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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 16 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 16/ मन्त्र 1
    ऋषिः - अयास्यः देवता - बृहस्पतिः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-१६
    2

    उ॑द॒प्रुतो॒ न वयो॒ रक्ष॑माणा॒ वाव॑दतो अ॒भ्रिय॑स्येव॒ घोषाः॑। गि॑रि॒भ्रजो॒ नोर्मयो॒ मद॑न्तो॒ बृह॒स्पति॑म॒भ्य॒र्का अ॑नावन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒द॒ऽप्रुत॑: । न । वय॑: । रक्ष॑माणा: । वाव॑दत: । अ॒भ्र‍िय॑स्यऽइव । घोषा॑: ॥ गि॒रि॒ऽभ्रज॑: । न । ऊ॒र्मय॑: । मद॑न्त: । बृह॒स्पति॑म्। अ॒भि । अ॒र्का: । अ॒ना॒व॒न् ॥१६.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उदप्रुतो न वयो रक्षमाणा वावदतो अभ्रियस्येव घोषाः। गिरिभ्रजो नोर्मयो मदन्तो बृहस्पतिमभ्यर्का अनावन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उदऽप्रुत: । न । वय: । रक्षमाणा: । वावदत: । अभ्र‍ियस्यऽइव । घोषा: ॥ गिरिऽभ्रज: । न । ऊर्मय: । मदन्त: । बृहस्पतिम्। अभि । अर्का: । अनावन् ॥१६.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 16; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    विद्वानों के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (उदप्रुतः) जल को प्राप्त हुए, (रक्षमाणः) अपनी रक्षा करते हुए (वयः न) पक्षियों के समान, (वावदतः) बार-बार गरजते हुए (अभ्रियस्य) बादल के (घोषाः इव) शब्दों के समान, (गिरिभ्रजः) पहाड़ों से गिरते हुए, (मदन्तः) तृप्त करते हुए (ऊर्मयः न) जल के प्रवाहों के समान, (अर्काः) पूजनीय पण्डितों ने (बृहस्पतिम्) बृहस्पति [बड़ी वेदवाणी के रक्षक महाविद्वान्] को (अभि) सब ओर से (अनावन्) सराहा है ॥१॥

    भावार्थ

    जैसे पक्षीगण जलाशय में पा-स्नान करके तृप्त होते हैं, जैसे बरसते हुए मेघ अपनी गर्जन से प्रसन्न करते हैं, और जैसे पहाड़ों से बहती हुई नदियाँ अन्न आदि उत्पन्न करती हैं, वैसे ही बुद्धिमान् लोग वेदाभ्यासी पुरुष के गुणों को गाकर आनन्द बढ़ाते हैं ॥१॥

    टिप्पणी

    यह सूक्त ऋग्वेद में है-१०।६८।१-१२ ॥ १−(उदप्रुतः) प्रुङ् गतौ-क्विप्। उदकं प्राप्ताः (न) यथा (वयः) पक्षिणः (रक्षमाणाः) आत्मानं पालयन्तः (वावदतः) वदेर्यङ्लुकि शतृ। पुनः पुनः शब्दायमानस्य (अभ्रियस्य) स्वार्थे घप्रत्ययः। अभ्रस्य मेघस्य-निघ० १।१० (इव) यथा (घोषाः) ध्वनयः (गिरिभ्रजः) भ्रशु अधःपतने-क्विप्। शस्य जः। शैलेभ्यः सकाशादधःपतन्तः (न) यथा (ऊर्मयः) जलप्रवाहाः (मदन्तः) तर्पयन्तः (बृहस्पतिम्) बृहत्या वेदवाण्या रक्षकं विद्वांसम् (अभि) सर्वतः (अर्काः) पूजनीयाः पण्डिताः (अनावन्) णु स्तुतौ-लङ्, छान्दसः शप्। अस्तुवन् ॥

