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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 134 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 134/ मन्त्र 1
    ऋषिः - देवता - प्रजापतिः छन्दः - निचृत्साम्नी पङ्क्तिः सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
    1

    इ॒हेत्थ प्रागपा॒गुद॑ग॒धरा॒गरा॑ला॒गुद॑भर्त्सथ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒ह । इत्थ॑ । प्राक् । अपा॒क् । उद॑क् । अ॒ध॒राक् । अरा॑लअ॒गुदभर्त्सथ ॥१३४.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इहेत्थ प्रागपागुदगधरागरालागुदभर्त्सथ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इह । इत्थ । प्राक् । अपाक् । उदक् । अधराक् । अरालअगुदभर्त्सथ ॥१३४.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 134; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    बुद्धि बढ़ाने का उपदेश।

    पदार्थ

    (इह) यहाँ (इत्थ) इस प्रकार (प्राक्) पूर्व में, (अपाक्) पश्चिम में, (उदक्) उत्तर में और (अधराक्) दक्षिण में−(अरालागुदभर्त्सथ) हिंसा की गति का धिक्कारनेवाला परमात्मा है ॥१॥

    भावार्थ

    परमात्मा को सब स्थान और सब काल में वर्तमान जानकर मनुष्य हिंसाकर्म से बचे ॥१॥

    टिप्पणी

    [पदपाठ के लिये सूचना सूक्त १२७ देखो ॥]इस मन्त्र का मिलान करो-अथ० २०।१२०।१ ॥ १−(इह) अत्र (इत्थ) इत्थम्। अनेन प्रकारेण (प्राक्, अपाक्, उदक्) अथ० २–०।१२०।१। (अधराक्) नीच्यां दक्षिणस्यां दिशि (अरालागुदभर्त्सथ) स्थाचतिमृजेरालज्०। उ० १।११६। ऋ हिंसायाम्-आलच्+अग गतौ-उदच् प्रत्ययः यथा अर्बुदशब्दे+शीङ्शपिरु०। उ० ३।११३। भर्त्स तर्जने-अथ प्रत्ययः। सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। विभक्तेर्लुक्। अराल-अगुद-भर्त्सथः। हिंसागतितिरस्कर्ता परमेश्वरः ॥

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    विषय

    कुटिलता का तर्जन

    पदार्थ

    १. संसार के विषयों से बचने के लिए यह आवश्यक है कि हम इस रूप में सोचें और समझें कि (इह) = यहाँ (इत्थ) = सचमुच (प्राग् अपाग् उदग् अधराग्) = पूर्व, पश्चिम उत्तर व दक्षिण सब दिशाओं में उस प्रभु की सत्ता है। २. वह प्रभु (अरालागुदभर्त्सथ) = [भर्त्सथः]-[अराल-crooked गुद-क्रीडायाम, भर्स-झिड़कना] छल-छिद्र व कुटिलतापूर्ण क्रीड़ाओं का भर्त्सन करनेवाला है। प्रभु अपने पुत्रों से अकुटिल कर्मों को ही चाहता है?

    भावार्थ

    प्रभु की सर्वव्यापकता का स्मरण करते हुए हम कुटिलता से ऊपर उठें। कुटिल कर्मों में फंसकर प्रभु से धिक्कारने के योग्य न हो जाएँ।

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    भाषार्थ

    (अरालाक्) हे कुटिल चालवालो! (इह) इस पृथिवी में (एत्थ) आओ, जन्म लो। चाहे (प्राक्) पृथिवी के पूर्वभाग में आओ, चाहे (अपाक्) पश्चिम में आओ। चाहे (उदक् अधराक्) उत्तर या दक्षिण भाग में आओ; तुम अपनी कुचालों को हटाने के लिए, (उद् अभर्त्सथ) अपने श्रेष्ठ-मानसिक बलों द्वारा अपनी कुचालों की भर्त्सना किया करो, तर्जना किया करो, डांट-डपट दिया करो।

