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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 133 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 133/ मन्त्र 1
    ऋषिः - देवता - कुमारी छन्दः - निचृदनुष्टुप् सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
    1

    वित॑तौ किरणौ॒ द्वौ तावा॑ पिनष्टि॒ पूरु॑षः। न वै॑ कुमारि॒ तत्तथा॒ यथा॑ कुमारि॒ मन्य॑से ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वित॑तौ । किरणौ॒ । द्वौ । तौ । आ॑ । पिनष्टि॒ । पूरु॑ष: ॥ न । वै । कु॒मारि॒ । तत् । तथा॒ । यथा॑ । कुमारि॒ । मन्य॑से ॥१३३.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विततौ किरणौ द्वौ तावा पिनष्टि पूरुषः। न वै कुमारि तत्तथा यथा कुमारि मन्यसे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विततौ । किरणौ । द्वौ । तौ । आ । पिनष्टि । पूरुष: ॥ न । वै । कुमारि । तत् । तथा । यथा । कुमारि । मन्यसे ॥१३३.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 133; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    स्त्रियों के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (द्वौ) दोनों (किरणौ) प्रकाश की किरणें [शारीरिक बल और आत्मिक पराक्रम] (विततौ) फैले हुए हैं, (तौ) उन दोनों को (पूरुषः) पुरुष [देहधारी जीव] (आ) सब ओर से (पिनष्टि) पीसता है [सूक्ष्म रीति से काम में लाता है]। (कुमारि) हे कुमारी ! [कामनायोग्य स्त्री] (वै) निश्चय करके (तत्) वह (तथा) वैसा (न) नहीं है, (कुमारि) हे कुमारी ! (यथा) जैसा (मन्यसे) तू मानती है ॥१॥

    भावार्थ

    संसार में सब प्राणी शरीर और आत्मा की स्वस्थता से सूक्ष्म विचार और कर्म के द्वारा उन्नति करते हैं, स्त्री आदि भी समय को व्यर्थ न खोकर सदा पुरुषार्थ करें ॥१॥

    टिप्पणी

    [पदपाठ के लिये सूचना सूक्त १२७ देखो ॥]१−(विततौ) विस्तृतौ (किरणौ) प्रकाशरश्मी। शारीरिकबलात्मिकपराक्रमौ (द्वौ) (तौ) किरणौ (आ) समन्तात् (पिनष्टि) पिष्लृ संचूर्णने। संचूर्णीकरोति। सूक्ष्मतया प्रयोजयति (पूरुषः) शरीरी जीवः (न) निषेधे (वै) निश्चयेन (कुमारि) कमेः किदुच्चोपधायाः। उ० ३।१३८। कमु कान्तौ-आरन् कित् अकारस्य उकारः, यद्वा कुमार क्रीडने-पचाद्यच्, ङीप्। हे कमनीये स्त्रि (तत्) कर्म (तथा) (यथा) (कुमारि) (मन्यसे) जानासि ॥

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    विषय

    ज्ञान की दो किरणें

    पदार्थ

    १. प्रभु से दिये गये वेदज्ञान में (द्वौ किरणौ) = दो प्रकाश की किरणें (विततौ) = विस्तृत हैं। वेद में जहाँ प्रकृति का सम्यक ज्ञान दिया गया है, उसी प्रकार जीव के कर्तव्यों का प्रतिपादन भी पूर्णतया हुआ है। जीव का वहाँ अन्तिम लक्ष्य उपासना द्वारा प्रभु का सान्निध्य कहा गया है। 'तदपश्यत् तदभवत् तदासीत्' इन शब्दों में यह स्पष्ट है कि जीव ने प्रभु-दर्शन करना है-प्रभु जैसा बनना है-प्रभु-पुत्र होने के नाते प्रभु-जैसा तो था ही। बालबुद्धिवश प्रकृति का आकर्षण ही उसे विषयपंक में फंसाकर मलिन कर देता है। (पूरुषः) = इस शरीर-नगरी में बद्ध होकर रहनेवाला जीव (तौ) = उन प्रकाश-किरणों को (आपिनष्टि) = पीस डालता है। इन प्रकाश-किरणों से अपने जीवन को दीप्त नहीं करता। विषयों में ही क्रीड़ा करता रहता है। २. वह जीव विषयों को बड़ा प्रिय समझता है, परन्तु वस्तुतः ये वैसे हैं तो नहीं, अतः कहते हैं कि हे (कुमारि) = [कुमार क्रीडायाम्] विषयों में क्रीड़ा करनेवाली युवति | (वै) = निश्चय से (तत्) = वह विषयस्वरूप तथा (न) = वैसा नहीं है। हे कुमारि! (यथा मन्यसे) = जैसा तू इसे समझ रही है। जीव इसमें आनन्द-लाभ की आशा करता है, परन्तु ये विषय तो 'सर्वेन्द्रियाणां जरयन्ति तेजः' सब इन्द्रियों के तेज को जीर्ण ही करनेवाले होते हैं।

    भावार्थ

    प्रभु ने वेद में हमारे लिए प्रकृतिज्ञान व जीव-कर्त्तव्यज्ञानरूपी दो प्रकाश की किरणों को प्राप्त कराया है। प्रकृति में फंसकर हम इन ज्ञान-किरणों को प्राप्त करने के लिए यत्नशील नहीं होते, परन्तु प्रकृति वस्तुतः आनन्दप्रद लग ही रही है, है तो नहीं। यह तो इन्द्रियों के तेज को जीर्ण ही करनेवाली है। इस बात को समझकर हमें प्रकाश को ही पाना चाहिए।

