिखते हैं। आगे सूचना अथर्व० २०।३४।१२, १६, १७; ४८।१-३; ४९।१-३ भी देखो ॥](कुन्तापसूक्तानि) का अर्थ पाप वा दुःख के भस्म करनेवाले सूक्त अर्थात् वेदमन्त्रों के समुदाय हैं ॥ [कुन्तापसूक्तानि−कुङ् आर्तस्वरे-डुप्रत्ययः+तप दाहे-घञ्, अलुक्-समासः+सु+वच कथने-क्त। कोः पापस्य दुःखस्य तापकानि दाहकानि सूक्तानि सुन्दरकथनानि वेदमन्त्रसमुदायाः-इत्यर्थः]॥ १−(इदम्) वक्ष्यमाणम् (जनाः) हे मनुष्याः (उप) आदरे (श्रुत) शृणुत (नराशंसः) अथ० ।२७।३। नरेषु आशंसा यस्य सः। मनुष्येषु प्रशंसनीयः (स्तविष्यते) स्तुत्यो भविष्यति (षष्टिं सहस्रा नवतिं च) बहुसंख्याकानि दानानि-इत्यर्थः (कौरम) कौ+रमु क्रीडायाम्-अच्, अलुक्समासः। हे कौ पृथिव्यां रमणशील राजन् (रुशमेषु) अथ० २०।२०।२। रुशमाणां हिंसकानां प्रक्षेपकेषु वीरेषु (आ दद्महे) वयं गृह्णीमः ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
রাজধর্মোপদেশঃ
भाषार्थ
(জনাঃ) হে মনুষ্যগণ! (ইদম্) ইহা (উপ) শ্রদ্ধাপূর্বক (শ্রুত) শ্রবণ করো, [যে] (নরাশংসঃ) মনুষ্যদের মধ্যে প্রশংসিত পুরুষ (স্তবিষ্যতে) মহিমান্বিত হবে। (কৌরম) হে পৃথিবীতে রমণকারী রাজন্! (ষষ্টিম্ সহস্রা) ষাট সহস্র (চ) এবং (নবতিম্) নব্বই [অর্থাৎ অনেক দান] (রুশমেষু) হিংসুকদের প্রক্ষেপকারী/প্রক্ষেপক বীরদের মাঝে (আ দদ্মহে) আমরা প্রাপ্ত করি ॥১॥
भावार्थ
যে ব্যক্তি সৎকর্ম করে, সে জগতে সর্বদা প্রশংসিত হয়, এই বিবেচনায় রাজার উচিত, দক্ষ বীরদের মধ্যে সুপাত্রদের শ্রদ্ধাভরে অনেক দান করা।১।। [সূচনা−সূক্ত ১৩৬ এর মন্ত্র ১ তথা ৪ ছাড়া, এই কুন্তাপসূক্ত ১২৭-১৩৬ ঋগ্বেদ আদি অন্য বেদে নেই। আমি স্বামী বিশ্বেশ্বরানন্দ নিত্যানন্দ কৃত পদসূচী থেকে পদপাঠ সংগ্রহ করে লিখেছি। সূচনা অথর্ব০ ২০।৩৪।১২, ১৬, ১৭; ৪৮।১-৩; ৪৯।১-৩ দেখো ॥](কুন্তাপসূক্তানি) এর অর্থ পাপ বা দুঃখ ভস্মকারী সূক্ত অর্থাৎ বেদমন্ত্রসমূহ ॥
भाषार्थ
[অথ কুন্তাপ-সূক্তানি (খিলানি)। ১২৭ সূক্ত থেকে ১৩৬ সূক্ত পর্যন্ত “কুন্তাপ-সূক্ত”, এই সূক্ত “খিল” অর্থাৎ পরিশিষ্ট। মহর্ষি দয়ানন্দ ইহাকে “প্রক্ষিপ্ত” বলেছেন। “চতুর্বেদ-বিষয়-সূচী” (বৈদিক যন্ত্রালয় আজমের) এ উনার কথন নিম্নলিখিত— (১) “য এষ স্বপ্ননংশন ইত্যাদি পদার্থবিদ্যা”। “অথর্ববেদে বিংশম্ কাণ্ডম্”॥ ২০॥ “ইতি অথর্ববেদস্য সূচীপত্রম্ সমাপ্তম্”॥ অর্থাৎ “য এষ স্বপ্ননংশনঃ” (সূক্ত ১২৬, মন্ত্র ২১ থেকে) পদার্থবিদ্যার বর্ণনা আছে। “অথর্ববেদে ২০ তম কাণ্ড সমাপ্ত”। “অথর্ববেদের সূচীপত্র সমাপ্ত হল”। (২) “ভদ্রেণ বচসা বয়ম্” (অথর্ব০ ১২৭.