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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 25 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 25/ मन्त्र 1
    ऋषिः - गोतमः देवता - इन्द्रः छन्दः - जगती सूक्तम् - सूक्त-२५
    2

    अश्वा॑वति प्रथ॒मो गोषु॑ गच्छति सुप्रा॒वीरि॑न्द्र॒ मर्त्य॒स्तवो॒तिभिः॑। तमित्पृ॑णक्षि॒ वसु॑ना॒ भवी॑यसा॒ सिन्धु॒मापो॒ यथा॒भितो॒ विचे॑तसः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अश्व॑ऽवति । प्र॒थ॒म: । गोषु॑ । ग॒च्छ॒ति॒ । सु॒प्र॒ऽअ॒वी: । इ॒न्द्र॒ । मर्त्य॑: । तव॑ । ऊ॒तिऽभि॑: ॥ तम् । इत् । पृ॒ण॒क्षि॒ । वसु॑ना । भवी॑यसा । सिन्धु॑म् । आप॑: । यथा॑ । अ॒भित॑: । विऽचे॑तस: ॥२५.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अश्वावति प्रथमो गोषु गच्छति सुप्रावीरिन्द्र मर्त्यस्तवोतिभिः। तमित्पृणक्षि वसुना भवीयसा सिन्धुमापो यथाभितो विचेतसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अश्वऽवति । प्रथम: । गोषु । गच्छति । सुप्रऽअवी: । इन्द्र । मर्त्य: । तव । ऊतिऽभि: ॥ तम् । इत् । पृणक्षि । वसुना । भवीयसा । सिन्धुम् । आप: । यथा । अभित: । विऽचेतस: ॥२५.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 25; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (3)

    विषय

    विद्वानों के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले परमेश्वर वा राजन्] (मर्त्यः) मनुष्य (तव) तेरी (ऊतिभिः) रक्षाओं से (अश्वावति) उत्तम घोड़ोंवाले [सेनादल] में (प्रथमः) पहिला [प्रधान] (प्रावीः) बड़ा रक्षक होकर (गोषु) भूमियों पर (गच्छति) चलता है। (तम् इत्) उसको ही (भवीयसा) अति अधिक (वसुना) धन से (पृणक्षि) तू भर देता है, (यथा) जैसे (अभितः) सब ओर से (विचेतसः) विविध प्रकार जाने गये (आपः) जलसमूह (सिन्धुम्) समुद्र को [भरते हैं] ॥१॥

    भावार्थ

    जो राजा और सेनापति आदि कार्यकर्ता परमेश्वर में विश्वास करके एक-दूसरे को रक्षा और सत्कार करते हैं, वे सब देशों में विजयी होकर बहुत धनी होते हैं ॥१॥

    टिप्पणी

    मन्त्र १-६ ऋग्वेद में हैं-१।८३।१-६ ॥ १−(अश्वावति) मन्त्रे सोमाश्वे०। पा० ६।३।१३१। इति दीर्घः। श्रेष्ठाश्वैर्युक्तै सैन्ये (प्रथमः) मुख्यः (गोषु) भूमिदेशेषु (गच्छति) चलति (प्राचीः) अवितॄस्तृतन्त्रिभ्य ईः। उ० ३।१८। अव रक्षणे-ईप्रत्ययः। सुरक्षकः (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् परमेश्वर राजन् वा (मर्त्यः) मनुष्यः (तव) (ऊतिभिः) रक्षाभिः (तम्) मनुष्यम् (इत्) एव (पृणक्षि) पृची सम्पर्के”। संयोजयसि। पूरयसि (वसुना) धनेन (भवीयसा) भवितृ-ईयसुन्। तुरिष्ठेमेयःसु। पा० ६।४।१४। इति तृलोपः। अत्यधिकेन। भूयसा (सिन्धुम्) समुद्रम् (आपः) जलानि (यथा) येन प्रकारेण (अभितः) सर्वतः (विचेतसः) विविधानि चेतांसि ज्ञानानि यासां ताः। विविधज्ञातव्याः ॥