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    भाषार्थ

    (किरणौ) विक्षेपक (द्वौ) दो तत्त्व (विततौ) विशेषरूप में फैले हुए हैं, (तौ) उन दोनों को (पूरुषः) परम पुरुष परमेश्वर (आ पिनष्टि) पूर्णतया पीसता है, विनष्ट करता है—(कुमारि) हे कुमारी! (वै) निश्चय है कि (तत्) वह तेरा कथन (न तथा) तथ्य नहीं (यथा) जैसे कि (कुमारि मन्यसे) हे कुमारी! तू मानती है।

    टिप्पणी

    [किरणौ=कॄ विक्षेपे+क्युः (उणादि कोष २.८२)। रजस् और तमस्—इन दो को ‘किरणौ’ कहा है, क्योंकि ये दोनों चित्त को विक्षिप्त कर देते हैं, इससे चित्त योगोपयोगी नहीं रहता। कुमारी मानती है कि इन दोनों विक्षेपक तत्त्वों को परम पुरुष परमेश्वर ही पीस सकता है, इन को पीसने के लिए अस्मदादि पुरुषों का प्रयत्न सफल नहीं हो सकता। इस विचार का प्रतिषेध मन्त्र में किया है। पूरुषः, देखो—२०.१३१.१७। इस सूक्त में “पूरुष” से अभिप्रेत है परमेश्वर, और पुरुष से अभिप्रेत अस्मदादि पुरुष। कुमारि= आध्यात्मिक तत्त्वों के सम्बन्ध में ज्ञान-चर्चा के लिए कन्याओं को प्रोत्साहित करना चाहिए। यदि कन्याओं की अभिरुचि आध्यात्मिक बन जाये, तो सन्तानों पर आध्यात्मिक विचारों का प्रभाव भी पड़ेगा।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Kumari

    Meaning

    There is twofold flow of psychic energy expansive in the worldly life of man, i.e., the flow of Tamasic and Rajasic fluctuations of the mind. These the Supreme Purusha reduces and eliminates for the salvation of the spirit. No innocent maiden, it is not so as you think and believe.

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    Translation

    Two rays, the heaven and earth are spreaded by Divinity. The man, i.e. the soul touches them. O maidan, it is not so as you O maiden, fancy it.

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    Translation

    [N.B. :—This hymn is a little enigmatic. But there seems no obscerity in it. Here it is apparent that a maiden has been addressed here. That is not maiden as generally it is thought. The maiden is here the symbol of immaturity of knowledge. If for a time being it be accepted that here is same smell of sexuality even then there should not be any hesitation in explaining it. If a virgin girl is married to a suitable man he can tell her anything of sexual nature and that would not be treated obscene. That will be taken only as the science of sex.] Two rays, the heaven and earth are spreaded by Divinity. The man, i.e. the soul touches them. O maidan, it is not so as you O maiden, fancy it.

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    Translation

    Although Griffith has left this sukta as indecent yet, it conveys the scientific Knowledge of the process of the procreation of humanity, which is very essential for its good.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    [पदपाठ के लिये सूचना सूक्त १२७ देखो ॥]१−(विततौ) विस्तृतौ (किरणौ) प्रकाशरश्मी। शारीरिकबलात्मिकपराक्रमौ (द्वौ) (तौ) किरणौ (आ) समन्तात् (पिनष्टि) पिष्लृ संचूर्णने। संचूर्णीकरोति। सूक्ष्मतया प्रयोजयति (पूरुषः) शरीरी जीवः (न) निषेधे (वै) निश्चयेन (कुमारि) कमेः किदुच्चोपधायाः। उ० ३।१३८। कमु कान्तौ-आरन् कित् अकारस्य उकारः, यद्वा कुमार क्रीडने-पचाद्यच्, ङीप्। हे कमनीये स्त्रि (तत्) कर्म (तथा) (यथा) (कुमारि) (मन्यसे) जानासि ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    স্ত্রীণাং কর্তব্যোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (দ্বৌ) উভয় (কিরণৌ) প্রকাশ রশ্মি [শারীরিক বল এবং আত্মিক পরাক্রম] (বিততৌ) বিস্তৃত, (তৌ) এই উভয়কে (পূরুষঃ) পুরুষ [দেহধারী জীব] (আ) সব দিক থেকে (পিনষ্টি) পিষ্ট করে [সূক্ষ্ম রীতিতে কাজে প্রয়োগ করে]। (কুমারি) হে কুমারী! [কামনাযোগ্য স্ত্রী] (বৈ) নিশ্চিতরূপে (তৎ) তা (সেই কর্ম) (তথা) তেমন (ন) নয়, (কুমারি) হে কুমারী! (যথা) যেমন (মন্যসে) তুমি জানো/মান্য করো ॥১॥

    भावार्थ

    জগতের সমস্ত প্রাণী শরীর এবং আত্মার সুস্থতা দ্বারা সূক্ষ্ম বিচার এবং কর্মের দ্বারা উন্নতি করে, স্ত্রী আদিও সময় অপচয় না করে সর্বদা পুরুষার্থ করুক ॥১॥

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    भाषार्थ

    (কিরণৌ) বিক্ষেপক (দ্বৌ) দুই তত্ত্ব (বিততৌ) বিশেষরূপে বিস্তৃত, (তৌ) সেই দুটিকে (পূরুষঃ) পরম পুরুষ পরমেশ্বর (আ পিনষ্টি) পূর্ণরূপে পিষ্ট করেন, বিনষ্ট করেন—(কুমারি) হে কুমারী! (বৈ) নিশ্চিতরূপে, (তৎ) তা তোমার কথন (ন তথা) তথ্য নয় (যথা) যেমন (কুমারি মন্যসে) হে কুমারী! তুমি মান্য করো।

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