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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 15 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 15/ मन्त्र 1
    ऋषिः - गोतमः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-१५
    2

    प्र मंहि॑ष्ठाय बृह॒ते बृ॒हद्र॑ये स॒त्यशु॑ष्माय त॒वसे॑ म॒तिं भ॑रे। अ॒पामि॑व प्रव॒णे यस्य॑ दु॒र्धरं॒ राधो॑ वि॒श्वायु॒ शव॑से॒ अपा॑वृतम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । मंहि॑ष्ठाय । बृ॒ह॒ते । बृ॒हत्ऽर॑ये । स॒त्यऽशु॑ष्माय । त॒वसे॑ । म॒तिम् । भ॒रे॒ ॥ अ॒पाम्ऽइ॑व । प्र॒व॒णे । यस्य॑ । दु॒:ऽधर॑म् । राध॑: । वि॒श्वऽआ॑यु । शव॑से । अप॑ऽवृतम् ॥१५.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र मंहिष्ठाय बृहते बृहद्रये सत्यशुष्माय तवसे मतिं भरे। अपामिव प्रवणे यस्य दुर्धरं राधो विश्वायु शवसे अपावृतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । मंहिष्ठाय । बृहते । बृहत्ऽरये । सत्यऽशुष्माय । तवसे । मतिम् । भरे ॥ अपाम्ऽइव । प्रवणे । यस्य । दु:ऽधरम् । राध: । विश्वऽआयु । शवसे । अपऽवृतम् ॥१५.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 15; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (3)

    विषय

    सभाध्यक्ष के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (मंहिष्ठाय) अत्यन्त दानी, (बृहते) महागुणी, (बृहद्रये) महाधनी, (सत्यशुष्माय) सच्चे बलवान् [सभाध्यक्ष] के लिये (तवसे) बल पाने को (मतिम्) बुद्धि (प्र) उत्तम रीति से (भरे) मैं धारण करता हूँ। (प्रवणे) ढालू स्थान में (अपाम् इव) जलों के [प्रवाह के] समान, (यस्य) जिस [सभाध्यक्ष] का (दुर्धरम्) बेरोक, (विश्वायु) सबको जीवन देनेवाला (राधः) धन (शवसे) बल के लिये (अपावृतम्) फैला हुआ है ॥१॥

    भावार्थ

    जो सभाध्यक्ष सुपात्रों को दान देकर प्रजा को सुशिक्षित बलवान् बनाता है, उसके उपकारों की महिमा ऐसी सुखदायक होती है, जैसे जल ढालू स्थानों में बहकर खेती आदि बढ़ाकर आनन्द देता है ॥१॥

    टिप्पणी

    यह सूक्त ऋग्वेद में है-१।७।१-६ ॥ १−(प्र) प्रकर्षेण (मंहिष्ठाय) मंहतिर्दानकर्मा-निघ० ३।२०। महि वृद्धौ दाने च-तृच्, मंहितृ-इष्ठन्, तृलोपः। दातृतमाय (बृहते) गुणैर्महते (बृहद्रये) रैशब्दस्य ऐकारस्य एकारः। प्रभूतधनाय (सत्यशुष्माय) अवितथबलाय (तवसे) अ० ४।२२।३। बलप्राप्तये (मतिम्) बुद्धिम् (भरे) अहं धरे (अपाम्) जलानां प्रवाहः (इव) यथा (प्रवणे) अवनतदेशे (यस्य) सभाध्यक्षस्य (दुर्धरम्) दुःखेन धरणीयं निवारणीयम् (राधः) धनम् (विश्वायु) विश्वस्मै सर्वस्मै आयुर्जीवनं यस्मात् तत् (शवसे) बललाभाय (अपावृतम्) छान्दसो दीर्घः। अपगतावरणं व्यावृतं वर्तते ॥

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    विषय

    'मंहिष्ठ-सत्यशष्म' प्रभु

    पदार्थ

    १. (मंहिष्ठाय) = दातृतम-सर्वाधिक देनेवाले, (बृहते) = महान्, (बृहद्रये) = प्रभूत धनवाले सर्वैश्वर्य सम्पन्न, सत्यशष्माय सत्य [यथार्थ] बलवाले प्रभु के लिए, (तवसे) = बल की प्राप्ति के लिए, (मतिम्) = मननपूर्वक की गई स्तुति को (भरे) = करता हूँ। प्रभु-स्तवन से ही तो बल प्राप्त होता है। २. (यस्य) = जिस प्रभु का (विश्वायु) = सम्पूर्ण मनुष्यों का पालन करनेवाला (राध:) = ऐश्वर्य (प्रवणे) = अवनत प्रदेश में (अपाम इव) = जलों के प्रवाह के समान (दर्धरम) = रोका नहीं जा सकता। यह प्रभुका ऐश्वर्य (शवसे) = उपासक के बल के लिए (अपावृतम्) = अपगत आवरणवाला होता है। प्रभु का यह ऐश्वर्य बल प्राप्त कराता ही है।

    भावार्थ

    प्रभु सर्वमहान् दाता हैं। हम प्रभु का स्तवन करते हैं। प्रभु का ऐश्वर्य हमारे लिए शक्ति देनेवाला होता है।