১৪) ইত্যাদি; “গোময়াদ্ (গোমীদ্যা) গোগতিরিব (গোগতিরিতি)” (অথর্ব০ ১২৯.১৩) ইত্যাদি; “আদলাবুকমেককম্, অলাবুকং নিখাতকম্” (অথর্ব০ ১৩২.১, ২)॥ ১॥ ইত্যাদি; “উদ্ভির্যথালাবুনি” (অথর্ব০ ১৩৫.২ ; ১৩৫.৩) ইত্যাদি; “ইদং রাধো বিভু প্রভু” (অথর্ব০ ১৩৫.৯) ইত্যাদি;— ইতি কুন্তপা-সূক্তানি সমাপ্তানি। পরিশিষ্টানি প্রক্ষিপ্তানীতি বিজ্ঞেয়ম্॥ অভিপ্রায় হল, সূক্ত ১২৭, মন্ত্র ১৪ থেকে সূক্ত ১৩৬ এর সমাপ্তি পর্যন্ত ‘কুন্তাপ-সূক্ত’ সমাপ্ত। ইহা পরিশিষ্ট , প্রক্ষিপ্ত—ইহা জানা উচিৎ। (৩) তথা “অথর্ববেদীয় বৃহদনুক্রমণী” এ “ইদং জনা” (সূক্ত ১২৭ থেকে শুরু করে “যদ্ধ প্রাচীঃ” (সূক্ত ১৩৭) এর পূর্ব পর্যন্ত অর্থাৎ ২০.১২৭ থেকে ১৩৬ সূক্তকে “খিলানি” বলা হয়েছে। “খিল” এর অর্থ পরিশিষ্ট বা প্রক্ষিপ্ত। এই সূক্ত-সমূহের মন্ত্রগুলোতে, স্থানে-স্থানে পদ অত্যন্ত অস্পষ্টার্থক, তথা মন্ত্র-সমূহের অভিপ্রায় অতিগূঢ়। টিপ্পণী— (১) “ভদ্রেণ বচসা বয়ম্” এর পূর্বে “ইদং জনা উপ শ্রুত” (অথর্ব০ ১২৭.১) এই পাঠও হওয়া উচিত ছিল যা কোনো কারণে অনুপস্থিত থেকে গেছে, বা composing এ থেকে গেছে। কারণ কুন্তাপ-সূক্তের প্রারম্ভ “ইদং জনা উপ শ্রুত” দ্বারা হয়, “ভদ্রেণ বচসা বয়ম্” দ্বারা নয়। (২) “য এষ স্বপ্ননংশনঃ” (সূক্ত ১৩৬, মন্ত্র ২১) ইত্যাদি পদার্থবিদ্যা,”—দ্বারা মহর্ষি ২০ তম মণ্ডলে সমাপ্তি পর্যন্ত, অর্থাৎ সূক্ত ১৪৩, মন্ত্র ৯ পর্যন্ত বিষয় নির্দেশ করেছেন। কিন্তু এই সূক্ত-সমূহের মধ্যে ১২৭ তম সূক্ত থেকে শুরু করে ১৩৬ তম সূক্ত পর্যন্ত “কুন্তাপ-সূক্ত” পঠিত হয়েছে, যাকে মহর্ষি পরিশিষ্ট অর্থাৎ প্রক্ষিপ্ত বলেছেন। (৩) কিন্তু যেখানে “কুন্তাপ সূক্ত” কে পরিশিষ্ট অর্থাৎ প্রক্ষিপ্ত বলা হয়েছে, তার শেষে নিম্নলিখিত বাক্য “চতুর্বেদ-বিষয়-সূচী” তে পাওয়া যায়। যথা—“যদ্বা বাণীত্যাদি (সূক্ত ১৪২, মন্ত্র ৪); ঋতস্যেত্যাদি (সূক্ত ১৪৩, মন্ত্র ৩); মধুমানিত্যাদি (সূক্ত ১৪৩, মন্ত্র ৮) পদার্থবিদ্যা।” এই বাক্য দ্বারা প্রতীত হয়, কুন্তাপ-সূক্তের পরের, অর্থাৎ ২০ তম কাণ্ডের সমাপ্তি পর্যন্ত ২০ তম কাণ্ডেরই ভাগ/অংশ।]। (জনাঃ) হে প্রজাগণ! (ইদম্) ইহা (উপ শ্রুত) ধ্যানপূর্বক শ্রবণ করো—(নরাশংসঃ) নর-এর সম্বন্ধে/বিষয়ে কথন (স্তবিষ্যতে) প্রারম্ভ করা হচ্ছে। (কৌরমে) পৃথিবীতে সদা প্রসন্নচিত্তদের মধ্যে, তথা (রুশমেষু) যাদের হিংসাদি ব্যবহার প্রশান্ত হয়ে গেছে এমন যোগীদের মধ্যে বর্তমান, (ষষ্টিং সহস্রা) সহস্র (নবতিম্) স্তুত্য এবং প্রশংসনীয় সদ্গুণের (আ দদ্মহে) আমরা আদান করি, গ্রহণ করি।
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