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    विषय

    गोषु प्रथमः

    पदार्थ

    १. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! जो (मर्त्यः) = मनुष्य (तव ऊतिभि:) = आपके रक्षणों से (समाधी:) = सम्यक् रक्षित होता है वह (अश्वावति) = उत्तम कमेन्द्रियोंवाले यज्ञादि कर्मों में (प्रथम:) = पहला होता है तथा (गोषु) = ज्ञानेन्द्रियों में भी मुख्य होता हुआ (गच्छति) = गतिवाला होता है। प्रभु से रक्षित मनुष्य उत्तम कर्मेन्द्रियों व उत्तम ज्ञानेन्द्रियोंवाला होता है। २. हे प्रभो! आप भी (तम् इत) = उस प्रशस्त इन्द्रियोंवाले पुरुष को ही (भवीयसा वसुना) = अत्यधिक धन से (पूणक्षि) = सम्पृक्त करते हैं, (यथा) = जैसे (आप:) = जल (अभित:) = सब ओर से (सिन्धुम्) = समुद्र को जल से भरते हैं। हे प्रभो! ये पुरुष, जिनको आप उत्तम इन्द्रियाँ प्राप्त कराते हैं, और जिन्हें आप प्रभूत धन देते हैं, (विचेतसः) = विशिष्ट ज्ञानवाले होते हैं। 'घृतलवणतण्डुलेन्धनचिन्ता' इन्हें परेशान नहीं किये रखती।

    भावार्थ

    प्रभु से रक्षित व्यक्ति उत्तम इन्द्रियोंवाला, पर्याप्त धनवाला व विशिष्ट चेतनावाला होता है।

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    भाषार्थ

    (अश्वावति) सूर्य से सम्बद्ध भूमण्डल में रहनेवाला (प्रथमः) सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति (गोषु) वेदवाणियों में (गच्छति) प्रगति प्राप्त करता है, वेदवाणियों के रहस्यार्थों को जान पाता है। (इन्द्र) हे परमेश्वर! (मर्त्यः) ऐसा मनुष्य (तव ऊतिभिः) आपके रक्षा-साधनों द्वारा (सु प्रावीः) उत्तम रक्षा पाता है। (तम् इत्) उसे ही आप (भवीयसा) प्रभूत (वसुना) वैदिक ज्ञान-सम्पत्तियों द्वारा (पृणक्षि) पालित तथा पूरित करते हैं। (यथा) जैसे कि (अभितः) समुद्र के चारों ओर बहनेवाली (विचेतसः) अचेतन (आपः) नदियाँ (सिन्धुम्) समुद्र को जलों से पालित तथा पूरित करती हैं।

    टिप्पणी

    [अश्वावति-अश्व=आदित्य। यथा—‘एको अश्वो वहति सप्तनामा’ (ऋ০ १.१६४.२) पर निरुक्तकार कहते हैं कि—“एकोऽश्वो वहति सप्तनामा ‘आदित्यः’ ‘सप्तास्मै रश्मयो रसानभिसन्नामयन्ति’ (४.४.२७)। प्रथमः=वेदों के रहस्यार्थों के ज्ञान के लिए व्यक्ति की ‘श्रेष्ठता और अरिप्रता’ (=पाप-शून्यता) की आवश्यकता होती है। यथा—“यदेषां श्रेष्ठं यदरिप्रमासीत्प्रेणा तदेषां निहितं गुहाविः” (ऋ০ १०.७१.१)। इसी प्रकार वैदिक ज्ञानरस का स्थिर रूप से पान करते रहना, तथा वेद का सतत स्वाध्याय ये भी कारण हैं वेदों के रहस्यार्थों के ज्ञान में (ऋ০ १०.७१.५; ६)। गोषु=गौः=वाक् (वेदवाणी, निघं০ १.११)।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Self-integration

    Meaning

    O Indra, lord ruler and protector, in a horse- powered chariot the pioneer goes forward first over lands and oceans in the world, man of zeal and courage as he is, protected by all your means of safety and defence. And him you bless with abundant wealth and fame which come to him as prominent rivers from all round join and flow into the sea.

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    Translation

    O Almighty God, the man who is mortal guarded well by your protective powers finds first rank in the wealth of horses and cows. You with abundant wealth fill him as the waters scattered far fills the ocean.

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    Translation

    O Almighty God, the man who is mortal guarded well by your protective powers finds first rank in the wealth of horses and cows. You with abundant wealth fill him as the waters scattered far fills the ocean.

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    Translation

    O All-Protector God or king, the man, who is well-protected by Thy means of safety, moves as the first in war, where horses or speedy means of communication are used, and as master of the cattle and sense-organs. Thou finest him alone with large fortune. Just as the waters from all sides run into the ocean, similarly the persons, with multifarious forms oflearning approach Thee from all quarters.