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    विषय

    प्रभु का उच्चैःस्तवन

    पदार्थ

    १. (उदप्रुत:) = जलों में विचरण करते हुए, (रक्षमाणा:) = व्याध आदि से अपना रक्षण करते हुए (वय: न) = पक्षियों के समान ऊँचा शब्द करते हुए (अर्का:) = अर्चना करनेवाले स्तोता (बृहस्पतिम्) = ज्ञान के स्वामी उस महान देव को (अभि अनावन्) = अभिष्टुत करते हैं। २. यह प्रभु का स्तवन इन स्तोताओं को भी वासनारूप शत्रुओं से बचाता है। ये उपासक काम-क्रोध आदि के शिकार नहीं हो जाते। २. (वावदत:) = खूब ही गर्जना के शब्दों को करते हुए (अभियस्य) = मेघसमूह के (घोषा:) = शब्दों की (इव) = भाँति ये स्तोता उस प्रभु के स्तुतिशब्दों का उच्चारण करते हैं। इन स्तोताओं का यह स्तुतिपाठ मेघध्वनि के समान गम्भीरता को लिये हुए होता है। ३. (गिरिभ्रज:) = पर्वतों से निकलनेवाले (मदन्तः) = सस्य आदि को तृस करते हुए (ऊर्मयः न) = [current, flow] जल प्रवाहों के समान शब्द करते हुए ये उपासक प्रभु का स्तवन करते हैं। इन उपासकों का यह स्तवन भी एक अद्भुत तृसि का साधन बनता है।

    भावार्थ

    जलचर पक्षियों के समान, गर्जना करते हुए मेघों की ध्वनि के समान, पर्वत से प्रवाहित होते हुए झरनों के समान शब्द करते हुए ये उपासक प्रभु-स्तवन करते हैं। यह स्तवन उन्हें वासनाओं के आक्रमण से बचाता है। यह उनमें गम्भीरता व हर्ष उत्पन्न करता है। एवं यह स्तोता "अनासक्त, गम्भीर व उल्लासमय जीवनवाला होता है।

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    भाषार्थ

    (रक्षमाणाः) अपनी रक्षा में तत्पर, (उदप्रुतः) जलों में प्लुतियाँ लगानेवाले (वावदतः= वावदन्तः) कलरव करते हुए (वयः) पक्षी (न) जैसे (बृहस्पतिम्) मानो महाब्रह्माण्ड के अधिपति की (अनावन्) स्तुतियाँ करते हैं, तथा (वावदतः) कड़कते हुए (अभ्रियस्य) मेघस्थ-विद्युद्वज्र के (घोषाः) घोष (इव) जैसे मानो बृहस्पति की स्तुतियाँ करते हैं, और (गिरिभ्रजः) पर्वतों से गिरती हुई (ऊर्मयः) नदियों की लहरें (न) जैसे मानो बृहस्पति की स्तुतियाँ करती हैं, वैसे हमारे (मदन्तः) मादक (अर्काः) स्तुतिमन्त्र, महाब्रह्माण्ड के स्वामी की (अभि) साक्षात् (अनावन्) स्तुतियाँ करते हैं।

    टिप्पणी

    [अभिप्राय यह है कि प्राकृतिक संसार भी मानो अपने प्रभु की स्तुतियाँ करता है। तब मनुष्यों को भी चाहिए कि अपने प्रभु की स्तुतियाँ करें।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indr a Devata

    Meaning

    Like aquatic birds playing on water, like watchful guards raising their voice, like the rolling rumble of rain clouds, like rippling streams flowing down mountain slopes, the celebrants raise their hymns of adoration to Brhaspati. 1. Like aquatic birds playing on water, like watchful guards raising their voice, like the rolling rumble of rain clouds, like rippling streams flowing down mountain slopes, the celebrants raise their hymns of adoration to Brhaspati.

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    Translation

    The waters of clouds plashing in the moistures like the birds - having all the cares of safety, like the loud voices of thundering rain-cloud, like the merry streamlets bursting from the mountain sound Brihaspati the fire present in the atmoshere.

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    Translation

    The waters of clouds plashing in the moistures like the birds having all the cares of safety, like the loud voices of thundering rain-cloud, like the merry streamlets bursting from the mountain sound Brihaspati, the fire present in the atmosphere.