    टिप्पणी

    [अभिप्राय यह है कि मनुष्य के चाल-चलन पर पृथिवी के प्रदेश विशेष का कोई प्रभाव नहीं होता। कुचाली मनुष्य पृथिवी के प्रत्येक प्रदेश में होते हैं। इन कुचालों की निवृत्ति के लिए प्रत्येक को यत्नवान् होना चाहिए, और मनों में प्रबल विरोधी-भावनाओं को जागरित करना चाहिए। कुचालों के निराकरण के सम्बन्ध में देखो—योगसूत्र “वितर्कबाधने प्रतिपक्षभावनम्” (योग २.३३)। तथा “भर्त्सना” के सम्बन्ध में मन्त्र (अथर्व০ ६.४५.१) विशेषतया विचार-योग्य है। यथा —“परोपेहि मनस्पाप किमशस्तानि शंससि। परेहि न त्वा कामये”। अर्थात् हे मानसिक-पाप! तू परे हट जा, तू क्यों अप्रशस्त-विचारों की प्रशंसा करता है। परे हट जा, तेरी कामना मैं नहीं करता—इत्यादि। अरालाक्=अराल=curved, crooked (आप्टे)+अञ्च् (गतौ)। इहेत्थ=इह+एत्थ (एङि् पररूपम्; अष्टा০ ६.१.९१) छान्दस रूप।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Prajapati

    Meaning

    Here thus on earth, east, west, north or south, O man, weak of will, afraid to be staright, try to be upright with honest self-criticism and effort for self- improvement.

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    Translation

    Here, thuse in east, in west, in north and in south is present God who dispels away the tendency of violence.

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    Translation

    Here, thuse in east, in west, in north and in south is present God who dispels away the tendency of violence.

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    Translation

    In this world, all the four quarters, the front, the hind one, the above and the below, are full of waters as well souls, just as pots are filled with waters.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    [पदपाठ के लिये सूचना सूक्त १२७ देखो ॥]इस मन्त्र का मिलान करो-अथ० २०।१२०।१ ॥ १−(इह) अत्र (इत्थ) इत्थम्। अनेन प्रकारेण (प्राक्, अपाक्, उदक्) अथ० २–०।१२०।१। (अधराक्) नीच्यां दक्षिणस्यां दिशि (अरालागुदभर्त्सथ) स्थाचतिमृजेरालज्०। उ० १।११६। ऋ हिंसायाम्-आलच्+अग गतौ-उदच् प्रत्ययः यथा अर्बुदशब्दे+शीङ्शपिरु०। उ० ३।११३। भर्त्स तर्जने-अथ प्रत्ययः। सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। विभक्तेर्लुक्। अराल-अगुद-भर्त्सथः। हिंसागतितिरस्कर्ता परमेश्वरः ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    বুদ্ধিবর্ধনোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (ইহ) এখানে (ইত্থ) এভাবে (প্রাক্) পূর্বে, (অপাক্) পশ্চিমে, (উদক্) উত্তরে এবং (অধরাক্) দক্ষিণে − (অরালাগুদভর্ত্সথ) হিংসার গতি তিরস্কারকারী পরমাত্মা রয়েছে॥১॥

    भावार्थ

    পরমাত্মাকে সর্ব স্থানে এবং সর্ব কালে বর্তমান জেনে মনুষ্য হিংসাকর্ম পরিহার করুক ॥১॥

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    भाषार्थ

    (অরালাক্) হে কুটিল গতিযুক্ত! (ইহ) এই পৃথিবীতে (এত্থ) এসো, জন্মগ্রহণ করো। (প্রাক্) পৃথিবীর পূর্বভাগে এসো, অথবা (অপাক্) পশ্চিমে। (উদক্ অধরাক্) উত্তর বা দক্ষিণ ভাগে এসো; তুমি নিজের কুচাল দূর করার জন্য, (উদ্ অভর্ত্সথ) নিজের শ্রেষ্ঠ-মানসিক বল দ্বারা নিজের কুচালের ভর্ত্সনা করো।

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