    Footnote

    (1-6) cf. Rig, 1.83. (1-6); 7 cf. Rig, 10.104.3.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    मन्त्र १-६ ऋग्वेद में हैं-१।८३।१-६ ॥ १−(अश्वावति) मन्त्रे सोमाश्वे०। पा० ६।३।१३१। इति दीर्घः। श्रेष्ठाश्वैर्युक्तै सैन्ये (प्रथमः) मुख्यः (गोषु) भूमिदेशेषु (गच्छति) चलति (प्राचीः) अवितॄस्तृतन्त्रिभ्य ईः। उ० ३।१८। अव रक्षणे-ईप्रत्ययः। सुरक्षकः (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् परमेश्वर राजन् वा (मर्त्यः) मनुष्यः (तव) (ऊतिभिः) रक्षाभिः (तम्) मनुष्यम् (इत्) एव (पृणक्षि) पृची सम्पर्के”। संयोजयसि। पूरयसि (वसुना) धनेन (भवीयसा) भवितृ-ईयसुन्। तुरिष्ठेमेयःसु। पा० ६।४।१४। इति तृलोपः। अत्यधिकेन। भूयसा (सिन्धुम्) समुद्रम् (आपः) जलानि (यथा) येन प्रकारेण (अभितः) सर्वतः (विचेतसः) विविधानि चेतांसि ज्ञानानि यासां ताः। विविधज्ञातव्याः ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    বিদ্বৎকর্তব্যোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (ইন্দ্র) হে ইন্দ্র! [ঐশ্বর্যবান্ পরমেশ্বর বা রাজন্] (মর্ত্যঃ) মরনশীল মনুষ্য (তব) তোমার (ঊতিভিঃ) রক্ষা দ্বারা (অশ্বাবতি) উত্তম অশ্বযুক্ত/অশ্বসমন্বিত [সেনাদলে] (প্রথমঃ) প্রথম [প্রধান] (প্রাবীঃ) উত্তম রক্ষক হয়ে (গোষু) ভূমিতে (গচ্ছতি) চলে। (তম্ ইৎ) তাঁকেই (ভবীয়সা) অত্যাধিক (বসুনা) ধন দ্বারা (পৃণক্ষি) তুমি পরিপূর্ণ করো, (যথা) যেমন (অভিতঃ) সব দিক থেকে (বিচেতসঃ) বিবিধ প্রকারে জ্ঞাত (আপঃ) জলসমূহ (সিন্ধুম্) সমুদ্রকে [পূরণ করে]॥১॥

    भावार्थ

    যে রাজা ও সেনাপতি আদি কার্যকর্তা পরমেশ্বরের প্রতি বিশ্বাস করে একে অন্যকে রক্ষা এবং সৎকার করে, সে সকল দেশে বিজয়ী হয়ে অনেক ধনী হয় ॥১॥ মন্ত্র ১-৬ ঋগ্বেদে আছে-১।৮৩।১-৬।

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    भाषार्थ

    (অশ্বাবতি) সূর্য সাথে সম্বধিত ভূমণ্ডলে নিবাসকারী (প্রথমঃ) সর্বশ্রেষ্ঠ ব্যক্তি (গোষু) বেদবাণীর মধ্যে (গচ্ছতি) প্রগতি প্রাপ্ত করে, বেদবাণীর রহস্যার্থ জানতে পারে/জ্ঞাত হয়। (ইন্দ্র) হে পরমেশ্বর! (মর্ত্যঃ) এমন মনুষ্য (তব ঊতিভিঃ) আপনার রক্ষা-সাধন দ্বারা (সু প্রাবীঃ) উত্তম রক্ষা পায়/প্রাপ্ত হয়। (তম্ ইৎ) তাঁকেই আপনি (ভবীয়সা) প্রভূত (বসুনা) বৈদিক জ্ঞান-সম্পত্তি দ্বারা (পৃণক্ষি) পালিত তথা পূরিত করেন। (যথা) যেমন (অভিতঃ) সমুদ্রের চারিদিকে প্রবাহিত (বিচেতসঃ) অচেতন (আপঃ) নদী-সমূহ (সিন্ধুম্) সমুদ্রকে জল দ্বারা পালিত তথা পূরিত করে।

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