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    Translation

    Just as the birds, flying up from the surface of water, for the protection of their lives, and just as the continually thundering clouds produce sounds, just as the water currents flowing rapidly down the slopes of the mountains, produce sounds, so do the worshippers, reciting the Ved-mantras and revelling in His Bliss, sing the praises of the mighty Lord of the Vedic Lore.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    यह सूक्त ऋग्वेद में है-१०।६८।१-१२ ॥ १−(उदप्रुतः) प्रुङ् गतौ-क्विप्। उदकं प्राप्ताः (न) यथा (वयः) पक्षिणः (रक्षमाणाः) आत्मानं पालयन्तः (वावदतः) वदेर्यङ्लुकि शतृ। पुनः पुनः शब्दायमानस्य (अभ्रियस्य) स्वार्थे घप्रत्ययः। अभ्रस्य मेघस्य-निघ० १।१० (इव) यथा (घोषाः) ध्वनयः (गिरिभ्रजः) भ्रशु अधःपतने-क्विप्। शस्य जः। शैलेभ्यः सकाशादधःपतन्तः (न) यथा (ऊर्मयः) जलप्रवाहाः (मदन्तः) तर्पयन्तः (बृहस्पतिम्) बृहत्या वेदवाण्या रक्षकं विद्वांसम् (अभि) सर्वतः (अर्काः) पूजनीयाः पण्डिताः (अनावन्) णु स्तुतौ-लङ्, छान्दसः शप्। अस्तुवन् ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    বিদ্বদ্গুণোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (উদপ্রুতঃ) জল প্রাপ্ত করে, (রক্ষমাণঃ) নিজ রক্ষা করে (বয়ঃ ন) পক্ষীদের ন্যায়, (বাবদতঃ) বার-বার গর্জনশীল (অভ্রিয়স্য) মেঘের (ঘোষাঃ ইব) শব্দের ন্যায়, (গিরিভ্রজঃ) গিরি/পাহাড়সমূহ থেকে পতিত, (মদন্তঃ) তৃপ্তকারী (ঊর্ময়ঃ ন) জলপ্রবাহের ন্যায়, (অর্কাঃ) পূজণীয় পন্ডিতগণ (বৃহস্পতিম্) বৃহস্পতির [বৃহৎ/মহান বেদবাণীর রক্ষক মহাবিদ্বানের] (অভি) সর্বদিক থেকে (অনাবন্) প্রশংসা করেছে ॥১॥

    भावार्थ

    যেমন পক্ষীগণ জলাশয়ে পান-স্নান করে তৃপ্ত হয়, যেমন বর্ষণরত মেঘ নিজের গর্জন দ্বারা প্রসন্ন করে, এবং যেমন পাহাড় থেকে প্রবাহিত নদীসমূহ অন্নাদি উৎপন্ন করে, তেমনই বুদ্ধিমানগণ বেদাভ্যাসী পুরুষের গুণগান করে আনন্দ বৃৃদ্ধি করে/করুক॥১॥ এই সূক্ত ঋগ্বেদে আছে-১০।৬৮।১-১২।

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    भाषार्थ

    (রক্ষমাণাঃ) নিজের রক্ষায় তৎপর, (উদপ্রুতঃ) জলে প্লুতি/ডুব দিয়ে (বাবদতঃ= বাবদন্তঃ) কলরব করে (বয়ঃ) পক্ষী (ন) যেমন (বৃহস্পতিম্) মানো মহাব্রহ্মাণ্ডের অধিপতির (অনাবন্) স্তুতি করে, তথা (বাবদতঃ) গর্জন করে (অভ্রিয়স্য) মেঘস্থ-বিদ্যুৎ-বজ্রের (ঘোষাঃ) ঘোষ/নাদ (ইব) যেমন মানো বৃহস্পতির স্তুতি করে, এবং (গিরিভ্রজঃ) পর্বত থেকে পতিত (ঊর্ময়ঃ) নদীর ঢেউ (ন) যেমন মানো বৃহস্পতির স্তুতি করে, তেমনই আমাদের (মদন্তঃ) উন্মাদক/উন্মত্তকারী (অর্কাঃ) স্তুতিমন্ত্র, মহাব্রহ্মাণ্ডের স্বামীর (অভি) সাক্ষাৎ (অনাবন্) স্তুতি করে।

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