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    भाषार्थ

    (मंहिष्ठाय) महादानी, (बृहते) सर्वतो महान्, (बृहद्रये) महावेगी, (सत्यशुष्माय) सत्यबली, (तवसे) बलस्वरूप परमेश्वर के प्रति (मतिम्) मैं मननीय स्तुतियाँ (भरे) भेंट करता हूं। (प्रवणे) निम्न प्रदेश में बहतें हुए (अपाम् इव) जलों के सदृश (यस्य राधः) जिसका धन (अपावृतम्) खुले रूप में बह रहा है, (दुर्धरम्) जो धन कि सदा धरा नहीं जा सकता, जो कि चञ्चल है, अस्थायी है, (विश्वायु) जो कि सब मनुष्यों के लिए है, (शवसे) तथा बल की प्राप्ति के लिए है।

    टिप्पणी

    [मंहिष्ठाय=मंहतेः दानकर्मणः (निरु০ १.३.७)। विश्वायु=विश्व+आयु (=मनुष्य, निघं০ २.३)।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indr a Devata

    Meaning

    To the most generous lord of the world, Indra, great, awfully wealthy, truly fragrant, blissful, and mighty strong, I offer my homage of faith and celebration. His universal gift of wealth, knowledge and efficiency of karma, released and open to all for strength and enlightenment, flows freely like streams of water rushing down to the sea.

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    Translation

    I gain knowledge about lofty tremendous, electricity which is — great source of wealth, most speedy and whose power remains in water and whose checkless propérty like waters spread in down slope is manifest alround for generating -power.

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    Translation

    I gain knowledge about lofty tremendous, electricity which is great source of wealth, most speedy and whose power remains in water and whose checkless property like waters spread in down slope is manifest alround for generating power.

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    Translation

    I (a Vedic scholar) preach the knowledge of the most Adorable, the Omnipotent, of Invincible Power of Truth, the most Powerful the source of the Highest motion, Whose uncontrollable Powers is revealed in all directions and at all times, for deeds of valour and energy, just as waters flow with the highest speed from upper regions to the lower ones.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    यह सूक्त ऋग्वेद में है-१।७।१-६ ॥ १−(प्र) प्रकर्षेण (मंहिष्ठाय) मंहतिर्दानकर्मा-निघ० ३।२०। महि वृद्धौ दाने च-तृच्, मंहितृ-इष्ठन्, तृलोपः। दातृतमाय (बृहते) गुणैर्महते (बृहद्रये) रैशब्दस्य ऐकारस्य एकारः। प्रभूतधनाय (सत्यशुष्माय) अवितथबलाय (तवसे) अ० ४।२२।३। बलप्राप्तये (मतिम्) बुद्धिम् (भरे) अहं धरे (अपाम्) जलानां प्रवाहः (इव) यथा (प्रवणे) अवनतदेशे (यस्य) सभाध्यक्षस्य (दुर्धरम्) दुःखेन धरणीयं निवारणीयम् (राधः) धनम् (विश्वायु) विश्वस्मै सर्वस्मै आयुर्जीवनं यस्मात् तत् (शवसे) बललाभाय (अपावृतम्) छान्दसो दीर्घः। अपगतावरणं व्यावृतं वर्तते ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    সভাধ্যক্ষগুণোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (মংহিষ্ঠায়) অত্যন্ত দানী, (বৃহতে) মহাগুণী, (বৃহদ্রয়ে) মহাধণী, (সত্যশুষ্মায়) প্রকৃত বলবান [সভাধ্যক্ষ] এর জন্য (তবসে) বল প্রাপ্তির (মতিম্) বুদ্ধি (প্র) উত্তমরীতিতে (ভরে) আমি ধারণ করি। (প্রবণে) অবনত স্থানে (অপাম্ইব) জল [প্রবাহের] ন্যায়, (যস্য) যে [সভাধ্যক্ষ] এর (দুর্ধরম্) অপ্রতিরোধ্য, (বিশ্বায়ু) সকলকে জীবন প্রদায়ী (রাধঃ) ধন (শবসে) বলের জন্য (অপাবৃতম্) বিস্তৃত আছে॥১॥

    भावार्थ

    যে সভাধ্যক্ষ সু-পাত্রকে দান করে প্রজাকে সুশিক্ষিত বলবান করে, তাঁর উপকারের মহিমা এরূপ সুখদায়ক হয়, যেমন জল ঢালু স্থানে প্রবাহিত হয়ে চাষাদি বৃদ্ধি করে আনন্দ প্রদান করে॥১॥ এই সূক্ত ঋগ্বেদে আছে-১।৭।১-৬।।

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    भाषार्थ

    (মংহিষ্ঠায়) মহাদানী, (বৃহতে) সর্বতো মহান্, (বৃহদ্রয়ে) মহাবেগী, (সত্যশুষ্মায়) সত্যবলশালী, (তবসে) বলস্বরূপ পরমেশ্বরের প্রতি (মতিম্) আমি মননীয় স্তুতি (ভরে) অর্পণ করি। (প্রবণে) নিম্ন প্রদেশে প্রবাহমান/প্রবাহিত (অপাম্ ইব) জলের সদৃশ (যস্য রাধঃ) যার ধন (অপাবৃতম্) উন্মুক্ত রূপে প্রবাহিত হচ্ছে, (দুর্ধরম্) যে ধন সদা ধরা যায় না, যা চঞ্চল, অস্থায়ী, (বিশ্বায়ু) যা সকল মনুষ্যদের জন্য, (শবসে) তথা বল প্রাপ্তির জন্য।

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