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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 20 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 20/ मन्त्र 3
    ऋषिः - विश्वामित्रः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-२०
    1

    अग॑न्निन्द्र॒ श्रवो॑ बृ॒हद्द्यु॒म्नं द॑धिष्व दु॒ष्टर॑म्। उत्ते॒ शुष्मं॑ तिरामसि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग॑न् । इ॒न्द्र॒ । अव॑: । बृ॒हत् । द्यु॒म्नम् । ‍द॒धि॒‍ष्व॒ । दु॒स्तर॑म् ॥ उत् । ते॒ । शुष्म॑म् । ति॒रा॒म॒सि॒ ॥२०.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अगन्निन्द्र श्रवो बृहद्द्युम्नं दधिष्व दुष्टरम्। उत्ते शुष्मं तिरामसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अगन् । इन्द्र । अव: । बृहत् । द्युम्नम् । ‍दधि‍ष्व । दुस्तरम् ॥ उत् । ते । शुष्मम् । तिरामसि ॥२०.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 20; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    राजा और प्रजा के धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले राजन्] (बृहत्) बड़ा (श्रवः) अन्न [हमको] (अगन्) प्राप्त हुआ है, (दुस्तरम्) दुस्तर [अजेय] (द्युम्नम्) चमकनेवाले यश को (दधिष्व) तू धारण कर। (ते) तेरे (शुष्मम्) बल को (उत् तिरामसि) हम बढ़ाते हैं ॥३॥

    भावार्थ

    जिस राजा के कारण बहुत अन्न आदि पदार्थ मिलें, प्रजागण उसके बल बढ़ाने में सदा प्रयत्न करें ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(अगन्) अ० २।९।३। गमेर्लुङि छान्दसं रूपम्। अगमत्। प्राप्नोत्-अस्मानिति शेषः (श्रवः) अन्नम् (बृहत्) महत् (द्युम्नम्) धापॄवस्यज्यतिभ्यो नः। उ० ३।६। द्युत दीप्तौ-नप्रत्ययः, तकारस्य मः। द्युम्नं द्योतते यशो वाऽन्नं वा-निरु० ।। द्योतमानं यशः (दधिष्व) धर (दुस्तरम्) दुःखेन तरणीयं जेयम् (ते) तव (शुष्मम्) बलम् (उत् तिरामसि) प्रवर्धयामः ॥

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    विषय

    दुष्टरं द्युम्नम्

    पदार्थ

    १. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! हमें (बृहत्) = वृद्धि का कारणभूत (श्रवः) = यश (अगन्) = प्राप्त हुआ है। आप (दुष्टरम्) = वासनारूप शत्रुओं से आक्रान्त न होने योग्य (द्युम्नम्) = ज्ञानज्योति को (दधिव) = धारण कीजिए। आपके अनुग्रह से हमें 'दुष्टर द्युम्न' प्राप्त हो। २. हम (ते) = आपसे दिये हुए (शुष्मम्) = बल को (उत्तिरामसि) = आपके स्तवन व सोम-रक्षण द्वारा बढ़ाते हैं। हमारे मन यशस्वी विचारों से परिपूर्ण हों, मस्तिष्क ज्ञान से दील बने तथा शरीर शक्ति-सम्पन्न हों।

    भावार्थ

    प्रभु हमें 'यश-ज्ञान व बल' प्राप्त कराते हैं।

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    भाषार्थ

    (इन्द्र) हे परमेश्वर! आपकी कृपा से (बृहद् श्रवः) महायश (अगन्) हमें मिला है। आप हम में (द्युम्नम्) ऐसा आध्यात्मिक-धन (दधिष्व) स्थापित कीजिए, (दुष्टरम्) कि आसुरीभाव उसे दबा न सकें, जो कि उनके लिए दुर्लङ्घ्य हो। (उत) तदनन्तर (ते) आपके दिये (शुष्मम्) बल को (तिरामसि) हम और अधिक बढ़ाते हैं।

    टिप्पणी

    [तिरते=प्रवर्धयते (निरु০ ११.१.६)।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Self-integration

    Meaning

    Indra, ruler and protector of the world, the assets of the dominion are high and rising. Hold and govern this formidable wealth, honour and excellence of the nation. And let us all, we pray, raise and exalt your courage and power, honour and glory.

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    Translation

    O mighty king, you have gained great prominence, attain splendid conspecuity unalienable and we perpetuate your strength.

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    Translation

    O mighty king, you have gained great prominence, attain splendid conspicuity unalienable and we perpetuate your strength.

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    Translation

    O mighty Lord, you possess great Glory, and bear unlimited wealth and riches, and we enhance Thy might and power (i.e., by our praises).

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(अगन्) अ० २।९।३। गमेर्लुङि छान्दसं रूपम्। अगमत्। प्राप्नोत्-अस्मानिति शेषः (श्रवः) अन्नम् (बृहत्) महत् (द्युम्नम्) धापॄवस्यज्यतिभ्यो नः। उ० ३।६। द्युत दीप्तौ-नप्रत्ययः, तकारस्य मः। द्युम्नं द्योतते यशो वाऽन्नं वा-निरु० ।। द्योतमानं यशः (दधिष्व) धर (दुस्तरम्) दुःखेन तरणीयं जेयम् (ते) तव (शुष्मम्) बलम् (उत् तिरामसि) प्रवर्धयामः ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    রাজপ্রজাধর্মোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (ইন্দ্র) হে ইন্দ্র! [ঐশ্বর্যবান্ রাজন্] (বৃহৎ) বহু (শ্রবঃ) অন্ন [আমাদের] (অগন্) প্রাপ্ত হয়েছে, (দুস্তরম্) দুস্তর [অজেয়] (দ্যুম্নম্) দ্যোতমান যশ (দধিষ্ব) তুমি ধারণ করো। (তে) তোমার (শুষ্মম্) বল (উৎ তিরামসি) আমরা বৃদ্ধি করি।।৩।।

    भावार्थ

    যে রাজার জন্য বহু অন্নাদি পদার্থ প্রাপ্তি হয়, প্রজাগণ তাঁর বল বৃদ্ধির জন্য সদা প্রচেষ্টা করুক।।৩।।

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    भाषार्थ

    (ইন্দ্র) হে পরমেশ্বর! আপনার কৃপায় (বৃহদ্ শ্রবঃ) মহাযশ (অগন্) আমি প্রাপ্ত করি। আপনি আমাদের মধ্যে (দ্যুম্নম্) এমন আধ্যাত্মিক-ধন (দধিষ্ব) স্থাপিত করুন, (দুষ্টরম্) যে আসুরিকভাব যেন তা দমন না করতে পারে, যা আসুরিকভাবনার জন্য অভেদ্য। (উত) তদনন্তর (তে) আপনার জন্য (শুষ্মম্) বল (তিরামসি) আমরা আরও অধিক বর্ধিত করি।

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